दुनिया में समुद्रों का निर्माण कैसे हुआ?
दुनिया में समुद्रों का निर्माण कैसे हुआ?
धरती जब नई-नई थी तब वह बेहद गर्म थी। यानी अब से तकरीबन 4.5 अरब साल पहले धरती भीतर से तो गर्म थी ही उसकी सतह भी इतनी गर्म थी कि उस पर तरल जल बन नहीं पाता था। उस समय के वायुमंडल को हम आदि वायुमंडल (प्रोटो एटमॉस्फीयर) कहते हैं। उसमें भी भयानक गर्मी थी। पर पानी सृष्टि का हिस्सा है और सृष्टि के विकास के हर दौर में किसी न किसी रूप में मौज़ूद रहा है। धरती उस गर्म दौर में भी खनिजों के ऑक्साइड और वायुमंडल में धरती से निकली हाइड्रोजन के संयोग से गैस के रूप में पानी पैदा हो गया था। पर वह तरल बन नहीं सकता था। धरती के वायुमंडल के धीरे-धीरे ठंडा होने पर इस भाप ने बादलों की शक्ल ली। इसके बाद लम्बे समय तक धरती पर मूसलधार बारिश होती रही। यह पानी भाप बनकर उठता और संघनित (कंडेंस्ड) होकर फिर बरसता। इसी दौरान धरती की सतह भी अपना रूपाकार धारण कर रही थी। ज्वालामुखी फूट रहे थे और धरती की पर्पटी या क्रस्ट तैयार हो रही थी। धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से पानी ने अपनी जगह बनानी शुरू की। धरती पर जीवन की शुरूआत के साथ पानी का भी रिश्ता है। जहाँ तक महासागरों की बात है पृथ्वी की सतह का लगभग 72 फीसदी हिस्सा महासागरों के रूप में है। दो बड़े महासागर प्रशांत और अटलांटिक धरती को लम्बवत महाद्वीपों के रूप में बाँटते हैं। हिन्द महासागर दक्षिण एशिया को अंटार्कटिक से अलग करता है और ऑस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका के बीच के क्षेत्र में फैला है। एक नज़र में देखें तो पृथ्वी विशाल महासागर है, जिसके बीच टापू जैसे महाद्वीप हैं। इन महाद्वीपों का जन्म भी धरती की संरचना में लगातार बदलाव के कारण हुआ।
बिना पायलेट के एयरक्राफ्ट को क्या कहते हैं?
बिना पायलट के विमान से आपका आशय अनमैन्ड एरियल ह्वीकल (यूएवी) से है, जिन्हें रिमोटली पायलटेड ह्वीकल भी कहते हैं। आजकल नेटो की सेनाओं द्वारा अफगानिस्तान में इस्तेमाल हो रहे ड्रोन भी इसी श्रेणी के विमान हैं। ये पूरी तरह विमान है। इनमें केवल पायलट नहीं होते और न यात्री होते हैं। इनका इस्तेमाल आमतौर पर युद्ध में होता है। बमबारी या टोही उड़ान के लिए ये खासे उपयुक्त होते हैं। इनमें लगे कैमरे तस्वीरें और वीडियो शूट करके लाते हैं। हालांकि प्रक्षेपास्त्र भी दूर नियंत्रित होते हैं, पर प्रक्षेपास्त्रों का दुबारा इस्तेमाल नहीं होता, जबकि ये विमान अपना मिशन पूरा करने के बाद लौट आते हैं और दुबारा इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं। यात्री विमानों में अब ऑटो पायलट तकनीक या फ्लाई बाई वायर तकनीक का इस्तेमाल होने लगा है, पर उन्हें चालक रहित विमान नहीं कहा जा सकता।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश क्या होता है?
