भारत की मृदाएं (Soil)

भारत की मृदाएं (Soil)

भारत की भूवैज्ञानिक संरचना, धरातलीय उच्चावचन, जलवायु तथा प्राकृतिक वनस्पति की विभिन्नता के कारण विभिन्न भौगोलिक प्रदेशों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदाएं मिलती हैं। मृदा परिच्छेदिका के संस्तरों के विकास तथा इनके जलवायुविक दशाओं से अंतर्सम्बंध के आधार पर निम्नलिखित 8 प्रकार की मृदाएं भारत में पायी जाती हैं:

1. जलोढ़ मृदाएं (Alluvial Soil) – जलोढ़ मृदा का विस्तार क्षेत्र में 7.7 लाख वर्ग किमी. है जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 24 % है। इसमें गंगा, सतलज व ब्रह्मपुत्र के मैदान के अतिरिक्त महानदी. गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के डेल्टाई भाग व तटवर्ती क्षेत्रों की मुदाएं सम्मिलित हैं। ये देश की सर्वाधिक उपजाऊ मृदा है। इसका निर्माण नदियों द्वारा लाये गये तलछट जमावों से हुआ है। अतः ये अकटिबंधीय (Azonal) मृदा है। इसका मुख विस्तार उत्तर भारत के विशाल मैदान में है जहाँ प्रतिवर्ष नदियाँ बडी मत्रा में अवसाद लाकर जमा करती हैं। राज्यों के अनुसार विस्तार की दृष्टि से ये मृदा राजस्थान, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम में मिलती हैं।

जलोढ़ मृदाओं का रंग सामान्यतया धूसर हल्का भूरा या पीलापन लिए होता है। संगठन की दृष्टि से ये शेल, दोमट व सिल्टी से मृत्तिका युक्त होती है। जो स्थानीय भिन्नता रखती है । मृदा परिच्छेदिका के विकास में क्षेत्रीय अन्तर मिलता है। लेकिन पूर्णतया विकसित परिच्छेदिका कहीं भी नहीं मिलती हैं। खनिज पदार्थ एक जगह संकेद्रित न होकर मिश्रित रूप में मिलते हैं। यह मृदा पादपों के विकास के लिए पर्याप्त पोषक तत्वों वाली होती है तथा इनमें फास्फोरस, चूना, पोटाश पर्याप्त होता है। जबकि नाइट्रोजन की कमी होती है। काफी गहराई वाली (अधिकतम 6000 मीटर तक) यह मृदा अपनी उर्वरा शक्ति के लिए विश्व प्रसिद्ध है जहाँ खाद्यान्न, दलहन, तिलहन व रेशेदार फसलें पैदा की जाती है इस मृदा को भी तराई, बांगर एवं खादर आदि तीन वर्गो में विभाजित किया जाता है।

2. काली मृदाएं (Black Soil) – यह मृदा भारत में लगभग लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है जो मुख्यतः महाराष्ट्र, दक्षिणी एवं पूर्वी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक, उत्तरी आन्ध्र प्रदेश, उत्तर-पश्चिमी तमिलनाडु व दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में पायी जाती है। इस मृदा का निर्माण ज्वालामुखी लावा से हुआ है जिसमें लौह अंश और जीवांश की अधिकता के कारण इसका रंग काला है। इसे रेगुर मृदा भी कहते हैं। रेगुर शब्द तेलगु भाषा के रेंगदा से बना है जिसका तेलगू अर्थ है – काली कपास मृदा भुजल पड़ते ही चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर कड़ी हो जाती है जिससे इसमें दरारें पड़ जाती है । इस मृदा में नमी संचय की अधिक क्षमता होती है, फलस्वरूप लम्बे समय तक बिना सिंचाई के भी कृषि की जा सकती है। इसमें लोहा, चूना, पोटाश, मैग्नीशिया और अल्यूमिना पर्याप्त होता है जबकि फास्फोरस व नाइट्रोजन व जैव पदार्थों की कमी होती है। जीवांश इस मृदा के संगठन में पर्याप्त मिलता है, जो वनस्पति एवं जीव जगत के सड़े गले अंशों का संचय होता है जबकि जैविक पदार्थ मृदा निर्माण के बाद वनस्पति का अंश होता है जो मृदा को उर्वरता प्रदान करता है। यह मृदा काफी उर्वर होती है तथा साथ ही कपास की कृषि के लिए उपयुक्त होती है। कपास के अतिरिक्त काली मृदा मूंगफली, तम्बाकू, गन्ना, दलहन व तिलहन की कृषि के लिए भी अनुकूल है। जलधारण क्षमता अधिक होने के कारण इनमें शुष्क कृषि भी संभव है।

