दिल्ली का शानदार सफरनामा

दिल्ली का शानदार सफरनामा

देश की राजधानी दिल्ली के सौ वर्ष
दिल्ली, जो न जाने कितने ही साम्राज्यों के पतन और उत्थान की गवाह है जल्द ही भारत की राजधानी के रूप में अपने सौ वर्ष पूरे करने वाली है. अंग्रेजी शासन काल में दिल्ली को भारत के एक आम राज्य से बदलकर भारत की राजधानी बना दिया गया था. 12 दिसंबर, 1911 को जॉर्ज पंचम ने देश की राजधानी को कलकत्ता से स्थानांतरित कर दिल्ली करने की घोषणा कर दी थी. सात बार उजड़ने और बसने वाले इस शहर को मजबूत ढर्रे पर लाने और इसके पुनर्निर्माण करने की पूरी जिम्मेदारी एक ब्रिटिश वास्तुशिल्पी एड्विन ल्यूटियंस को सौपीं गई थी. काफी देख-परख और सोच-विचार करने के बाद रायसीना की पहाड़ियों पर एक शहर का निर्माण करने का निर्णय लिया गया. इतिहासकारों की मानें तो इस निर्णय से पहले भी दिल्ली को राजधानी बनाने के विषय में विश्लेषण करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया था. लेकिन उस आयोग का यह कहना था कि 50 वर्ष के भीतर ही यह शहर एक रेगिस्तान में परिवर्तित हो जाएगा. लेकिन फिर भी अंग्रेजों ने यहीं से भारत पर शासन करने का निर्णय लिया. उस समय रायसीना की पहाड़ियों पर छोटे-छोटे गांव बसे थे जिनमें मालसा, रायसीना, टोडापुर, अलीगंज आदि प्रमुख थे, इन सभी गांवों में मुख्य आबादी जाट, गुर्जर, मुसलमान और ब्राह्मणों की थी. ये सभी लोग पशुपालन या फिर शाहजहांबाद (वर्तमान पुरानी दिल्ली) के बाजारों में कार्य कर अपना जीवन व्यतीत किया करते थे.

ल्यूटियंस ने इन सभी गांवों को एक आधुनिक रूप दिया और आज की दिल्ली इन्हीं गांवों पर बसी हुई है. नई दिल्ली के निर्माण की शुरूआत भले ही रायसीना हिल से की गई थी लेकिन दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा उत्तर-पश्चिमी दिल्ली के बुराड़ी के पास स्थित कोरोनेशन पार्क में की गई थी. इस पार्क में आज से सौ वर्ष पूर्व एक राज दरबार लगा था जहां जॉर्ज पंचम की दिल्ली के राजा के रूप में ताजपोशी हुई थी. उल्लेखनीय है कि जिस समय दिल्ली को राजधानी बना कर जॉर्ज पंचम की ताजपोशी हो रही थी उसी समय देश को आजाद करवाने की क्रांतिकारी गतिविधियां भी अपने चरम पर थीं. भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने दिल्ली को अंग्रेजों के शासन से मुक्त करवाने के लिए अपने प्रयत्न तेज कर दिए थे.

दिल्ली की चारदीवारी के बाहर कनॉट-प्लेस, इंडिया गेट, वर्तमान राष्ट्रपति भवन और भारतीय संसद का निर्माण हुआ. 1927 में तैयार इस शहर का नाम न्यू-डेल्ही रखा गया जिसका उद्घाटन 13 फरवरी, 1931 को लॉर्ड इरविन ने किया.