FDI से आशय है किसी देश के कारोबार या उद्योग में किसी दूसरे की कम्पनियों द्वारा किया गया पूँजी निवेश। यह काम किसी कम्पनी को खरीद कर या नई कम्पनी खड़ी करके या किसी कम्पनी की हिस्सेदारी खरीद कर किया जाता है। विदेशी पूँजी निवेश के दो रूपों का जिक्र हम अक्सर सुनते हैं। एक है प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश(एफडीआई)और दूसरा है विदेशी संस्थागत पूँजी निवेश(एफआईआई)। एफआईआई प्राय: अस्थायी निवेश है, जो शेयर बाज़ार में होता है। इसमें निवेशक काफी कम अवधि में फायदा या नुकसान देखते हुए अपनी रकम निकाल कर ले जाता है। एफडीआई में निवेश लम्बी अवधि के लिए होता है।
गाय और भैंस के दूध में कौन-कौन से पोषक तत्व होते हैं? दोनों में से किसका दूध श्रेष्ठ होता है?
दूध में 85 प्रतिशत पानी और शेष भाग में वसा और खनिज होते हैं। इसमें प्रोटीन, कैल्शियम और राइबोफ्लेविन (विटैमिन बी-2) होता है। इनके अलावा इसमें विटैमिन ए, डी, के और ई सहित फॉस्फोरस, मैग्नीशियम, आयडीन, कई तरह के एंजाइम भी होते हैं। गाय और भैंस के दूध में किसका दूध श्रेष्ठ होता है इसे लेकर कोई आम राय नहींं है। आयुर्वेद में गाय के दूध को बेहतर माना गया है। यह भी कहा जाता है कि गाय के दूध में एटू बीटा प्रोटीन होता है, जो मधुमेह और मस्तिष्क के विकास में सहायक होता है। यह भी कहा जाता है कि यह प्रोटीन देसी गाय में ही मिलता है जर्सी और हॉलस्टीन नस्ल की गायों में नहीं। पर कुछ वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि गाय के दूध में प्रति ग्राम 3.14 मिलीग्राम कोलेस्ट्रॉल होता है, जबकि भैंस के दूध में यह प्रति ग्राम 0.65 मिली ग्राम होता है। इस लिहाज से छोटे बच्चों को इसे पचाने में दिक्कत हो सकती है। और यह भी कि भैंस के दूध में कैल्शियम, लोह और फॉस्फोरस ज्यादा होता है। मोटे तौर पर दूध शरीर के लिए स्वास्थ्यर्वधक है। इस बहस में पड़ना उचित नहीं कि गाय या भैंस में किसका दूध बेहतर है।
मिट्टी के बर्तन में पानी ठंडा क्यों रहता है?
जब किसी तरल पदार्थ का तापमान बढ़ता है तो भाप बनती है। भाप के साथ तरल पदार्थ की ऊष्मा भी बाहर जाती है। इससे तरल पदार्थ का तापमान कम रहता है। मिट्टी के बर्तन में रखा पानी उस बर्तन में बने असंख्य छिद्रों के सहारे बाहर निकल कर बाहरी गर्मी में भाप बनकर उड़ जाता है और अंदर के पानी को ठंडा रखता है। बरसात में वातावरण में आद्र्रता ज्यादा होने के कारण भाप बनने की यह क्रिया धीमी पड़ जाती है, इसलिए बरसात में यह असर दिखाई नहीं पड़ता।
बच्चों में बड़ों की अपेक्षा अधिक हड्डियां क्यों होती हैं?
बच्चों के शरीर की तमाम हड्डियाँ उम्र बढ़ने के साथ एक-दूसरे से जुड़कर एक बन जाती हैं। आपने देखा होगा कि एकदम नन्हे बच्चों के सिर में मुलायम हिस्सा होता है। उस वक्त सिर की हड्डी कई भागों में होती है। बाद में वह एक बन जाती है।
सिक्स सेंस से क्या तात्पर्य है?
