अमेरिका का ईरान परमाणु समझौते से हटना

अमेरिका का ईरान परमाणु समझौते से हटना

ईरान और पी 5+1 (अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, और रूस+ जर्मनी) देशों ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम समझौते पर 14 जुलाई, 2015 को अपनी सहमति देते हुए एक ऐतिहासिक समझौता ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में किया था। पी-5+1 देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी आामिल थे। इस समझौते को “संयुक्त व्यापक क्रियान्वयन योजनाCPOA)” या वियना समझौता या सामान्य रूप से ईरान परमाणु समझौता का नाम दिया गया। 20 जुलाई को इस समझौते को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मंजूरी मिल गई । इस समझौते के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं :

1. ईरान पर लगे हथियारों की खरीद फरोख्त के प्रतिबंध को हटा लिया जाएगा। हालांकि, सीमित रूप से कुछ प्रतिबंध जारी रहेंगे जो स्वयं ही पांच वर्ष बाद हट जाएंगे। बैलेस्टिक मिसाइल प्रौद्योगिकी पर प्रतिबंध आठ साल तक जारी रहेगा।

2. ईरान पर लगाए गए सुरक्षा परिषद के आर्थिक एवं वित्तीय प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र में एक नया प्रस्ताव पारित कर हटाए
जाएंगे।

3. ईरान के किसी भी परमाणु संयंत्र को न तो बंद किया जाएगा और न ही उसे नष्ट किया जाएगा।

4. ईरान के 800 व्यक्तियों और प्रतिष्ठानों जैसे ईरान शिपिंग लाइंस, ईरानियन ऑयल कंपनी आदि को प्रतिबंधित सूची से
हटा लिया जाएगा।

5. ईरान संवर्धित यूरेनियम के भंडार को आंशिक रूप से अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेच सकेगा। इसमें से वह कुछ को तनु
करके और कुछ को ईंधन में परिवर्तित करके बेच सकेगा।

6. ईरान और पी 5+1 देश समझौते के क्रियान्वयन की समीक्षा करने के लिए वर्ष में दो बार मंत्रीस्तरीय बैठक आयोजित करेंगे ।

7.. समझौते के लागू होते ही अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा ईरान के बैंकों, वित्तीय प्रतिष्ठानों, तेल, गैस, पेट्रो-केमिकल, व्यापार, बीमा और यातायात क्षेत्रों पर लगाए गए आर्थिक और वित्तीय प्रतिबंधों को हटा लिया जाएगा ।

8.. इस समझौते में तेहरान और वॉशिंगटन के बीच वह समझौता भी शामिल है जिसके तहत संयुक्त राष्ट्र निरीक्षकों को निगरानी कार्य के लिए ईरानी सैन्य स्थलों पर जाने की इजाजत होगी। समझौते के तहत यह जरूरी नहीं है कि किसी भी स्थल पर जान की अनुमति दे ही दी जाए और यदि अनुमति दी भी जाती है तो भी इसमें विलंब किया जा सकता है।

9. समझौते में परिष्कृत यूरेनियम भंडार को 98 प्रतिशत तक घटाना और अपने सभी संयंत्रों को अतंरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के
लिए खोलना शामिल है।

10. संयुक्त राष्ट्र निरीक्षक ईरान के संयंत्रों और सेना के प्रतिष्ठानों का निरीक्षण कर सकेंगे। उन्हें कहीं भी परमाणु हथियार मिलने का संदेह होने पर वे आपत्ति कर सकेंगे। ईरान इसे चुनौती दे सकेगा। इस पर बहुराष्ट्रीय आयोग जांच करेगा। आपत्ति सही पाए जाने पर ईरान को तीन दिन में उसका पालन करना होगा। परमाणु निरीक्षक केवल उन्हीं देशों के होंगे, जिनके साथ ईरान के राजनयिक रिश्ते हैं।

11. ईरान परिष्करण क्षमता दो-तिहाई कम करेगा। फर्दो में भूमिगत यूरेनियम परिष्करण केंद्र बंद करेगा।

12. ईरान परिष्कृत यूरेनियम का भंडार 300 किलोग्राम तक कम करेगा। ऐसा वह उसकी क्षमता घटाकर या बाहर भेज कर कर सकता है।

