भारत में वन

भारत में वन

प्राकृतिक वनस्पति का तात्पर्य पौधों की उन प्रजातियों से है जो क्षेत्रीय मिट्टियों पर समान जलवायु वाली परिस्थितियों में एक-दूसरे के साथ पारस्परिक सहयोग से जीवित रहते हैं और बढ़ते हैं। यहां उल्लेखनीय है कि हिमालय के प्रदेशों और थार मरूस्थल के प्रदेशों को छोड़कर आजकल किसी भी क्षेत्र में वास्तविक रूप से प्राकृतिक वनस्पति नहीं मिलते। भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भागों में मानव द्वारा प्राकृतिक
वनस्पति को या तो बदल दिया गया है या नष्ट कर दिया गया है। आजकल प्राकृतिक वनस्पति उस वनस्पति समूह को कहा जाता है जिसे एक लंबे समय तक अवाधित छोड़ा गया हो, जिससे उस वनस्पति समूह के पौधों की प्रजातियों को मिट्टी और जलवायु के साथ सामंजस्य बनने का पूरा अवसर मिला हो।

प्राकृतिक वनस्पति के प्रकार

जलवायु, मिट्टी और प्राकृतिक वनस्पति के बीच परस्पर गहरा
संबंध है। जलवायु और मिट्टी के आधार पर भारत की प्राकृतिक वनस्पति को छ: वर्गों में बांटा जा सकता है। ये हैं-

(1) उष्णकटिबंधीय सदाबहार जंगल (2) मानसूनी वन (3)
पर्वतीय वन (4) झाडदार और कंटीले वन (5) मरूस्थलीय और अर्द्धमरूस्थलीय वन और (6) कच्छ प्रदेश के वन।

उष्णकटिबंधीय सदाबहार या वर्षा वाले वन

इन जंगलों के पेड़ों में पतझड़ का कोई एक खास मौसम नहीं
आता। इससे ये सदा हरे-भरे रहते हैं। ये उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहां औसत तापमान 25°C से 27°C के बीच रहता है और वृष्टिमान 200 सेमी. से अधिक नहीं होता। ये मानसूनी हवाओं की आनेवाली दिशा की ओर ढलान पर होते हैं। ये क्षेत्र पश्चिमी घाट के पश्चिमी भाग में (महाराष्ट्र के कुछ भाग केरल और कर्नाटक), पूर्वी हिमालय प्रदेश में (तराई प्रदेश), उत्तर पूर्वी भारत (लुसाई, गारो, खासी, जैयन्तिया तथा अन्य पहाड़ियां) तथा अंडमान द्वीप समूह के अधिकांश भागों में अवस्थित है। उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन में आरोही लताओं, अधिपादप, बांस और फर्न का घना जंगल होता है।
पेड़ों की ऊंचाई 45 मी. तक होती है। इनमें शीशम, आबनूस और नागकेशर की बेशकीमती लकड़ियां मिलती है जिनका उपयोग फर्नीचर, रेल की तख्तियां तथा घर बनाने में होता है। सदाबहार वनों की कुछ मुख्य विशेषतायें ये हैं-

(1) ये काफी घने होते हैं।
(2) यहां वृक्षों की बहुरूपता दृष्टिगोचर होती है।
(3) यहां पाई जानेवाली कठोर लकड़ियों का औद्योगिक रूप से काफी महत्व है।
(4) यहां वन्य प्राणियों की विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं।
(5) यहां की भूमि दलदली होने के कारण वनों का विदोहन एक कठिन कार्य है।
(6) यही कारण है कि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचूरता के
कारण इस वन का सीमित महत्व है।

उष्णकटिबंधीय पतझड़ वाले वन (मानसूनी)

इन्हें मानसूनी वन भी कहा जाता है जो लगभग संपूर्ण भारत में प्राकृतिक आवरण बनाते हैं। ये 150 सेमी. से 200 सेमी. के बीच वृष्टिमान वाले क्षेत्र में मिलते हैं। इसके अधिकांश पेड़ पर्णपाती होते हैं, जो ग्रीष्म ऋतु में 6 से 8 सप्ताह के लिए अपने पत्तों को गिरा देते हैं।