सामान्यत: मनुष्य की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मानी जाती हैं। देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और स्वाद लेना। सिक्स्थ सेंस का मतलब है इनसे अलग का अनुभव। इसे अतीन्द्रिय ज्ञान या परामानसिक अनुभव कहते हैं। हमें भीतरी रूप से महसूस होना या अंतर्मन आदि। इसका वैज्ञानिक आधार नहीं है, पर इसके काफी उदाहरण मिलते हैं। मसलन किसी को सपने में कोई बात दिखाई पड़ती है जो सच हो जाती है।
हमारे राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह पर उत्कीर्ण ‘सत्यमेव जयते’ कहां से लिया गया है? पूरा मंत्र क्या है और उसका अर्थ क्या है?
‘सत्यमेव जयते’ मूलत: मुण्डक उपनिषद का मंत्र 3.1.6 है। पूरा मंत्र इस प्रकार है:- सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:। येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम्।। अर्थात आखिरकार सत्य की जीत होती है न कि असत्य की। यही वह राह है जहाँ से होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। सत्यमेव जयते को स्थापित करने में पं मदनमोहन मालवीय की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
चन्द्रमा पर ध्वनि क्यों नहीं सुनाई देती है?
ध्वनि की तरंगों को चलने के लिए किसी माध्यम की ज़रूरत होती है। चन्द्रमा पर न तो हवा है और न किसी प्रकार का कोई और माध्यम है। इसलिए आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती।
बादल क्यों और कैसे फटते हैं?
बादल फटने का अर्थ आसमान से अचानक बड़ी जलधार का गिरना है। जब वातावरण में बहुत ज्यादा नमी होती है और भारी पानी के साथ कपासी वर्षी (क्यूम्यूलोनिंबस) बादल ऊपर उठते हैं और उन्हें आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिलता तब सारा पानी वहीं गिर जाता है। कपासी वर्षी मेघ लम्बवत काफी ऊँचे होते हैं। आमतौर पर ऊँचे पहाड़ों से टकराने के बाद वे फटते हैं। बादलों की यह ऊँचाई 15 किलोमीटर या उससे ज्यादा हो सकती है। यह एक तरीके से पानी भरे बैलून का फटना है। उनकी बूँदों का आकार सामान्य बूँदों से कहीं बड़ा होता है। यह बादल फटने की सरल व्याख्या है। इसकी दूसरी स्थितियाँ भी हो सकती हैं। मसलन सर्द और गर्म हवाएं विपरीत दिशाओं से टकराने से भी बादल फटते हैं। 26 जुलाई 2005 को मुम्बई में इसी तरह बादल फटे थे। 18 जुलाई 2009 को पाकिस्तान के कराची शहर में भी ऐसा ही हुआ। वहाँ दो घंटे में 250 मिमी बारिश हो गई। इस घटना में गरज के साथ ओले भी गिरते हैं। पानी इतना ज्यादा होता है कि कि कुल देर के लिए प्रलय जैसी लगने लगती है। एक घंटे में 75 मिली मीटर तक बारिश हो जाती है।
मुक्केबाजी या कुश्ती में 51 किलोग्राम या 66 किलोग्राम का क्या अर्थ होता है?
मुक्केबाज़ी, कुश्ती और जूडो, कराते और भारोत्तोलन जैसी प्रतियोगिताओं में खिलाड़ियों के शरीर का वज़न भी महत्वपूर्ण होता है। इसलिए इनमें खिलाड़ियों को अलग-अलग वज़न के आधार पर वर्गीकृत करते हैं। उदाहरण के लिए लंदन ओलिम्पिक की पुरुष वर्ग की बॉक्सिंग प्रतियोगिता में दस वर्ग इस प्रकार थे 1.लाइट फ्लाई वेट 49 किलोग्राम तक, 2.फ्लाईवेट 52 किलो तक, 3.बैंटमवेट 56 किलो, 4.लाइट वेट 60 किलो, 5.लाइट वेल्टर 64 किलो, 6.वेल्टर 69 किलो, 7.मिडिल 75 किलो, 8.लाइट हैवी 81 किलो, हैवी 91 और सुपर हैवी 91 किलो से ज्यादा। महिलाओं के वर्ग का वर्गीकरण दूसरा था। इसी तरह कुश्ती का वर्गीकरण महिला और पुरुष वर्ग में अलग-अलग था।
क्या कुछ फफूंदियां लाभदायक भी होती हैं?