यूरोप की उलझन

अमेरिका के ईरान समझौते से बाहर होने के बाद से यूरोप पशोपेश में है। हालांकि, यूरोप अपने वायदे और फायदे के बीच उलझा हुआ है, फिर भी उसके अधिकांश प्रमुख देशों की राय अमेरिका के निर्णय के विपरीत ही है। यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का कहना है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प का यह फैसला एक “बड़ी चिंता*” का विषय है। उनका मानना है कि अमेरिका का ईरान के परमाणु समझौते से बाहर होना “अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर बने भरोसे को नुकसान” पहुंचाएगा। मर्केल का कहना है कि, यह सही नहीं है कि जिस समझौते पर सब सहमत हुए हों और जिस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अपनी स्वीकृति दी हो, उसे एकपक्षीय रूप से समाप्त कर दिया जाए। गौरतलब है कि ईरान के साथ समझौता करने वाले पी 5+1 देशों में सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य थे जबकि एक अन्य सदस्य जर्मनी ही था।

साफ है कि अमेरिका के इस डील से बाहर आने से उसके द्वारा ईरान पर नए प्रतिबंध लगाने का रास्ता भी साफ हो गया है। अगर ऐसा होता है तो इसका असर जर्मनी, फ्रांस, चीन, भारत और रूस की कंपनियों पर निश्चित रूप से पड़ेगा। यूरोपीय संघ के नेता ईरान डील को बचाने के लिए नए सिरे से विचार कर रहे हैं। जर्मनी की विदेश मामलों की संसदीय समिति के प्रमुख नॉर्बर्ट रोएटगेन का कहना है कि, “जर्मनी की कई कंपनियां ईरान के साथ करोड़ों डॉलर के सौदे कर चुकी हैं और इन सौदों के भविष्य पर ट्रम्प के फैसले ने
प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।” उनका मानना है कि यदि ईरान के साथ कारोबार करने वाली कंपनियों पर अगर अमेरिकी प्रतिबंध लगे तो जर्मनी सहित कई देशों की कंपनियां इससे प्रभावित होंगी।

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का मानना है कि अमेरिका ने ईरान परमाणु डील से बाहर जाकर गलती की है। उनके अनुसार, क्षेत्र में स्थिरता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि यूरोप को 2015 के इस परमाणु समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को फिर से पुष्ट करना चाहिए। मैक्रों के अनुसार, “यूरोपीय संघ द्वारा लिया गया निर्णय हमें ईरान को शीघ्र (परमाणु) गतिविधियां शुरू करने और तनाव को फैलने से रोकने में मदद करेगा आज सर्वाधिक जरूरी यह है कि मध्य-पूर्व में शांति एवं स्थिरता बनी रहे।” मैक्रों का कहना है कि इस समय यूरोप बहुपक्षीय व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी (Guarantor ) है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो बहुपक्षीय व्यवस्था बनाए गई थी और जब भी यह लड़खड़ाने लगती है तो उसे कायम रखने की जिम्मेदारी यूरोप की ही होती है।

संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने 2015 के ईरान परमाणु समझौते से अलग होने के अमेरिका के फैसले पर ‘गहरी चिंता’ जताई है। ईरान और छह वैश्विक शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, रूस, फ्रांस और जर्मनी के बीच जुलाई 2015 में हुए समझौते के आधिकारिक नाम (जेसीपीओए) का जिक्र करते हुए गुटेरेस ने एक बयान में कहा, “मैं इस घोषणा को लेकर अत्यधिक चिंतित हूं कि अमेरिका संयुक्त समग्र कार्ययोजना (जेसीपीओए) से अलग हो जाएगा और (ईरान के खिलाफ) फिर से प्रतिबंध लगाएगा।” समाचार एजेंसी सिन्हुआ के अनुसार, गुटेरेस ने कहा, “मैं अन्य जेसीपीओए प्रतिभागियों से जेसीपीओए के तहत अपनी संबंधित प्रतिबद्धताओं का पूरी तरह पालन करने और अन्य सभी (संयुक्त राष्ट्र) सदस्य देशों से इस समझौते का समर्थन करने का आग्रह करता हूँ।