यह मृदा एक अंतर्कटिबंधीय मृदा है। इसकी प्रचुरता के आधार पर वर्तमान में इसे मृदा वैज्ञानिक अंतर्कटिबंधीय भी मानने लगे हैं क्योंकि इसमें आदर्श पार्श्व चित्र मिलता है। इस मृदा में प्रादेशिक भिन्नता मिलती है। महाराष्ट्र में हल्के रंग की व पतली तथा दालों पर कमजोर जबकि धाटियों में गहरी व काली मिलती है। पश्चिमी धाट के सहारे मृदा काफी मोटे संगठन वाली एवं मिलती है। मध्य प्रदेश में नर्मदा घाटी में गहरी काली मुदा बजरी तथा अन्य क्षेत्रों में उथली मृदा मिलती है कपास उत्पादक संपूर्ण क्षेत्र में गहरी काली मृदा मिलती है। कर्नाटक की काली मृदा सुक्ष्म गठन वाली है.


3. लाल मृदा (Red Soil) – लाल मृदाएं तमिलनाडू, कर्नाटक, गोवा दमन एवं दीव, दक्षिणी पूर्वी महाराष्ट्र तथा पूर्वी आन्धर प्रदेश, मध्य प्रदेश छतीसगढ़, उड़ीसा और झारखण्ड (छोटा नागपुर) में पायी जाती है। ये लगभग 5.18 लाख वर्ग किमी. में फैली है इसके अतिरिक्त पूर्वी राजस्थान, विहार के संथाल परगना पश्चिमी बंगाल के वीर मुमि व उत्तर प्रदेश के झांसी, ललितपुर, मि्जापुर व बांदा जिलों में मिलती हैं। पूर्वाचल में गारो, खासी एवं अन्य जातियाँ पहाड़ियों पर भी काफी गहराई तक स्थित प्रवाह वाली ये मृदा निचले भाग पर मृत्तिका युक्त होती है तथा ग्रेनाइट, नीस एवं शैलों के विखण्डन से स्व स्थान विकसित हुई हैं। आकारिकी दृष्टि से लाल मृदाओं को दो दर्गां, लाल लोमी एवं लाल मृदा के रूप में विभाजित किया जाता है। लाल लोमी मृदाएं मृत्तिका युक्त जलवृत ढेलानुमा संरचना वाली होती है जबकि ऊपरी मृदा असंगठित एवं भूरी होती है। इस मृदा का रंग लाल से पीला होता है। लोहे का अंश अधिक होने के कारण ही इसका रंग लाल होता है मृदा कण फेरिक ऑक्साइड से कोटेड होते हैं अतः जब यह हेमेटाइट के रूप में प्रकट होता है तो लाल रंग का होता है लेकिन जब यह लिमोनाइट जलयोजित रूप में (लिमोनाइट) होता है तो रंग पीला होता है। इस मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा जीवांश की गठन वाली अम्लीय तथा कम जीवांश वाली है जबकि छोटा नागपुर प्रदेश की मृदाएं अम्लीय होती है। इन मृदाओं में मोटे अनाज, दलहन एवं तिलहन की कृषि की जाती है। लेकिन विगत दशकों में तमिलनाडु एवं कर्नाटक में इस मृदा में रबड़ एवं कहवा के बागान लगाये गये हैं।