पेड़ों की प्रजातियों के अनुसार इनके पत्ते मार्च के शुरू से अप्रैल के अंत तक गिरते रहते हैं। अत: ये जंगल किसी भी समय के लिए पूर्णतः पर्णहीन नहीं होते हैं। ये वन दो प्रकार के होते हैं- (1) नम पर्णपाती और (2) शुष्क पर्णपाती। यह देखा गया है कि नम पर्णपाती वनों का स्थानान्तरण शुष्क पर्णपाती वनों द्वारा धीरे-धीरे हो रहा है। पश्चिमी घाट के पूर्वी ढलान पर नम-पर्णपाती वन मिलते हैं। सागवन इस प्रदेश की एक महत्वपूर्ण प्रजाति है। और प्रायद्वीप के उत्तर-पूर्व क्षेत्र में ये सामान्य रूप से पाये जाते हैं, जैसे कि छोटा नागपुर पठार मध्य प्रदेश तक दक्षिण बिहार और उड़ीसा में। ये वन उत्तर में शिवालिक प्रदेश के साथ-साथ लाकर और तराई प्रदेश में भी सामान्य रूप से प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त प्रदेशों के शेष 150 सेमी. वर्षा वाले क्षेत्रों में शुष्क पर्णपाती वन पाये जाते हैं। शुष्क पर्णपाती वनों में भी अधिकांशत: नम पर्णपाती वन की प्रजातियों वाली वनस्पतियां ही पाई जाती हैं, लेकिन इनके पेड़ों छोटे होने के कारण यह वन कम घना और ज्यादा खाल लगता है।

आर्थिक दृष्टि से पर्णपाती वन बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि बड़ी
संख्या में व्यावसायिक महत्व की लकड़ियों के पेड़ मिलते हैं और घने समूह में मिलने के कारण उनका दोहन भी आसान। इन जंगलों में मिलने वाले उपयोगी पेड़ इस प्रकार हैं।

(1) साल, जिस्की लकड़ी काफी सख्त और भारी होती है और इसमे नहीं लगता है। यह ज्यादातर उत्तर, मध्य और उत्तर-पूर्वी भारत में (बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा, असम) पाया जाता है। यह विशुद्ध मोटे तने के रूप में मिलता है। इसकी लकड़ी रेल-कोच और मकान बनाने में उपयोगी होती है,

(2) सागौन की लकड़ी हल्की, कठोर और लंबे समय तक चलने वाली होती है, जो जहाज निर्माण, भवन निर्माण और पुर्नीचर के लिए बहुत उपयोगी है। पकाया हुआ सागौन दीमक के प्रभाव से मुक्त होता है। साथ ही, यह लोहे की कील में भी जंग नहीं लगने देता है। यह मालावार, असम, उड़ीसा, बिहार, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के जंगलों में पाया जाता है।

(3) चंदन की लकड़ी से हस्तशिल्प, चंदन का तेल बनाया जाता है और सुगंध के निर्माण में भी इसका उपयोग होता है। यह मुख्यत: कर्नाटक में मिलती है।
(4) सेमल के पेड़ असम, बिहार और उड़ीसा में मिलते हैं। इसकी लकड़ी नरम और सफेद होती है जिसमें पैकिंग के डिब्बे, माचिस की डिबिया तथा खिलौने बनाए जाते हैं,
(5) हरों से सुती कपड़ा, लकड़ी और रेशम की रंगाई की जाती है। चमड़े के परिस्करण में भी इसका उपयोग होता है। (6) महुआ के फूलों का उपयोग खाने और शराब के आसवन में होता है (7) खैर को पान के पत्तों के साथ चबाया जाता है।

पर्णपाती वनों की विशेषतायें

(1) इन वनों में पेड़ों की लंबाई कम होती है।
(2) विभिन्न क्षेत्रों में पाए जानेवाले पर्णपाती वनों में समानता पायी जाती है।
(3) इस वन से व्यावसायिक लकड़ियां निकाली जाती हैं।
(4) आर्थिक दृष्टि से ये भारत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वन हैं।
(5) इससे पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल तथा चारागाह उपलब्ध होते हैं।
(6) इन्हें हमेशा पुनः स्थापित करने की जरूरत पड़ती है।