ये समझौते तोड़ चुके हैं ट्रम्प

ईरान परमाणु समझौता : अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की नजर में ईरान परमाणु समझौता अब तक का सबसे बुरा समझौता है। वर्ष 2015 में ईरान परमाणु समझौते के तहत ईरान ने अपने करीब नौ टन अल्प संवर्धित यूरेनियम भंडार को कम करके 300 किलोग्राम तक करने की शर्त स्वीकार की थी। हालांकि, ट्रम्प सत्ता संभालने के बाद से ही इस समझौते से बाहर आने पर आमादा थे।

ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप: वर्ष 2016 में बराक ओबामा ने “ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप” (टीपीपी) पर हस्ताक्षर किए थे।
टीपीपी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में स्थित 11 देशों के बीच हुआ एक व्यापारिक समझौता है। इसका उद्देश्य इन देशों के बीच आयात- निर्यात पर लगने वाले शुल्क में कमी लाना है। लेकिन ट्रम्प ने कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर कर इससे बाहर निकलने की घोषणा कर दी है।

पेरिस जलवायु समझौता : जून 2017 में ट्रम्प ने पेरिस जलवायु समझौते से पीछे हटने की घोषणा की थी। साल 2015 के पेरिस जलवायु समझौते में दुनिया के करीब 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे।

यह समझौता जलवायु परिवर्तन पर किया गया एक ऐतिहासिक समझौता था जिससे बाहर जाने के ट्रम्प के फैसले की दुनिया भर में कड़ी आलोचना हुई ।

घरेलू पर्यावरण नियमन : ट्रम्प ने न केवल अंतरराष्ट्रीय करारों और संचियों पर सख्ती दिखाई बल्कि अमेरिका के भीतर भी उन्होंने पर्यावरण से जुड़े कई नियमों में उलदपेर किया। हाल में अमेरिका की पर्यायरण संरथण एजेंसी के प्रमुख स्कॉट पूडट ने कहा था कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में जिन वाहन उत्सर्जित मानकों को तय किया गया था उन्हें खत्म किया जाएगा ।

ओबामाकेयर: “ पेशेंट प्रोटेक्शन एंड एफोर्डबल केयर एक्ट
(पीपीएसीए) को पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा आम अमेरिकियों को बेहतर रवास्थ्य सुविधाएं देने के मकसद से लाए थे इसे हेल्थकेयर प्लान के तौर पर शुरू किया गया था जो ओबामाकेयर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्ष 2010 में इस पर कानून बना। इस कानून का उद्देश्य स्वास्थ्य मामलों पर खर्च की जाने वाली रकम को कम करना या हालाकि ओबामा के जाने के बाद द्रम्प ने इस योजना की शुरू से आलोचना की । अब इसकी जगह द्रम्प नया हेल्यकेयर बिल लेकर आए है।

इन देशों पर अमेरिका ने लगा रखे हैं प्रतिबंध

आइवरी कोस्ट : अमेरिकी सरकार ने अफ्रीकी देश आइवरी कोर्ट पर मानवाधिकार हनन के चलते प्रतिबंध लगाए हैं। वर्ष 1970 तक आइवरी कोर्ट की गिनती अफ्रीका की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं में होती थी लेकिन साल 1999 में देश में गृहयुद्ध शुरू हो गया जिसके बाद वहां मानवाधिकार हनन के अनके मामले सामने आए जिसके बाद अमेरिका ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। क्यूबा। अमेरिका और क्यूबा की प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है वर्ष 1999 में क्यूबा की सत्ता पर फिदेल कास्त्रो आसीन हुए कास्त्रो से पूर्व की सत्ता अमेरिका समर्थित थी लेकिन कास्त्रो के साथ ही साम्ययादियों ने सत्ता संभाली । इसके बाद अमेरिका ने क्यूबा पर प्रतिबंध लगा दिए कुछेक रियायतों के साथ ये प्रतिबंध फिलहाल जारी हैं ।

