नीति निदेशक तत्व
नीति निदेशक तत्व
(Directive Principle of state policy )
किसी देश का संविधान जहाँ उस देश की शासन प्रणाली का स्पष्ट विवरण-
निरूपित करता है, वहीं वह जनता की भावी आशाओं और आकांक्षाओं को भी प्रति
बिम्बित करता है. संविधान के अध्ययन से यह ज्ञात हो जाता है कि उस देश की
सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था क्या होगी ? 29 दिसम्बर, 1937 को सर्वप्रथम आयरलैण्ड में
सामाजिक-आर्थिक सिद्धान्तों का समावेश उस देश के संविधान में किया गय आयरलैण्ड की संसद को संविधान द्वारा यह स्पष्ट संकेत किया गया कि जनहित की
दृष्टि से सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लिए वह किस प्रकार के कानूनों का निर्माण
करेगी.
इस प्रकार के नीति निर्देशन को समस्त जनता की सहमति और उसकी आशाओं का केन्द्र माना गया. भारत के: संविधान निर्माताओं ने भी इस प्रकार के – तत्वों को संविधान में सम्मिलित किया है. ‘भारतीय संविधान के निर्माणकाल में एक उप-समिति- मौलिक अधिकार उप- समिति’ का गठन आचार्य कृपलानी की अध्यक्षता में किया गया था इस समिति में दस सदस्य थे. इस उपसमिति ने एक प्रारूप “Fundamental Principles of Goverment” में ऐसे अधिकारों का वर्णन किया
जिनको न्यायालय द्वारा प्रभावी नहीं किया जा सकता था. यद्यपि ये मौलिक अधिकार
नहीं थे तदपि सरकार उस दिशा में ही कार्य करेगी, ऐसा प्रावधान किया गया था. यह
राज्य का कर्तव्य होगा कि इस प्रारूप में । वर्णित अधिकारों के अनुरूप ही कानून
बनाएगा और एक ऐसे समाज का निर्मा करने का प्रयास करेगा जिसमें सामाजिक
न्याय व समानता के साथ ही आर्थिक सुरक्षा भी होगी l सुरक्षा भी होगी. इसे ही नीति निदेशक तत्व
की संज्ञा दी गई.
नीति निदेशक तत्व क्यों?
सर्वप्रथम, नीति निदेशक तत्वों के द्वारा। यह मान्यता स्पष्ट हो गई है कि संविधान
का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है, यह द्वितीय महायुद्ध
के उपरान्त की कल्पना थी और संविधान निर्माता इस तथ्य को स्पष्ट करना चाहते थे कि स्वतन्त्र भारत में राज्य का स्वरूप जनकल्याणकारी हो .
द्वितीय नीति निदेशक तत्व समस्त जनता के समक्ष एक मापदण्ड होगा जिससे
कि वह सरकार के क्रियाकलापों का मूल्यांकन कर सकेगी. सार्वजनिक नीतियाँ
गतिशील एवं परिवर्तनशील हो सकती हैं, किन्तु उनका मुख्य आधार राज्य नीति के व
निदेशक तत्व होंगे. यह न्यायालय में प्रभावी नहीं किए जा सकते. किन्तु जनता के
न्यायालय में निश्चय ही प्रभावी होंगे.
नीति निदेशक तत्व व मौलिक अधिकारों में अन्तर
(1) मौलिक अधिकारों का हनन होने पर नागरिक अनु. -32 ( Right to Consti-
tutional Remedies) के अन्तर्गत न्यायालय के माध्यम से अपनी क्षतिपूर्ति अथवा सुरक्षा
प्राप्त कर सकता है, किन्तु नीति निदेशक तत्वों के विरुद्ध कार्य होने पर भी न्यायालय
हस्तक्षेप नहीं कर सकते, क्योंकि नीति निदेशक तत्वों का कोई वैधानिक आधार
नहीं है वह तो मात्र मार्गदर्शक तत्व हैं. (2) पं. नेहरू ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि-” यदि नीति निदेशक तत्वों और मौलिक अधिकारों में कहीं विरोध आता है,तो नीति निदेशक तत्व सर्वोपरि होने चाहिए.इसी उद्देश्य से प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, चौबीसवाँ तथा ब्यालीसवाँ संविधान संशोधन पारित किए गए.(3) जनता का कल्याण सर्वोपरि है. अतः संविधान का प्राक्कथन तथा नीति निदेशक तत्वों का महत्व स्पष्ट है. कोई भी सरकार इनके विरुद्ध कार्य करके पदारूढ़ नहीं रह सकती. नीति निदेशक सामूहिक रूप से समस्त समाज के हित की दृष्टि से हैं, जबकि मौलिक अधिकार मात्र व्यक्ति के हित की दृष्टि से हैं.