पर्वतीय वन
भारत में पर्वतीय प्रदेशों में 6 किमी. की ऊंचाई पर उष्णकटिबंधीय और टुंड्रा प्रदेश है, जिनमें प्राकृतिक वनस्पतियों की श्रृंखला पाई जाती है। लेकिन, इन प्रदेशों में भी धूप वाले क्षेत्रों और बिना धूप वाले क्षेत्रों की वनस्पतियों में भिन्नता होती है। पर्वतीय प्रदेश की वनस्पतियों को दो वर्गों
में बांटा जा सकता है;

(1) दक्षिणी पर्वतीय वनः दक्षिण में नीलगिरि और पालनी की पहाड़ियों में 1070-1525 मी. की ऊंचाई पर आर्द्र वन पाये जाते है। इससे कम ऊंचाई पर बौने प्रकार के जंगल और इससे अधिक ऊंचाई पर मिश्रित प्रकार के वन पाए जाते हैं। सह्याद्रि, सतपुड़ा और मैकाल की पहाड़ियों पर भी इसी तरह के वन पाए जाते हैं। नीलगिरि, अनामलिस तथा मालमिस
की पहाड़ियों पर 1500 मी. की ऊंचाई पर पश्चिमी मिश्रित वन पाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय लोग शोला कहते हैं। नीचे की ओर घनी सवाना घास और कहीं-कहीं दलदल पाये जाते हैं। शोला वन घने होते हैं, लेकिन कद में छोटे होते हैं, जिनमें अनेक प्रकार के अधिपादप काई तथा फर्न पाए जाते हैं। मंगोलिया, जयपत, हिमरोर्ड, रोईड्रान आदि इस वन की सामान्य प्रजातियां हैं। युकेलिप्टस, सिनकोना और गलचर्म इन वनों में बाहर से लगाए गया है।

हिमालय में 1000-2000 मी. की ऊँचाई पर आर्द्र पर्वतीय वन पाया जाता है। बांज और चेष्टनट के सदाबहार वन कुछ अंगु और बीच के पेड़ों के साथ बहुतायत रूप से मिलते हैं। इन जंगलों में अधिपादप और लतायें भी खुब मिलती है। उत्तर पूर्वी पहाड़ियों पर इतनी ही ऊंचाई पर. जहां भरी वर्षा होती है, उप-उष्णकटिबंधीय देवदार के जंगल पाए जाते हैं, जिनमें चीर का पेड़ सबसे ज्यादा होता है।

चीर का उपयोग रेसिन और तारपीन तेल के निष्कर्षण में उपयोगी होता है। साथ ही, यह भवन निर्माण, रेल के डिब्बे और फर्नीचर बनाने के काम भी आता है। इससे भी अधिक ऊंचाई पर 1600 मी. से 3300 मी. की ऊंचाई पर शंकुधारी जंगल मिलते हैं, जिन्हें आर्द्र मिश्रित वन भी कहा जाता है। देवदार, सिस्वरकिर, हरसिंगार के पेड़ इन वनों के महत्वपूर्ण पेड़ हैं, जिसमें बाज, जयपत्र और बांस के पेड़ भी मिलते हैं।


हिमालय के अंदरूनी क्षेत्रों में जहां जलवायु शुष्क है और वर्षा 100 सेमी. से अधिक नहीं होती है, वहां इन पेड़ों के साथ देवदार तथा चिलजोगे के पेड़ भी बहुतायत में मिलते हैं। 2881-8640 मी. की ऊंचाई पर हिमालय झाड़ीदार वनों से ढका है जो अल्पाईन वन कहलाते हैं। इनमें सिल्वर किर, देवदार, है बेड़ा, भूर्ज के पेड़ पाये जाते हैं। अल्पाइन वन में कंटीली झाड़ियों के बीच अल्पाइन घास भी मिलती है, जो हिमालय के उत्तरी और दक्षिणी ढलान पर पाई जाती है। झाड़ और कांटे वाले वन ये उन क्षेत्रों में होते हैं, जहां वर्षा 100 सेमी. से भी कम होती है।