ईरान : ईसान और अमेरिका की कभी नहीं बनी। वर्ष 1978-1979 की ईरान क्रांति में पश्चिम देशों के साथ मित्रता रखने वाले शाह की सत्ता छिन गई थी इसके अलाया तेल सहित कई अन्य मुद्दे भी रहे जिसने अमेरिका और ईरान के बीच की खाई को और गहरा किया।

उत्तर कोरिया : उत्तर कोरिया और अमेरिका भी एक दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं। दोनों देशों के मध्य के मतभेद 1950 के दशक में हुए कोरियाई युद्ध में मौजूद रहे हैं उस दौरान अमेरिका ने दक्षिण कोरिया को समर्थन दिया था यह स्थिति आज भी जारी है और अमेरिका ने उत्तर कोरिया पर आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं। सीरिया मानवाधिकारों के हनन, मौजूदा गृहयुद्ध और आतंकवाद को प्रायोजित करने के आरोप में संयुक्त राज्य अमेरिका ने सीरिया पर प्रतिबंध लगा रखे हैं।

ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम से जुड़े स्थान

1. फो्र्दो : यह ईरान का प्रसिद्ध यूरेनियम ईगन संवर्धन संयंत्र है। परमाणु समझौते के अंतर्गत ईंधन संवर्धन पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी गई थी। लिहाजा इसे संयंत्र का इस्तेमाल मात्र मेडिकल आइसोटोप शोध के लिए होता है।

2. अराक : यहाँ प्रसिद्ध भारी पानी का रिएक्टर है । इसका पुनर्निर्माण इस प्रकार से किया गया है ताकि हथियारों के लिए प्लूटोनियम के उत्पादन को रोका जा सके।

3. अन्य रिएक्टर इस्काहान, बुशऐहर

4. यूरेनियम खदाने अरदाकान, रागहड और गाचिन

5. यूरेनियम संवर्धन संयंत्र : बोनेख रामसर, काराज और नाटांज

ट्रम्प का जेसीपीओए समझौते से अलग होने के पीछे के तर्क

ट्रम्प का मानना है कि यह समझौता अमेरिका और दुनिया के लिए बुरा है और वॉशिंगटन के मित्र भी इस बात पर सहमत हैं। उनके मुताबिक, ईरान उसे प्राप्त हो रही परमाणु सामग्री का इस्तेमाल अभी भी हथियार बनाने में कर रहा है। हालांकि, यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि यह समझौता करना ईरान की मजबूरी मात्र नहीं थी बल्कि अमेरिका सहित पश्चिमी शक्तियों के लिए भी यह खासा जरूरी या। लेकिन ट्रम्प ने हमेशा इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखा। उनके अनुसार, यह समझौता खासा उदार है और ईरान को एक निश्चित सीमा से अधिक मात्रा में भारी पानी (Heavy water) प्राप्त करने और अंतरराष्ट्रीय निरीक्षणकर्ताओं को निरीक्षण एवं जांच के मामले में सीमित अधिकार उपलब्ध कराता है। गौरतलब है। कि भारी पानी का इस्तेमाल परमाणु रिएक्टरों के संचालन में होता है। ट्रम्प का मानना है कि समझौता होने के बावजूद ईरान गैर- नाभिकीय बैलेस्टिक मिसाइलों का निर्माण कर रहा है तथा उनकी माने तो वह अपने यहां निर्मित हथियारों की आपूर्ति सीरिया, यमन आदि देशों अनुसार, ईरान के इन क्रियाकलापों पर रोक लगाने के लिए ही उन्होंने यह समझौता रद्द करने का निर्णय लिया है।लड़ाकू संगठनों को कर रहा है। लिहाजा, ट्रम्प के ताजा प्रतिबंधों को प्रभावी होने में लगेंगे करीब छह माह अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए ताजा प्रतिबंधों को प्रभावी होने में करीब छह माह तक का समय लग सकता है।