फफूंद या कवक एक प्रकार के पौधे हैं जो अपना भोजन सड़े-गले मृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ये सृष्टि की शुरूआत से ही हैं और इनका मुख्य काम प्रकृति को साफ रखने का है। इसे वनस्पतियों में शामिल किया जाता है, पर ये क्लोरोफिल रुहत होते पर इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं। एक प्रकार से ये वनस्पतियों, प्राणियों और बैक्टीरिया से अलग कोटि के होते हैं। फफूंदी का संक्रमण ज़रूर पीड़ादायक होता है, पर फफूंदी मूल रूप में लाभदायक ही है। खमीर और मशरूम के रूप में आप अपने भोजन में इन्हें पाते हैं। कई तरह की औषधियों में इनका इस्तेमाल होता है।
आकाश में ध्रुवतारा सदा एक ही स्थान पर दिखता है, जबकि अन्य तारे नहीं, क्यों?
ध्रुवतारे की स्थिति हमेशा उत्तरी ध्रुव पर रहती है। इसलिए उसका या उनका स्थान नहीं बदलता। यह एक तारा नहीं है, बल्कि तारामंडल है। धरती के अपनी धुरी पर घूमते वक्त यह उत्तरी ध्रुव की सीध में होने के कारण हमेशा उत्तर में दिखाई पड़ता है। इस वक्त जो ध्रुव तारा है उसका अंग्रेजी में नाम उर्सा माइनर तारामंडल है। जिस स्थान पर ध्रुव तारा है उसके आसपास के तारों की चमक कम है इसलिए यह अपेक्षाकृत ज्यादा चमकता प्रतीत होता है। धरती अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर परिक्रमा करती है, इसलिए ज्यादातर तारे र्पूव से पश्चिम की ओर जाते हुए नज़र आते हैं। चूंकि ध्रुव तारा सीध में केवल मामूली झुकाव के साथ उत्तरी ध्रुव के ऊपर है इसलिए उसकी स्थिति हमेशा एक जैसी लगती है। स्थिति बदलती भी है तो वह इतनी कम होती है कि फर्क दिखाई नहीं पड़ता। पर यह स्थिति हमेशा नहीं रहेगी। हजारों साल बाद यह स्थिति बदल जाएगी, क्योंकि मंदाकिनियों के विस्तार और गतिशीलता के कारण और पृथ्वी तथा सौरमंडल की अपनी गति के कारण स्थिति बदलती रहती है। यह बदलाव सौ-दो सौ साल में भी स्पष्ट नहीं होता। आज से तीन हजार साल पहले उत्तरी ध्रुव तारा वही नहीं था जो आज है। उत्तर की तरह दक्षिणी ध्रुव पर भी तारामंडल हैं, पर वे इतने फीके हैं कि सामान्य आँख से नज़र नहीं आते। उत्तरी ध्रुव तारा भूमध्य रेखा के तनिक दक्षिण तक नज़र आता है। उसके बाद नाविकों को दिशाज्ञान के लिए दूसरे तारों की मदद लेनी होती है।
विश्व का पहला शब्दकोश dictionary किस भाषा में कब और कहां तैयार किया गया?