जो पेड़ों के विकास के लिए पर्याप्त नहीं है। ऐसे जंगल भारत उत्तर-पश्चिमी भागों में दक्षिण में सौराष्ट्र से उत्तर में पंजाब तक फल हुए हैं। पूर्व में उत्तरी मध्य प्रदेश (मुख्यत: मालवा पठार में) और दक्षिण पश्चिम उ.प्र. में बुंदेलखंड तक फैला हुआ है। खैर, कीकर, बबूल, खजूर इन जंगलों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं। ये पेड़ छोटे कद के होते हैं। और दूरी-दूरी पर बिखरे होते हैं। धीरे-धीरे ये पेड़ समाप्त हो जात है। और झाड़ ओश्र कंटीली झाड़ियां इनका स्थान के लेती है।

मरूस्थलीय और आर्द्धमरूस्थलीय वनस्पति

ये उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहां औसत वार्षिक तापमान 25-29°C होता है और वर्षा 25 सेमी. से कम होती है। ऐसी वनस्पतियों में कंटीली झाड़ियां, जंगली बेर, बबूल, कीकर आदि के पेड़़ आते हैं । इन पेड़ो की ऊंचाई ज्यादा से ज्यादा 6 से 10 मी. तक होती है लेकिन इनकी जड़े लंबी होती है। कंटीली होने के कारण जानवरों से इनकी सुरक्षा होती है। ये
राजस्थान, गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र में, दक्षिण पश्चिमी पंजाब तथा डक्कन के पठार में पाए जाते हैं ।

ज्वारीय (कच्छ प्रदेश) वन

ये समुद्र और नदियों के तटवती प्रदेश में पाये जाते हैं। ये खारे और ताजे दोनों प्रकार के जल में जीवित रह सकते हैं। इनमें से कुछ जंगल धने और अगणनीय होते हैं। इन जंगलो की पेड़ों के कई जड़ें होती है जो ऊंचे ज्वार-भाटाओं के दिनों में नहीं दिखखती हैं, लोटी ज्वार भाटाओं के दिनों में ये दिखती हैं। दलदली प्रदेश में अनुकूलन का यह एक अदभूत उदाहरण है। ज्वारीय वन पूर्वी तट के डेल्टा प्रदेश में बहुतायत में पाए
जाते है। पूर्वी तट के डेल्टाओं में महानदी, गंगा गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के साथ-साथ अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों के तटीय प्रदेश इसमें आते हैं। ये पश्चिमी तट के कुछ स्थानों पर भी पाए जाते हैं। बंगाल में इन्हें सुंदरवन कहा जाता है ये जंगल ईधन के लिए एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं।

भारत में वनों की स्थिति पर रिपोर्ट

भारत उन देशों में से है जहां 1894 से ही वन नीति अपनाई गई। उस समय भारत पर ब्रिटिश शासन था। 1894 की वन नीति के अनुसार वनों की देख-रेख एवं विकास के लिए प्रत्येक प्रान्त में वन विभाग की स्थापना की गई। स्वतंत्रता के बाद 1950 में एक केन्द्रीय वन बोर्ड की स्थापना की गई। इस बोर्ड की सिफारिशों के आधार पर ही 1954 में एक नई वन नीति की रूपरेखा तैयार की गई। इस वननीति में निम्नलिखित मुख्य बातें थी-

(1) वनों के अन्तर्गत क्षेत्रफल को बढ़ाकर कम से कम 33 प्रतिशत का लक्ष्य प्राप्त करना।
(2) वन-रोपण का कार्य अनवरत् चालू रखना।
(3) वन अनुसंधान को बढ़ावा दना
(4) बनों की सुरक्षा एवं संरक्षण का प्रयास करना।

1988 की वन्य नीति

1988 में पुन: एक नयी वन नीति लाई गई क्योंकि 1894 के 33 प्रतिशत क्षेत्रफल में बनों के फैलाव का लक्ष्य पूरा नहीं हो गया। 1988 का नयी वननीति के मुख्य लक्ष्य निम्नलिखित हैं-