दिल्ली का प्राचीन इतिहास
दिल्ली के योजनाबद्ध निर्माण से पहले यह शहर सात बार उजड़ा और बसा है. दिल्ली का शासन एक वंश से दूसरे वंश को हस्तांतरित होता रहा है. महाभारत के अनुसार दिल्ली को पांडवों ने अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ के नाम से बसाया था. विद्वानों का मत है कि दिल्ली के आसपास रोपड़ (पंजाब) के निकट सिंधु घाटी सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं और पुराने किले के निचले खंडहरों में प्रारंभिक दिल्ली के अवशेष भी मिले हैं. जानकारों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा एक शहर था. पांडवों की आगामी पीढ़ी ने कब तक इस स्थान को अपनी राजधानी बनाए रखा यह बात पुख्ता तरीके से नहीं कही जा सकती. मौर्य काल में दिल्ली या इंद्रप्रस्थ का कोई विशेष महत्त्व नहीं था क्योंकि राजनैतिक शक्ति का केंद्र उस समय मगध में था. बौद्ध धर्म का जन्म तथा विकास भी उत्तरी भारत के इसी भाग में हुआ. बौद्ध-धर्म की प्रतिष्ठा बढने के साथ ही दिल्ली की पहचान भी बढ़ने लगी. मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत अन्य राज्यों की अपेक्षा महत्वहीन रहा. एक चौहान राजपूत विशाल देव द्वारा 1153 में इसे जीतने से पहले लाल कोट पर लगभग एक शताब्दी तक तोमर राजाओं का राज रहा. विशाल देव के पौत्र पृथ्वीराज तृतीय या राय पिथौरा ने 1164 ई. में लाल कोट के चारों ओर विशाल परकोटा बनाकर इसका विस्तार किया. उनका क़िला राय पिथौरा के नाम से जाना गया. 1192 की लड़ाई में मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर दी. गौरी तो यहां से दौलत लूटकर चला गया लेकिन उसने अपने एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को यहां का उपशासक नियुक्त कर दिया. 1206 में गौरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वयं को भारत का सुल्तान घोषित कर दिया और लालकोट को अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया. कुतुबुद्दीन ऐबक ने लालकोट में एक महत्त्वपूर्ण स्मारक कुतुब मीनार का निर्माण किया. 1321 में दिल्ली तुगलकों के हाथों में चली गई. मुहम्मद बिन तुगलक ने एक ऐसी राजधानी की कल्पना की थी, जो साम्राज्य की योजनाओं को प्रतिबिंबित करे. उसकी योजना राज्य विस्तार से ज्यादा निर्माण और सुदृढ़ता की थी. उसने कुतुब दिल्ली, सिरी तथा तुगलकाबाद के चारों ओर एक रक्षा दीवार बनाई और जहांपनाह नामक एक नये शहर का निर्माण करवाया.

दिल्ली का इतिहास दो भागों में बंटा हुआ है एक नई-दिल्ली जिसे अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए निर्मित किया था और दूसरा पुरानी दिल्ली जो जन सामान्य के रहन-सहन और जीवन यापन के लिए एक उपयुक्त स्थान था.

एक दौर था जब यह शहर सिर्फ पुरानी दिल्ली तक ही सिमटा हुआ था. इसके चारों ओर घना जंगल फैला हुआ था. सिविल लाइंस, कश्मीरी गेट और दरियागंज में तब शहर के कुलीन लोग रहा करते थे. जिस पुरानी दिल्ली में लाल किला स्थित है, उस शहर को बादशाह शाहजहां ने बसाया था, इसलिए इस शहर का नाम शाहजहांनाबाद कहा जाता था. चांदनी चौक क्षेत्र की डिजाइन शाहजहां की बेटी जहांआरा ने तैयार की थी. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बाद सन् 1857 में दिल्ली पर अंग्रेजी शासन चलने लगा. 1857 में कलकत्ता को ब्रिटिश भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया लेकिन 1911 में फिर से दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. स्वाधीनता के पश्चात आधिकारिक तौर पर दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया.

महाभारत काल हो या फिर किसी मुगल शासक का आधिपत्य, अंग्रेजी हुकूमत हो या आजादी के बाद का नजारा दिल्ली ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं. हर काल में दिल्ली ने नए और अलग रूप देखे हैं. बदलते शासनों और साम्राज्यों के बावजूद दिल्ली की रौनक हमेशा बरकरार रही. दिलवालों की दिल्ली के नाम से प्रचलित इस चमचमाते और भागते-दौड़ते शहर की इमारतें जितनी ऊंची हैं उससे कहीं ज्यादा ऊंचे यहां बसने और पलायन करने वाले लोगों के सपने हैं. सौ वर्षों के इस लंबे सफर में आजादी से पूर्व भी दिल्ली राजनैतिक और क्रांतिकारी घटनाओं का केन्द्र थी. स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी गतिविधियां यहीं से निर्देशित की जाती थीं. आजाद हिंद फौज का भी अंतिम उद्देश्य दिल्ली पर आधिपत्य स्थापित कर स्वराज की घोषणा करना था. दिल्ली चलो जैसा नारा आज भी राजनेताओं द्वारा प्रयोग में लाया जाता है जो स्वयं दिल्ली की महत्ता को बयां करता है. यह शहर तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी बना है. जहां इस शहर ने आजादी के बाद पहली बार लाल-किले पर तिरंगा लहराते हुए देखा है वहीं 1984 के दंगों का घाव भी इसने सहन किया है.

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