दुनिया की सबसे पुरानी द्विभाषी शब्द सूचियों के उदाहरण प्राचीन मेसोपोटामिया के अक्कादी साम्राज्य में मिलते हैं। आधुनिक सीरिया के एब्ला क्षेत्र में मिट्टी की पट्टिकाएं मिली हैं, जिनमें सुमेरी और अक्कादी भाषाओं में शब्द लिखे गए हैं। ये पट्टियाँ 2300 वर्ष ईपू की बताई जाती हैं। यों शब्दकोशों के शुरुआती अस्तित्व से अनेक देशों और जातियों के नाम जुड़े हैं। शब्दकोश का मतलब शब्द संग्रह, द्विभाषी कोश और पर्यायवाची कोश होता है। इन सबके विकास का अपना अलग इतिहास है। भारत में सबसे पुराना शब्द संग्रह प्रजापति कश्यप का ‘निघंटु’ है। उसका रचना काल 700 या 800 साल ईपू है। उसके पूर्व भी ‘निघंटु’ की परंपरा थी। निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त दुनिया के प्राचीनतम शब्दार्थ कोशों (डिक्शनरी) एवं विश्वकोशों (एनसाइक्लोपीडिया) में शामिल है। इस शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीं सदी में लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे हम अमरकोश के नाम से जानते हैं। चीन में भी ईसवी सन के हजार साल के पहले से ही कोश बनने लगे थे। उस श्रुति-परंपरा का प्रमाण बहुत बाद में उस पहले चीनी कोश में मिलता है, जिसकी रचना ‘शुओ वेन’ ने पहली दूसरी सदी ई० के आसपास की थी। कहा जाता है कि हेलेनिस्टिक युग के यूनानियों ने यूरोप में सर्वप्रथम कोश रचना आरंभ की। यूनानियों का महत्व समाप्त कम होने और रोमन साम्राज्य के वैभव काल में तथा मध्यकाल में भी बहुत से लैटिन कोश बने।
दिल्ली में सबसे ज्यादा गहराई वाला मेट्रो स्टेशन कौन सा है?
दिल्ली में सबसे ज्यादा गहराई वाला मेट्रो स्टेशन चावड़ी बाज़ार है, जो 30 मीटर यानी तकरीबन 98 फुट की गहराई पर है। इसके आसपास जामा मस्जिद और लाल किला जैसी ऐतिहासिक इमारतें हैं, उन्हें मेट्रो चलने से किसी प्रकार का नुकसान न हो इसलिए इतनी गहराई रखी गई है।
एम्बुलेंस की आवाज़ का आविष्कार किसने किया? इसका रंग लाल और नीला क्यों होता है?
आमतौर पर आप एम्बुलेंस की जो आवाज सुनते हैं, वह इलेक्ट्रॉनिक सायरन हैं। एमबुलेंस में सायरन के अलावा फ्लैशिंग लाइट, स्पीकर, रेडियों फोन और अन्य उपकरण होते हैं ताकि सड़क पर उसके लिए लोग रास्ता छोड़ दें। शुरू के सायरन हवा के दबाव से चलते थे। एक दौर में सिर्फ घंटियाँ बजाकर भी काम किया जाता था। आज सबसे प्रसिद्ध ह्वेलेन इलेक्ट्रॉनिक सायरन हैं। एम्बुलेंस को अलग दिखाई पड़ने के लिए चमकदार रंगों से सजाया जाता है। ज़रूरी नहीं कि वह रंग नीला और लाल हो। पीले, हरे, नारंगी और दूसरे रंगों में भी एम्बुलेंस दुनियाभर में पाई जाती हैं। उद्देश्य होता है कि उन्हें लोग जल्द पहचानें और रास्ता छोड़ दें। एम्बुलेंस केवल मोटरगाड़ियों में ही नहीं होतीं। एम्बुलेंस हवाई जहाजों, हेलिकॉप्टरों से लेकर नावों, घोड़ागाड़ियो, मोटर साइकिलों और साइकिलों पर भी होती हैं। एम्बुलेंस में सामने की ओर आपने अक्सर अंग्रेजी के उल्टे अक्षरों में एम्बुलेंस लिखा देखा होगा। इसका उद्देश्य है कि आगे चल रही गाड़ियों के ड्राइवरों को पीछे आती गाड़ी के अक्षर साफ दिखाई पड़ सकें। चूंकि वह दर्पण में उल्टे अक्षर पढ़ पाता है इसलिए उल्टे अक्षर लिखे जाते हैं।
भारत मे सर्वप्रथम प्रतियोगिता परीक्षा किस विभाग की हुई?