(1) पर्यावरण संतुलन और पुनर्स्थापना पर जोर।
( 2) प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम संरक्षण
(3) नदियों एवं जलाशयों के जल ग्रहण क्षेत्र में वनों के विनाश पर नियंत्रण स्थापित करना।
(4) राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों तथा तटवर्ती क्षेत्रों में रेत के विस्तार पर नियंत्रण।
(5) वृक्षों के आच्छादन में बढ़ोतरी के लिए वृक्षारोपण एवं सामाजिक वानिकी कार्यक्रमों को बढ़ावा देना
(6) ग्रामीण एवं आदिवासी जनसंख्या के लिए ईधन की लकड़ी, चारा तथा अन्य वन्य उपजो की उपलब्धता के लिए सुनिश्चित प्रयास एवं कदम उठाना।
(7) राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वन उत्पादों में वृद्धि करना।
(8) वन उत्पादों के उचित उपयोग को प्रोत्साहित करना तथा लकड़ी के लिए अनुकूलतम विकल्प योजना तैयार करना ।

वन्य जीव संरक्षण अधिनियम

भारत सरकार ने 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित किया जिसका उद्देश्य वन्य प्राणियों की सुरक्षा एवं देखभाल हेतु राष्ट्रीयपार्कों क एवं अभ्यारण्यों की स्थापना करना था। इसमें राज्यों के लिए वन्यजीवन प्रबंध के ढाँचे और वन्यजीवन प्रबंध हतु पदा की व्यवस्था करना तथा सलाहाकार बोर्ड की स्थापना करने आदि का प्रावधान है।
इसमें प्राणियों को विनाश के खतरे की गंभीरता के अनुसार अधिसूचित किया गया है, एक से चार अनुसूची में दर्ज सभी पशुओं के शिकार पर प्रतिबंध है, अनुसूची छह में दर्ज पौधों का संरक्षण आवश्यक बताया गया है ।

उपरोक्त अधिनियम का वर्ष 2002 में किया गया संशोधन और भी सख्त है और यह स्थानीय जनता द्वारा संसाधनों के व्यवसायिक उपयोग पर रोक लगाता है। परितंत्रों का संरक्षण सुनिश्चित करने हेतु वनों के उत्पादों की पुर्नपरिभाषा दी गई हैं। सामुदायिक रिजर्व क्षेत्र की स्थापना जैसी नई धारणाएँ सामने रखी गई हैं।

इस अधिनियम के द्वारा वन्य जीवों के संरक्षण को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रखा गया । अधिनियम का उद्देश्य तेजी से लुप्त हो रहे वन्य जीवों के संरक्षण तथा प्रबंधन को सुनिश्चित करना था इसमें वन्य जीवों के शिकार तथा उनसे निर्मित वस्तुओं के व्यापार को निषिद्ध करने के प्रावधान किए गए।

भारत सरकार ने 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित किया जिसका 1988 में संशोधन किया गया इससे पहले तक देश में 1927 का भारतीय वन अधिनियम लागू था। वन संरक्षण अधिनियम ने सरकार और वन विभाग को आरक्षित वन बनाने और इनका प्रयोग केवल सरकारी कामों के लिए करने का अधिकार दिया। संरक्षित वन भी बनाए गए जिसमें जनता द्वारा संसाधनों के उपयोग पर नियंत्रण लगाए गए।


भारत की पहली वननीति 1952 में बनाई गई थी। तब से लेकर 1988 के संशोधन तक वनों का इतना विनाश हुआ था कि वनों आर उनके उपयोग पर एक नई नीति बनाना आवश्यक हो गया था पहले का वन नीतियाँ का उद्देश्य केवल राजस्व संग्रह हुआ करता था पर बाद में यह स्पष्ट हो गया कि वनों का संरक्षण अनेक अन्य कार्यो के लिए भी आवश्यक है, जैसे मृदा और जल का संरक्षण, जैवविविधता का संरक्षण आदि।