रिथति प्राप्त होगी बच्चों तथा युवको के भौतिक या नैतिक हितो की रक्षा की
जाएगी(4) राज्य अपने आर्थिक साथनों केअनुसार और विकास की सीमाओं के भीतरयह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यतानुसार रोजगार पा सके, शिक्षा प्राप्त
कर सके एवं वेरोजगारी, वृद्दावस्था औरअगहीनता आदि की दशाओ में सार्वजनिक
सहायता प्राप्त कर सके (5) राज्य का यह प्रत्येक सम्भव प्रयल होगा कि व्यक्तियों को अपने अनुकूल अवस्थाओं में ही कार्य करना पड़े तथाप्रसूतावस्था में सित्रियों को कार्य न करना
पड़े ।(6) राज्य की यह नीति होगी कि प्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन दें (7) कृषि का वैज्ञानिक आधार पर. संचालन हो,
(8) कृषि और उद्योगों में लगे हुए सभी মजदूरों को अपने जीवन निर्वाह के लिए
उचित वेतन मिल सके, उनका जीवन स्तर ऊपर उठ सके, वे अवकाश के समय का
उचित उपयोग कर सके तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर मिल
(9) राज्य पशु-पालन की अच्छी प्रणालियों का प्रचलन करेगा. गाय, वछड़ो
तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की BREED सुधारने और उनका वध रोकने का
प्रयत्न करेगा.(10) राज्य इस वात का प्रयास करेगा कि कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय की प्राप्ति में सहायक हो और उचित व्यवस्थापन, योजना या अन्य किसी प्रकार से समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था करेगा,. जिससे आर्थिक असमर्थता या अन्य किसी कारण से व्यक्ति न्याय प्राप्त करने की सुविधा से वंचित न रहे.
(11) राज्य उचित औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों को भागीदार बनाने के लिए कदम उठाएगा व्यवस्था अन्तिम व्यवस्थाएं 42वें संविधान संशोधन द्वारा की गई थीं. 44वें संशोधन
द्वारा यह कहा गया कि-” राज्य न केवल व्यक्तियों की आय और उनके सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बन्धी भेदभाव को कम-से-कम करने का प्रयत्न करेगा. वरन् विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाल विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक भेदभाव को भी कम-से-कम करने का प्रयत्न करेगा.
उपर्युक्त व्यवस्थाओं का उद्देश्य स्पष्ट रूप से भारत के नागरिकों को बिना किसी
भेदभाव के आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है सामाजिक हित की दृष्टि से निदेशक तत्व
(1 ) राज्य नागरिकों के जीवन स्तर को
सुधारने तथा उनके स्वास्थ्य सुधार के
प्रयास करेगा. हानिकारक मादक दव्य व
अन्य मादक पदार्थों के सेवन पर प्रतिबन्ध
लगाएगा.
(2) राज्य दुर्बलतर अगों की, विशेषकर
अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन-
जातियों की शिक्षा तथा अर्थ सम्बन्धी हितों
की विशेष सावधानी से रक्षा करे गा
सामाजिक अन्याय व अन्य सभी प्रकार के
शोषण से उनकी रक्षा करेगा.
न्याय, शिक्षा, प्रजातन्त्र तथा प्राचीन
स्मारकों की रक्षा के लिए निर्देश
(1) सभी नागरिकों के लिए न्याय प्राप्ति
की दृष्टि से समान कानून बनाएगा.
न्यायपालिका व कार्यपालिका को यथा
सम्भव पृथक् करेगा.
(2) राज्य सभी छह वर्ष से कम आयु
के बालकों के लिए प्रारम्भिक बाल्यावस्था
देखरेख और शिक्षा देने के लिए व्यवस्था
करने का प्रयास करेगा.