भारत में सन 1857 की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी शासन के स्थान पर अंग्रेजी सरकार का शासन स्थापित हो गया था। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1858 के तहत भारत में नागरिक सेवाओं के लिए अफसरों की नियुक्ति के नियम भी बनाए गए। इस सेवा को पहले इम्पीरियल सिविल सर्विस और बाद में इंडियन सिविल सर्विस का नाम दिया गया। शुरुआत में उनकी भरती की परीक्षाएं केवल लंदन में होती थीं। बाद में इलाहाबाद में भी होने लगीं। नीचे के पदों को भारतीय कर्मचारियों से भरा जाता था। सन 1923 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में स्थानीय भागीदारी के लिए एक आयोग बनाया जिसके अध्यक्ष थे लॉर्ड ली ऑफ फेयरहैम। इसके पहले इंस्लिंगटन कमीशन और मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड आयोग ने भी भारतीयों की भागीदारी के लिए सिफारिशें की थीं। बहरहाल ली आयोग ने सिफारिश की कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में 40 फीसदी ब्रिटिश, 40 फीसदी भारतीय सीधे और 20 फीसदी स्थान प्रादेशिक सेवाओं से प्रोन्नति देकर लाए गए अफसरों को दिए जाएं। ली आयोग ने भरती के लिए एक लोक सेवा आयोग बनाने की सिफारिश भी की। इसके बाद सन 1926 में संघ लोकसेवा आयोग की स्थापना हुई। स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा ने अनुच्छेद 315 के तहत इसे एक स्वायत्त संस्था के रूप में संविधान में स्थान भी दिया।
आईसीयू क्या होता है? रोगियों को इसकी जरूरत क्यों होती है?
आईसीयू का मोटा मतलब है इंटेंसिव केयर यूनिट। यानी अस्पताल का वह कक्ष जहाँ मरीज पर गहराई से नजर रखी जाती है। इसे इंटेंसिव ट्रीटमेंट यूनिट (आईटीयू) इंटेंसिव कोरोनरी केयर यूनिट (आईसीसीयू) या क्रिटिकल केयर यूनिट (सीसीयू) जैसे नाम भी दिए जाते हैं। मूल बात यह है कि इस कक्ष में ऐसे उपकरण और सुविधाएं होती हैं जो रोगी की सहायता कर सकें। ये सुविधाएं लग-अलग आवश्यकताओं के अनुसार होती हैं। मसलन हृदय का दौरा पड़ने के बाद अस्पताल में आए रोगी के लिए जो सुविधाएं चाहिए, उससे अलग किस्म की सुविधाएं हृदय का ऑपरेशन कराने वाले रोगियों को चाहिए। अस्पतालों में अब ये कक्ष विशेषज्ञता के आधार पर बनाए जाते हैं।
चुनाव के दौरान लगाई जाने वाली स्याही की संरचना क्या है? इसका क्या अन्यत्र भी इस्तेमाल किया जा सकता है?
भारत में शुरूआती चुनावों में इस स्याही का इस्तेमाल नहीं होता था, पर बाद में फर्जी मतदान की शिकायतें आने पर सन 1962 से इस स्याही का इस्तेमाल होने लगा। चुनाव आयोग ने भारतीय कानून मंत्रालय, राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, राष्ट्रीय अनुसंधान विकास निगम के साथ मिलकर इस स्याही को तैयार किया था। इसका फॉर्मूला गोपनीय है और इसका पेटेंट राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला के पास है। मोटे तौर पर सिल्वर नाइट्रेट से तैयार होने वाली यह स्याही त्वचा पर एक बार लग जाए तो काफी दिन तक इसका निशान रहता है। इतना ही नहीं, यह त्वचा पर पराबैंगनी (अल्ट्रा वॉयलेट) रोशनी पड़ने पर चमकती भी है जिससे इसे छिपाना संभव नहीं। कर्नाटक सरकार के सरकारी प्रतिष्ठान मैसूर पेंट्स एवं वार्निश लिमिटेड द्वारा बनाई जाने वाली इस स्याही के ग्राहकों में दुनिया के 28 देश शामिल हैं। इस स्याही को खासतौर से चुनाव के लिए ही बनाया गया है। इसलिए इसे लोकतांत्रिक स्याही भी कहते हैं। इसका कोई दूसरा इस्तेमाल नहीं है।
एक क्यूसेक कितने लिटर के बराबर होता है?