संयुक्त राज्य में जहां समझौते से बाहर होने के निर्णय की पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित डेमोक्रेट्स ने कड़ी आलोचना की है, वहीं रिपब्लिक्स ने इसका स्वागत किया है। ट्रम्प ने अपने प्रशासन को निर्देश दिए हैं कि जो प्रतिबंध जेसीपीओए (JCPOA) के द्वारा हटा दिए गए थे, उन्हें फिर से लगाने की कार्रवाई शुरू की जाए। समझौते के तहत, वित्तीय व बैंकिंग, बीमा, ऊर्जा, पेट्रोरसायन, जहाजरानी, जहाज निर्माण और बंदरगाह क्रियान्वयन आदि क्षेत्रों को प्रतिबंधों से राहत प्राप्त हुई थी। इसके अलावा, यूएस ने करीब 400 व्यक्तियों और प्रतिष्ठानों (संगठनों) से भी प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया था।
हालांकि, इस दौरान 200 व्यक्तियों और संगठनों जैसे इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गाई कोर्प आदि पर प्रतिबंध बरकरार थे। ट्रम्प के निर्णय के बाद समझौते के तहत प्राप्त सभी प्रकार की राहतें समाप्त हो जाएंगी। ट्रम्प प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, प्रतिबंधों के प्रभावी होने की एक अवधि करीब 90 दिन। लंबी होगी, जबकि एक अवधि करीब छह माह तक का समय लेगी। उनके अनुसार, ऊर्जा संबंधी क्षेत्रों में प्रतिबंध के प्रभावी होने में करीब छह माह का समय लग सकता है। इसके अलावा, अन्य प्रतिबंधों के लिए यह अवधि 90 दिन हो सकती है। जेसीपीओए को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले और ऊर्जा विभाग की ईरान पर बनी टास्क फोर्स की प्रमुख कोरे हिंडरस्टेन के मुताबिक, यूएस के इससे बाहर चले जाने के बाद इस समझौते का भविष्य खासा “पेचीदा” जान पड़ता है। उनके अनुसार, जो कंपनियां ईरान में कार्य कर रही हैं, उन्हें अपने काम को समेटने के लिए छह माह का समय दिया गया है। हालांकि, उनका मानना है कि, यह देखने की बात होगी की यूरोपियन देश और वहां की कंपनियां अमेरिका के इन ताजा प्रतिबंधों पर किस प्रकार की प्रतिक्रियाएं देती हैं। हिंडरस्टेन के मुताबिक, अमेरिका द्वारा लगाए गए प्राथमिक
प्रतिबंध जेसीपीओए के लागू होने के बाद भी बने हुए थे। यह समझौता मुख्य रूप से द्वितीयक प्रतिबंधों को हटाने से संबंधित है।” द्वितीयक प्रतिबंध उन कंपनियों पर लागू होते थे जो कंपनियां यूएस के साथ व्यापार करना चाहती थी यदि किसी कंपनी का ईरान के साथ परिचालन है और वह अमेरिका के साथ व्यापारिक या बैंकिंग संबंध नहीं रखना चाहती है तो वह द्वितीयक प्रतिबंधों से अधिक प्रभावित नहीं होगी। यह तथ्य यहां इसलिए बताना जरूरी है कि कई यूरोपियन कंपनियों, जिन्होंने जेसीपीओए के बाद ईरान के साथ. अपना व्यापार शुरू किया वा, जे यहांं अपना परिचालन एक अलग संस्था के तौर पर जारी रखा ताकि संभावित अमेरिकी प्रतिबंधों से बचा जा सके ।

अमेरिका की आंतरिक राजनीति का परिणाम

ट्रम्प शुरू से ही कहते रहे हैं कि ईरान परमाणु समझौते की “भावना को बनाए नहीं रख सका इसलिए उन्हें बाहर आने पर मजदूर होना पड़ा। ट्रम्प ने राष्ट्रपति चुनाव में इस मुद्दे को गर्मजोशी से उठाया था उन्होंने सीरिया में अमेरिका को मिली कूटनीतिक पराजय और इसमें ईरान की भूमिका के साथ-साथ परमाणु समझौते में ईरान को दी गई रियायतों का मुद्दा चुनाव में खूब भुनाया लिहाजा, अब टूम्प पर दबाव था कि वह इस मामले में ठोस कदम उठाए। राष्ट्रपति पद संभालने के बाद से ही ट्रम्प इस समझौते की समीक्षा की बात कहते हुए इसे “बुरा” समझौता बताते रहे हैं। सीरिया में हुए घटनाक्रमों की भी इसमें अहम भूमिका रही है। सीरिया वास्तव में महाशक्तियों का अखाड़ा बन चुका था। एक ओर अमेरिकी खेमा था तो दूसरी ओर रूसी खेमा। अमेरिका, ईरान को रूसी खेमे में मानता रहा है। जानकारों के मुताबिक, सीरिया में अमेरिका की कूटनीतिक पराजय के लिए ईरान को जिम्मेदार मानते हुए उसे सबक सिखाने के लिए ट्रम्प ने ईरान से समझौता तोड़ा है।