4. लेटेराइट मृदा (Laterite Soil) – लेटेराइट लैटिन भाषा के लेटर (Later) से बना है जिसका अर्थ है ईंट। यह मृदा देखने में इंट की तरह लगती है, जिसमें चूना, फास्फोरस, पोटाश एवं नाइट्रोजन की कमी पायी जाती है। यह देश के लगभग 1.26 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर मौजूद है। इसका वितरण पश्चिमी घाट तथा इलाइची की पहाड़ियों तथा पूर्वी घाट व छोटा नागपुर पठार के पूर्व में छोटे क्षेत्रों के रूप में भिलता है। तमिलनाडु., हजारीबाग, असम एवं काठियावाड़ में भी कहीं कहीं यह मृदा मिलती है। यह संरधी मृत्तिका युक्त होती है। जिसमें लोहा एवं एल्यूमिनियम के हाइड्रोक्साइड मिलते हैं तथा ये तत्व निचले संस्तरों में जमा हो जाते हैं, इस क्रिया या को निक्षालन कहते हैं जिसके उपरांत लोहा एवं एलूमिनियम ही शेष बचते हैं।

अनेक बार एलूमिनियम इतनी अधिक मात्रा में बच जाता है कि इसे बाक्साइट के अयस्क के रूप में प्रयोग में लेते हैं । लेटेराइट मृदा को अनेक स्थानों पर नदियों द्वारा अपरवित कर दिया गया है, इस प्रकार ऊपरी भागों पर स्थित मृदाओं को निम्न स्तरीय लेटेराइट कहते हैं। उच्च क्षेत्रों में यह अधिक अम्लीय तथा कमजोर होती है जबकि मैदानी भागों में नमी युक्त व गहरी दोमट रूप में विलती है। यहाँ 200 सेमी से अधिक वर्षा होती है । चूने की कमी के कारण ही यह अम्लीय होती है। यह लाल से कम उर्वर होती है, इसें अनाज, दलहन एवं तिलहन की कृषि होती है।जबकि अम्लीय गृदाओं में चाय की खेती होती है। कर्नाटक, केरल गोवा में इस मृदा में रबड़ के बागान लगाये गये हैं। लेटेराइट मुदा घास-झाड़ियाँ भी विकसित होती हैं।

5. पर्वतीय मृदा (Mountainous Soil)- पर्वतीय ढालों पर विकसित होने वाली इस गृदा को वनीय मृदा भी कहते हैं। इसका विस्तार लगभग 2.80 लाख किमी, में पाया जाता है। यह एक परत के रूप में मिलती है जो कम गहरी, पश्चरीली व कम उपजाऊ होती है। बीच बीच में घाटियों में यह कुछ गहरी तथा महीन कर्णो युक्त मिलती है जो अपेक्षाकृत उर्वर भी होती है। इस मृदा में जीवांश की अधिकता होती है। जिसके कारण हयूमिक अम्ल का निर्माण होता है व मृदा अम्लीय बन जाती है। पर्वतीय मृदा मुख्यतः हिमालय क्षेत्र, उत्तरी पूर्वी भारत के पहाड़ी क्षेत्रों, पश्चिमी एवं पूरवी घाट व प्रायद्वीपीय भारत में नीलगिरी, सतपड़ा, इलाइची की पहाड़ियों में पायी जाती है उत्तर भारत एवं दक्षिणी भारत के पर्वतीय भागों में पायी जाने वाली पर्वतीय मृद्रा में भी भिन्नता पायी जाती है जिसका प्रमुख कारण जलवायु वनस्पति एवं स्थलाकृति अंतर है। बनस्पति की अधिकता के कारण जैविक पदार्थ तो पर्याप्त मिल जाता है लेकिन अपचटित नहीं हो पाता है।

इस प्रकार देश में दो प्रकार की पर्वतीय मृदाएं मिलती हैं, प्रथम भूरी वन मृदा तथा दूसरी पोडजोलिक मृदा होती है । भूरी वन मृदा वन क्षेत्रों में सैंडस्टोन, चूना पत्थर पर उपार्द्र जलवायु दशाओं में बनती है, जहाँ पाइन व मिश्रित दनस्पति मिलती है। यह मृदा पोडजोल मृदा के साथ मिलती है इसका ph मान 6 से 7 होता है। मध्य से उच्च जीवांश मिलता है। पर्वतीय डालों पर स्थित होने के कारण इसमें बागानी फसलों की कृषि की जाती है। जिनमें चाय,कहवा, मसाले एंव फलों की कृषि महत्वपूर्ण है। पहाड़ी भागों की जनजातियाँ झूम कृषि करती है। जिसमें वनों की कटाई बड़े पैमाने पर हुई है।