नए नीतिगत ढाँचे ने अन्य कार्यों के लिए वनों के उपयोग की संभावना काफी कम कर दी है, इसमें एक प्राकृतिक धरोहर के रूप में वनों के संरक्षण को भी चारे और अन्य कार्य
उत्पादों के बारे में स्थानीय जनता की आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखा गया है।

पर्यावरणीय( संरक्षण ) अधिनियम

जून, 1972 में स्टाकहोम संयुक्त राष्ट्र मानव पर्यावरण सम्मेलन द्वारा जारी चोषणा को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 1986 का पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम नाया जो एक महत्वपूर्ण संबैधानिक दस्तावेज है।

देश में मौजूद कानून विशेषज्ञ प्रकार के प्रदूषणों या विशेष श्रेणियों के घातक पदार्थों पर केंद्रित थे। पर्यावरण से उनका अप्रत्यक्ष संबंध सिर्फ उन कानूनों के माध्यम से था जो भूमि उपयोग को नियंत्रित करते थे या राष्ट्रीय पाराष्ट्रीयपार्कों कों, अभ्यारण्यों और वन्यजीवन को सुरक्षा देते थे। पर्यावरण
संबंधी भावी खतरों को रोकने हेतु .आवश्यकता ऐसे प्राधिकरण की थी जो पर्यावरण सुरक्षा की दीर्घकालिक आवश्यकताओं का अध्ययन, नियोजन और क्रियान्वयन करे तथा पर्यावरण संबंधी आकस्मिक खतरों से निपटने की व्यवस्था करे। इन सब बातों को ध्यान में रखकर पर्यावरण
(संरक्षण) अधिनियम बनाया गया। इसे पारित करने का मुख्य उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों को भारत में विधि बनाकर लागू करना है।
मुख्य बाते:-
(i) प्रदूषण प्रावधानों को मात्र जल व वायु तक सीमित न कर इनका विस्तार किया गया है।
(i) खतरनाक प्रदूषण को रोकने के लिए अधिनियम के उपबंधों का उल्लंघन करने वालों के सख्त दण्ड के प्रावधान किए गए है।
(iii) खतरनाक फैक्ट्रियों, परिसंकटमय पदार्थों तथा पर्यावरणीय आपदाओं को स्पष्तः परिभाषित किया गया है।

पर्यावरणीय कानूनों को लागू करने के मुद्दें

पर्यावरण संरक्षण हेतु बनाए गए विभिन्न कानूनों को लागू करने में अनेक प्रकार की समस्याएँ सामने आती हैं। जैसे-
1. अशिक्षा व विधिक साक्षरता के अभाव में जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग नही जानता है कि पर्यावरण के तत्वों जैसे- जल, वायु, मृदा, वन, आदि की गुणवत्ता में ह्यस करने पर कोई कानून भी लागू होता है।

2. छोटे उद्योग चलाने वाले या छोटी खदानों के मालिकों का आर्थिकपक्ष इतना सुदृढ़ नहीं होता कि अपशिष्टों का सुरक्षित निस्तारण कर सकें या ट्रीटमेंट प्लांट लगा सके।
3. खनन, उद्योग, लकड़ी कटाई आदि व्यववायों में बहुत बड़ी संख्या में लोग जीवनयापन करते हैं। ऐसे में पर्यावरण के हित में इन्हें रोकना एवं अन्य कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर पाना बेरोजगारी गरीबी आदि समस्याओं के चलते संभव नहीं हो पाता है।
4. वन्य जीवों व लकड़ी के तस्करों के अन्तर्राज्यीय गिरोहों को पकड़ने के मार्ग में विभिन्न राज्यों की सीमाएं, अलग-अलम काूनन, परस्पर तालमेल का अभाव, सीमित संसाधन आदि वाधाओं के कारण सफलता नहीं मिल पाती है।
5. विभिन्न कानूनी प्रावधानों व खामिया का लाभ उठाकर अनेक बार उद्योगपति पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करके भी बच निकलते हैं। कानूनी कार्यवाही को लंबित करने मे सफल ही जाते हैं।

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