ट्रम्प ने चुनाव प्रचार में जनता से वादा किया था कि वे ईरान को उसकी कारगुजारियों की सजा देंगे और यह सजा परमाणु समझौते से बाहर होकर उस पर सख्त प्रतिबंघ लगाने के रूप में होगी।

तेल कीमतों पर तात्कालिक असर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यूएस के ताजा प्रतिबंधों के चलते ईरान अपना तेल उत्पादन 5 लाख से 10 लाख बैरल्स प्रतिदिन तक घटा सकता है। हालांकि, ऐसा अभी होता नहीं जान पड़ता। ईरान अपनी पूर्ण क्षमता से तेल उत्पादन जारी रखेगा और इसके लिए इच्छुक खरीदार भी ढूंढ लेगा हालांकि, उसे कुछ रियायते जरूर देनी पड़ सकती हैं। इस समझौते से पहले, ईरान पर संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएन), यूरोप और यूएस तीनों ने प्रतिबंध लगा रखे थे। इस समय, मात्र यूएस ही प्रतिबंध लगाएगा और इन एकपक्षीय प्रतिबंधों का भी उसे (अमेरिका को) अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारी विरोध झेलना होगा विशेषकर संयुक्त जर्मनी से। इसके अलावा, चीन, जो एक तेल आयातक्ता है और जो समझौते पर प्रारंभिक हस्ताक्षरकर्ता देशों में शामिल था, यह मानता है कि बिना यूएस की भागीदारी के यह समझौता अभी भी बरकरार है। इसका मतलब यह है कि चीन ईरान से अधिक मात्रा में तेल खरीदने का निर्णय कर सकता है और संभवतया यह कार्य दीर्घकालिक आधार पर कुछ रियायतों के जरिए हो सकता है।


लिहाजा, इस प्रकार का प्रयास क्षेत्र में चीन के प्रभाव में वृद्धि कर यूएस द्वारा लगाए किसी भी प्रकार के प्रतिबंधों को नाकाम बना देगा। इसका अर्थ यह भी है कि चीन यूएस से खरीदे जाने वाले तेल संघ सहित फ्रांस, यूके और की मात्रा में कमी भी कर सकता है। साफ है कि जब तक किसी प्रकार से तेल की आपूर्ति बाधित नहीं होती तेल उत्पादन में कमी नहीं आएगी और यह बाधा यूएस द्वारा लगाए गए ताजा प्रतिबंधों से नहीं आने वाली बल्कि इसका एकमात्र कारण मध्य-पूर्व में सैनिक कार्रवाई हो सकती है न कि यूएस के ईरान पर लगाए गए प्रतिबंध।

वैश्विक समर्थन के बिना अमेरिकी प्रतिबंध

प्रतिबंधों के ठीक से प्रभावी होने के लिए वैश्विक समर्थन जरूरी है। ईरान परमाणु समझौते से पहले लगाए गए प्रतिबंध ईरान की अर्थव्यवस्था को खासा नुकसान पहुंचा रहे ये। इन प्रतिबंधों को (संयुक्त राष्ट्र, यूरोप और यूएस का समर्थन हासिल था। हालांकि, अब जब यूएस प्रतिबंधों को फिर से लागू करने की घोषणा कर चुका है, उसकी इस घोषणा को बहुपक्षीय समर्थन मिलना खासा मुश्किल जान पड़ता है। फ्रांस, यूके और जर्मनी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि वे यूएस के बिना भी इस समझौते को व्यावहारिक समझते हैं।