6. मरुस्थलीय मृदा(sandy soil) – देश के लगभग 1.42 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल पर मरुस्थलीय मृदा फैली है जिसका विस्तार पश्चिमी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, दक्षिणी हरियाणा तथा उत्तरी गुजरात में है। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया के बढ़ने से हाल ही में इस मृदा क्षेत्र का विस्तार दक्षिणी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुआ। यह मुख्यतः बलुई मृदा है, जिसमें लोही एवं फास्फोरस तो पर्याप्त होता है लेकिन नाइट्रोजन एवं जीवांश की कमी होती है। मरुस्थली मृदा में मुख्यतः मोटे अनाजों की कृषि होती है लोकिन सिंचाई सुविधाओं वाले क्षेत्रों में कपास तथा गेहू की कृषि भी हो रही हैं। गंगानगर में गन्ना एवं चावल की खेती भी की जा रही है जहाँ की मृदा पूर्णतया बलुई न होकर भूरी रेतीली कछारी मृदा है।

7. लवणीय एवं क्षारीय मृदाएं(saine & Alkline soil) – ये मृदाएं देश के शुष्क एवं अर्ध शुष्क में पायी जाती हैं। यह अंतर्कटिबंधीय मृदा है जिसका विस्तार राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा गुजरात के लगभग एक लाख वर्ग किसी क्षेत्र में है । इनके अतिरिक्त केरल तट व सुन्दर वन तथा गंगा के आगें किनारे पर भी है। इनमें 50 % गंगा सिंधु के मैदान में, 30 % काला कपास मृदा क्षेत्र में, 20 % तटीय क्षेत्रों में है। इन मदृओं का विकास पर्याप्त जल निकास के अभाव वाले क्षेत्रों में हुआ है जहाँ केशीय क्रिया द्वारा सोडियम, कैल्शियम एवं मैग्नेशियम के लवण मृदा की ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं जाती है। सागर तटीय क्षेत्रों में ज्वारीय क्रिया के दौरान सागरीय खारा जल स्थलीय भाग पर फैलकर लवणता में वृद्धि करता है। इन मृदाओं में नाइट्रोजन की कमी होती है। ये मृदाएं एक प्रकार की अनुर्वर मृदाएं होती हैं जिनमें तटीय क्षेत्रों में नारियल एवं तेल ताड़ की कृषि की जाती हैं, इसे रेह, ऊसर या कल्लर भी कहा जाता है। इसमें हरी खाद व जिप्सम का प्रयोग करके तथा जल निकासी की व्यवस्था करके कृषि योग्य बनाया जाता है।

8. पीट या जैविक मूदाएं(peat or fossil soil) – ये मृदाएं उष्ण आर्द्र दशाओं वाले दलदली परिवेश में जैविक पदार्थों के बड़ी मात्रा में जमाव के कारण विकसित होती हैं। भारत में ऐसा परिवेश केरल, उत्तरी बिहार, उड़ीसा, तमिलनाडु व पश्चिम बंगाल के तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता है। यहां लगभग एक लाख वर्ग किमी. क्षेत्र पर पीट मृदा का विस्तार है। ये मृदा काली, भारी तथा अम्लीय होती है। केरल में ऐसी मृदा में नमक के अंश पाये जाते हैं, जिसे कारी कहते हैं। इस मुदा में जल की मात्रा कम होने पर चावल एवं गन्ने की कृषि की जाती है, तराई प्रदेश में गन्ने की कृषि करते हैं। इसमें फास्फेट व पोटाश की कमी तथा जीवांश की अधिकता 20 से 40 % तक हो जाती है, मृदा गठन सूक्ष्म होता है। ज्वारीय दलदली जिससे मृदा लवणीय बनने में एलूमिनियम तथा लौह आक्साइड का सामान्य जमाव मिलता है। जब जल निकास हो जाता है तो अम्लता बढ़ जाती है, जिसका pH मान 3.5 से 4 तक आ जाता है।

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