(3) राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन के
लिए आवश्यक कदम उठाएगा और उन्हें
इतने अधिकार अवश्य प्रदान करेगा कि वे
स्वायत्तशासी इकाइयों के रूप में कार्य कर
सके ।
(4) प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व
के स्थानों तथा राष्ट्रीय महत्व के भवनों की
रक्षा का कार्य राज्य करेगा. संसद द्वारा
घोषित राष्ट्रीय महत्व का कोई भी भवन
राज्य द्वारा सुरक्षित रखा जाएगा.
(5) राज्य देश के पर्यावरण की रक्षा
और उसके सुधार का प्रयास करेगा राज्य
के द्वारा वनों तथा वन्य जीवन की सुरक्षा
का भी प्रयास किया जाएगा
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा सम्बन्धी निर्देश
राज्य अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पारस्परिक समझ में वृद्धि, विश्व शान्ति, विवादों का पारस्परिक वात्ता द्वारा हल तथा युद्धी को रोकने का प्रयास करेगा. इस दृष्टि से राज्य-
(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा में
वृद्धि के प्रयास करे,
(2) राष्ट्रों के मध्य न्याय व सम्मान पूर्ण
सम्बन्ध स्थापित करे।
(3) राष्ट्रो के पारस्परिक व्यवहार
अनतर्रा्ट्रिय कालून और सथियों के
आवरमाब में वृद्धि करे
(4) अन्तराष्ट्रीय विवादी को मध्यस्थता
द्वारा सुलझाने का प्रयास करे।
नीति निदेशक तत्यों की समालोचना
(।) इसमें किचित सदेह नहीं है क
यदि राज्य उपर्युक्त निर्देशों का प्रामाजिकत
से पालन करे तो सच्ये अ्थ में लोकतन्त्र
की स्थापना होगी जिसमें सभी प्रकार की
स्वतन्ता. समानता व न्याय प्राप्त हो सकेगा
वह वास्तविक अर्थ में लोक कल्याणकारी
राज्य होगा तथा लोकतान्त्रिक समाजवादी
समाज की स्थापना में सहायक होगा
(2) इन तत्वो की कुछ आलोचना भी
हुई है सर्वप्रथम इनके पीछे वैधानिक
शक्ति का अभाव है अत ये शुभ इच्छाएं
बनकर रह गए है, इन्हें नेतिक उपदेश
मात्र कहा गया है, सविधान सभा निर्मात्री
सभा के सदस्य श्री नसीरुद्दीन ने इन्हें नव
वर्ष के प्रथम दिन पास किए गए शुभकामना
प्रस्ताव की संज्ञा दी जिसके भुगतान के
लिए बैंक रवतत्र है यह ललित पदावली
में व्यक्त उचच ध्वनित भावनाओं की ऐसी
पव्तियाँ हैं जिनका वैधानिक दृष्टि से कोई
महत्व नहीं है वस्तुतः यह उपदेश मात्र ही
कहे जा सकते हैं.
(3 ) दूसरी आलोचना यह है कि यह
अस्पष्ट व अतार्किक रूप से संग्रहीत किए
गए हैं यह अव्यावहारिक एवं अनुचित है
तथा सार्वभौमिक राज्य की भावना के
विरुद्ध एवं अस्वाभाविक है. भविष्य में वह
वैधानिक द्वन्द्व का कारण बन सकते है।
(4) वस्तुत कुछ आलोचनाएं तर्कसंगत
नहीं है नीति निर्देशक तत्वों को असंगत
अथवा असामयिक नहीं कहा जा सकता.
इसके पीछे राज्य शक्ति नहीं है, तो भी
जनमत की शक्ति तो अवश्य है. यह चरम
सीमाओं से नागरिकों की रक्षा करने में
अवश्य ही समर्थ हैं. नैतिक आदर्शों के रूप
में इनका महत्व स्वयं सिद्ध है, यह शासन
के मूल्यांकन का आधार अवश्य ही है तथा
सविधान की व्याख्या में इनका अपरिमभित
सहयोग होगा और कार्यपालिका की असीमित
शक्ति को सीमित करने तथा उसके दुरुप
योग को रोकने में सक्षम अवश्य सिद्ध होग.