वास्तव में, अपने संयुक्त बयान में इन देशों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे इस प्रकार के प्रयास करेंगे ताकि परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के दौरान जो वादे ईरान से किए गए थे उनकी पालना करते हुए ईरान की आर्थिक लाभों की प्राप्ति को सुनिश्चित किया जा सके। चीन और रूस जिन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, ने भी संकेत दिए हैं कि वे भी समझौते को अस्तित्व में बनाए रखना चाहते हैं। इसका अर्थ है कि, इन देशों की यूएस द्वारा एकपक्षीय तौर पर लगाए गए प्रतिबंधों का समर्थन करने की कोई योजना नहीं है और वे अपने और ईरान के मध्य संचालित व्यापारिक गतिविधियों का समर्थन करते रहेंगे। यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि व्या यूएस अपने प्रतिबंधों को प्रभावी बनाने के लिए गैर यूएस कंपनियों से इस निर्णय की पालना करा पाएगा।

ऐसा यूएस उन्हें अपने यहां व्यापार से वंचित करने की धमकी देकर ही करा सकता है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि प्रायः यूएस कंपनियां ईरान के साथ पर्याप्त मात्रा में प्रत्यक्ष व्यापार नहीं करती हैं जिस कारण यूएस के प्रतिबंध अधिक प्रभावी नहीं हो सकते हैं। इन्हें प्रभावी बनाने के लिए गैर यूएस कंपनियों को ईरान के साय व्यापार से रोकना होगा और ऐसा होना संभव नहीं जान पड़ता क्योंकि अधिकांश ऐसी कंपनियां फ्रांस, यूके, जर्मनी, चीन और शेष यूरोप के देशों की है।

ट्रम्प के निर्णय के प्रभाव

1. यूएस प्रतिबंध : 2015 के समझौते से पहले ईरान की वस्तुओं और सेवाओं के आयात पर प्रतिबध था वास्तव में, ईरान से अमेरिका का कोई प्रत्यक्ष व्यापार और निवेश संबंध नहीं था। 2015 का समझौता हो जाने के बाद विदेशी बैंकों में जमा ईरान का कई अरबों डॉलर जो अब तक अवरुद्ध था, ईरान को मिल गया। साथ ही, परमाणु संबंधी प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया गया था। अब अमेरिका के समझौते से हटने के बाद परमाणु संबंधी दंडात्मक प्रतिबंध फिर से लागू हो जाएंगे।

2. परमाणु कार्यक्रम 2015 के समझौते से पहले ईरान के पास हथियार बनाने की क्षमता थी। उसे बम हेतु ईंधन बनाने के लिए कुछ माह का ही समय चाहिए था। 2015 का समझौता हो जाने के बाद ईरान को गुप्त रूप से परमाणु हथियार बनाने की क्षमता के साथ या तो समझौता करना पड़ा या इस क्षमता को समाप्त ही कर दिया गया अमेरिका के समझौते से बाहर आने के बाद सभी प्रकार के प्रतिबंध फिर से प्रभावी हो जाएंगे।

3. निरीक्षण : 2015 के समझौते से पहले एनपीटी की जरूरतों के अंतर्गत कुछ हद तक मॉनिटरिंग की जाती थी हालांकि, यह समझौते के अंतर्गत प्रावधानों की तलना में कम प्रभावी थीं। 2015 के समझौते के तहत, यूरेनियम खदानों और यूरेनियम संवर्धन आदि की प्रभावी अंतरराष्ट्रीय मॉनिटरिंग की जाने लगी। अब समझौते से यूएस के बाहर आने के बाद, फिलहाल निरीक्षण जारी रहेंगे।

4. यूरोपियन संघ के प्रतिबंध : 2015 के समझौते से पूर्व सघन अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध ईरान पर लागू थे इनमें तेल पर प्रतिबंधों के साथ बैंकिंग पर भी सीमा (लिमिट) मेऔजूद थी । इसने ईरान को दुनिया में अकेला कर दिया था 2015 के समझौते के अंतर्गत ईरान के परमाणु कार्य से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को खत्म कर दिया गया साथ ही, यूरोपियन संघ ने भी तेल प्रतिबंधों को समाप्त कर दिया। अब यूएस के समझौते से बाहर जाने के बाद भी यूरोपियन संघ के प्रतिबंध खत्म या निलंबित ही रहेंगे।