क्यूसेक बहते पानी या तरल का पैमाना है और लिटर स्थिर तरल का। क्यूसेक माने होता है क्यूबिक फीट पर सेकंड। यानी एक फुट चौड़े, एक फुट लम्बे और एक फुट गहरे स्थान से एक सेकंड में जितना पानी निकल सके। सामान्यतः एक क्यूसेक में 28.317 लिटर पानी होता है।
समुद्र के भीतर कैसे केबल तार हैं और मछलियाँ उन्हें क्यों काट रहीं हैं?
तमाम किस्म के संचार सम्पर्क का सबसे सफल और व्यावहारिक तरीका केबल वायर है। यह केबल वायर अब फाइबर ऑप्टिक तकनीक पर आधारित हैं। इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के साथ केबल वायर तकनीक में भी क्रांतिकारी बदलाव आ रहा है। टेलीग्राफी के आविष्कार के बाद से दुनिया में संचार केबल बिछाने का काम शुरू हुआ। इसके बाद टेलीफोन और डेटा लाइनों के केबल डाले गए। हाल में इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल के बाद से डिजिटल सामग्री के आदान-प्रदान में इनकी भूमिका बढ़ गई है। आप इतना समझ लें कि गीत, संगीत, वीडियो से लेकर तमाम तरह के सैनिक सम्पर्क इन केबलों की मदद से होता है। यह सम्पर्क सैटेलाइटों के साथ-साथ समुद्र के अंदर बिछे केबल के सहारे होता है। दुनिया में अंटार्कटिका को छोड़कर सारे महाद्वीप केबल वायर से जुड़े हैं। हाल में गूगल और पाँच अन्य टेली-कम्पनियों ने मिलकर अमेरिका को जापान से जोड़ने वाले ट्रांस-पैसिफिक केबल नेटवर्क स्थापित करने का फैसला किया है। इसमें 3000 किमी लम्बा केबल नेटवर्क होगा।
ये केबल ज़मीन के नीचे भी बिछाए जाते हैं, पर समुद्र पार इलाकों तक ले जाने के लिए समुद्र के पानी में गहराई पर इन्हें बिछाने की शुरूआत भी काफी पहले हो गई थी। यूरोप को अमेरिकी महाद्वीप से जोड़ने वाले पहला ट्रांस-अटलांटिक केबल 1858 में बिछाया गया था। इसके सहारे 16 अगस्त 1858 को पहली बार इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया ने अमेरिका के राष्ट्रपति जेम्स बुकैनन को बधाई संदेश भेजा था। भारत सन 1863 में केबल से जुड़ा जब मुम्बई (तब बॉम्बे) को सऊदी अरब से जोड़ने वाला केबल चालू हुआ। सन 1870 में मुम्बई बाकायदा लंदन से जुड़ गया था।
आधुनिक केबल सामान्यतः 69 मिमी (2,7 इंच) व्यास का होता है। इसके केंद्र में ऑप्टिकल फाइबर होता है और उसकी रक्षा के लिए ताँबे, पॉली कार्बोनेट, नायलन, स्टील की जाली और पॉलीयूरेथेन कवर होते हैं। एक मीटर केबल का वज़न सामान्यतः 10 किलोग्राम के बराबर होता है। नए केबल अत्यधिक तेज गति के हैं। जो नए केबल बिछाए जा रहे हैं वे 3 टेराबिट प्रति सेकंड या उससे ज्यादा स्पीड से डेटा भेजने में समर्थ हैं।
1980 के दशक से खबरें मिल रहीं है कि शार्क मछलियाँ इन केबल नेटवर्क को अपने तेज दाँतों से काट देती हैं। हाल में गूगल ने जिस फास्टर नाम के ट्रांस-पैसिफिक नेटवर्क की योजना बनाई है उसमें शार्क मछलियों से बचाव की व्यवस्था भी की गई है। इन केबलों के चारों और ऐसा पदार्थ लपेटा जाएगा कि मछलियाँ काट न पाएं।
ई-कचरा क्या है? इसका निपटारा कैसे होता है?
आपने ध्यान दिया होगा कि घरों से निकलने वाले कबाड़ में अब पुराने अखबारों, बोतल, डिब्बों, लोहा-लक्कड़ के अलावा पुराने कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सीडी, टीवी, अवन, रेफ्रिजरेटर,एसी जैसे तमाम इलेक्ट्रॉनिक आइटम जगह बनाते जा रहे हैं। पहले बड़े आकार के कम्प्यूटर, मॉनिटर आते थे,जिनकी जगह स्लिम और फ्लैट स्क्रीन वाले छोटे मॉनिटरों ने ले ली है। माउस, की-बोर्ड या अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैं, वे ई-वेस्ट की श्रेणी में आते हैं। फैक्स, मोबाइल,फोटो कॉपियर, कम्प्यूटर, लैप-टॉप,कंडेंसर, माइक्रो चिप्स, पुरानी शैली के कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों तथा अन्य उपकरणों के बेकार हो जाने के कारण इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है। अमेरिका में हरेक घर में साल भर में औसतन छोटे-मोटे 24 इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं। इन पुराने उपकरणों का फिर कोई उपयोग नहीं होता। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलेक्ट्रॉनिक कचरा निकलता होगा। बदलती जीवन शैली और बढ़ते शहरीकरण के कारण इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का ज्यादा प्रयोग होने लगा है। इससे पैदा होने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरे के दुष्परिणाम से हम बेखबर हैं। ई-कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्त्व लीवर, किडनी को प्रभावित करने के अलावा कैंसर, लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे हैं। उन इलाकों में रोग बढ़ने का अंदेशा ज्यादा है जहाँ अवैज्ञानिक तरीके से ई-कचरे की रीसाइक्लिंग की जा रही है। ई-वेस्ट से निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व हमारे शरीर में पहुंचकर बीमारियों को जन्म देते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करने वाले लोगों को कैंसर होने की आशंका जताई गई, जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए इससे प्रभावित हो रहे थे।
भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों की संख्या में महिला पुरुष व बच्चे इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निपटान में लगे हैं। इस कचरे को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि भी निकाली जाती हैं। इसे जलाने के दौरान जहरीला धुआँ निकलता है, जो घातक होता है। सरकार के अनुसार 2004 में देश में ई-कचरे की मात्रा एक लाख 46 हजार 800 टन थी जो बढ़कर वर्ष 2012 तक आठ लाख टन से ज्यादा हो गई है। विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे की गरीब देशों को बेच रहे हैं। गरीब देशों में ई-कचरे के निपटान के लिए नियम-कानून नहीं बने हैं। इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसमें 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे काफी नुकसान भी हो सकता है। इस कचरे को आग में जलाकर या तेजाब में डुबोकर इसमें से आवश्यक धातु आदि निकाली जाती है।
यों ई-वेस्ट के सही निपटान के लिए जब तक व्यवस्थित ट्रीटमेंट नहीं किया जाता, वह पानी और हवा में जहर फैलता रहेगा। कुछ समय पहले दिल्ली के एक कबाड़ी बाजार में एक उपकरण से हुए रेडिएशन के बाद इस खतरे की और ध्यान गया है।