भारत पर प्रभाव

भारत का रुख शुरू से ही इस समझौते के प्रति सकारात्मक रहा है। लिहाजा, अमेरिका के समझौते से बाहर आने पर भारत ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि, “भारत हमेशा इस बात पर कायम रहा है कि ईरान के परमाणु मुद्दे को, परमाणु ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग करने के ईरान के अधिकार के साथ-साथ विशेष रूप से ईरान के परमाणु कार्यक्रम की शांतिपूर्ण प्रकृति में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रुचि का सम्मान करते हुए, इस मुद्दे को बातचीत और कूटनीति के माध्यम से शांतिपूर्वक हल किया जाना चाहिए। जेसीपीओए के संबंध में उत्पन्न होने वाले मुद्दों को संबोधित करने और इनका समाधान निकालने के लिए सभी पक्षों को इसमें रचनात्मक रूप से संलग्न होना चाहिए। साफ है कि भारत अंतरराष्ट्रीय नियम आधारित व्यवस्था का समर्थक है और इसका यही दृष्टिकोण दक्षिण चीन सागर पर और पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के बाहर होने के दौरान भी रहा था।
जहां तक भारत के ऊर्जा व्यापार पर पड़ने वाले प्रभाव की बात है तो इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान भारत के लिए तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है। वर्ष 2010-11 तक सऊदी अरब के । बाद ईरान भारत का दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता था लेकिन जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का असर दिखने लगा, ईरान आपूर्ति के पायदान में खिसकता चला गया। हालाँकि, जहां 2010- 15 के दौरान प्रतिबंध वैश्विक सहमति के आधार पर लगाए गए थे, वहीं ट्रम्प ने समझौते से बाहर होने का फैसला एकपक्षीय आधार पर किया क्योंकि यूके, जर्मनी और फ्रांस कह चुके हैं कि वे ईरान के साथ हुए समझौते के प्रति प्रतिबद्ध बने हुए हैं।

चीन और रूस भी समझौते के पक्ष मे खड़े दिखाई देते हैं। हालांकि, देखना यह है कि क्या समझौते के हस्ताक्षरकर्ता देश इस समझौते को बचा पाएंगे? भारत ने ईरान में चावहार बंदरगाह के निर्माण में रणनीतिक निवेश किया है तो ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस पर भी कोई खतरा है? भारत के चावहार में निवेश का मकसद रणनीतिक के साय-साथ वित्तीय भी है। पिछले तीन वर्षों में, चाबहार के निर्माण में भारत और ईरान के प्रयासों ने गति पकड़ी है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि इस बंदरणाह का कार्य तकरीबन समाप्त होने को है और इस बंदरगाह को जुलाई तक भारतीय प्राधिकारियों को सौंप दिया जाएगा।

हालांकि, ताजा घटनाक्रम के अंतर्गत यदि अमेरिकी प्रतिबंधों ने अपना असर दिखाया तो इसका कार्य पूर्ण होने में कुछ विलंब हो सकता है और यह कार्य वर्ष के अंत तक जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो इसका सीधा असर अफगानिस्तान में भारत द्वारा संचालित पुनर्निर्माण परियोजनाओं पर पड़ सकता है। अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण भारत और यूएस दोनों का साझा लक्ष्य है, और भारत के इस कार्य को करने के पीछे ट्रम्प प्रशासन का आग्रह भी एक कारण है लिहाजा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि चाबहार के निर्माण में कोई अवरोध पैदा नहीं होगा। ट्रम्प के निर्णय से निश्चित तौर पर पश्चिमी एशिया में अस्थिरता बढ़ेगी । यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ करीब 8 मिलियन भारतीय प्रवासी कार्यरत हैं । पूर्व में हुए सैनिक तनावों ने भी यहां से भारतीयों को इस क्षेत्र को छोड़ने के लिए बाध्य किया है लिहाजा मौजूदा समय में भी यदि ऐसा होता है तो यह न केवल बेरोजगारी बढ़ाऐगा बल्कि इससे भारत के लिए चुनौतियाँ भी बढ़ेगी ।

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