जयंत विष्णु नार्लीकर : बिग बैंग थ्योरी को चुनौती देने वाले वैज्ञानिक
जयंत विष्णु नार्लीकर : बिग बैंग थ्योरी को चुनौती देने वाले वैज्ञानिक
विश्व प्रसिद्ध खगोल भौतिकविद, वैज्ञानिक, गणितज्ञ औरशविज्ञान-लेखक, जयंत विष्णु नार्लीकर, अब हमारे बीच नहीं हैं। वो एक ऐसे भारतीय वैज्ञानिक थे, जिस पर हर एक भारतीय को हमेशा ही गर्व रहेगा। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में दुनिया भर में मान्यता प्राप्त सुप्रसिद्ध सिद्धांत, बिग बैंग थ्योरी को नकारने का उन्होंने न केवल साहस किया, बल्कि एक बिलकुल नई अवधारणा, स्थिर अवस्था सिद्धांत, को साबित करने के लक्ष्य पर एकाग्र रहे। फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर उन्होंने जो सिद्धांत प्रतिपादित किया, वह “हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत के रूप में विश्वविख्यात है।
अंग्रेज़ी, मराठी व हिंदी भाषाओं में विपुल विज्ञान-लेखन कर भारत में वैज्ञानिक सोच की ऊर्वर ज़मीन तैयार करने वालों में वो हमेशा अग्र गण्य रहेंगे। वैज्ञानिक बिरादरी में अंतरराष्ट्रीयस्तर पर सम्मानित-पुरस्कृत जयंतजी को भारत के सर्वोच्च पद्मसम्मानों से विभूषित किया गया और साथ ही वे पहले भारतीय वैज्ञानिक बने जिनकी आत्मकथा के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ से भी नवाज़ा गया।
24 वर्ष की आयु में बन गए गणित विभाग के अध्यक्ष
कोल्हापुर में19 जुलाई, 1938 को एक दंपती अपनी पहली संतान के रूप में पुत्र-जन्म की ख़ुशी मना रहा था। उन्होंने अपने बेटे का नाम रखा, जयंत। प्रकांड विद्वान पारिवारिक पृष्ठभूमि से संबंधित यह दंपती स्वयं उच्च शिक्षित और विद्वता की मिसाल था। विष्णु वासुदेव नार्लीकर ने मैट्रिक की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया था। छात्रवृति की बदौलत उन्होंने मुंबई के एलिफिस्टन कॉलेज और रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में पढ़ाई जारी रखी थी। मुंबई विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद जे एन टाटा इंडॉवमेंट स्कॉलरशिप और कोल्हापुर रियासत के ऋणानुबंध के सहारे उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में सन् 1930 में मैथमेटिकल ट्राइपोस (गणित में परास्नातक) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1932 में वे भारत वापस आ गए। अनुबंधके मुताबिक़ उन्हें कोल्हापुर में अध्यापन करना था। लेकिन महामना पंडित मदन मोहन मालवीय कोल्हापुर रियासत द्वारा दी गई ऋण राशि चुकाकर विष्णु वासुदेव नार्लीकर को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) ले आए और गणित विभाग केअध्यक्ष पद पर सुशोभित कर दिया। तब अविवाहित इस युवक की उम्र मात्र 24 वर्ष थी। इस उदाहरण से महामना की पारखी टृष्टि और बीएचयू की अकादमिक श्रेष्ठता के लिए उनके जुनून की सराहना किए बिना नहीं रहा जा सकता। इस तरह बीएचयू परिसर अगले कुछ दशकों तक विष्णु वासुदेव नार्लीकर का घर हो गया। सन् 1937 में कोल्हापुर की सुमति हुजूखाजार से उनका विवाह हुआ जो संस्कृत में परास्नातक व विदुषी थीं।
बीएचयू परिसर में बीता बचपन
बीएचयू के विस्तृत और हरे-भरे सुंदर परिसर में स्थित एक
बहुत बड़े भवन में जयंत और अनंत दोनों भाइयों की बाल्यावस्था और किशोरावस्था गुज़री। इस घर में कई बड़े कमरे तो थे ही,चारों ओर स्थित लॉन इतना बड़ा था कि उसमें एक बैडमिंटन कोर्ट बनवाए जाने के बाद भी काफ़ी बड़ा स्थान बचा रह जाता था जो अन्य खेल खेलने के काम आता था, खासकर क्रिकेट यहां खेलने के लिए केवल अड़ोसी-पड़ोसी ही नहीं, बनारस शहर से भी खेल प्रेमी अभ्यास करने आया करते थे, विशेष कर बैडमिंटन का अभ्यास करने। क्योंकि तब बीएचयू परिसर में तो क्या, शहर में भी यही एकमात्र बैडमिंटन कोर्ट था। जयंत और अनंत दूसरों को खेलते देखने का भी आनंद उठाया करते। उन दिनों जब कूलर, एसी आदि यंत्र नहीं हुआ करते थे तब गर्मियों की दोपहरी में खस के मोटे परदों को पानी से गीला कर घर के भीतर ठंडक बहाल कर बच्चे शतरंज जैसे इन-डोर खेल खेलते।
अकादमिक आंगन में पला वैज्ञानिक मन
घर आने-जाने वालों में भी अधिकांशत विश्वविद्यालय के शिक्षक व अतिथिगण ही हुआ करते थे। इस तरह घर का वातावरण मूलत अकादमिक था। माता, सुमति, से भजनव अभंग आदि सुनना और सीखना भी सहज भाव से दिनचर्यामें शामिल था। मां की प्रेरणा और प्रयत्न से गीता के साथ ही
कालिदास, भवभूति आदि संस्कृत महाकवियों के ग्रंथों का पठन-पाठन भी साथ चलता रहता। गणमान्य अतिथियों, जैसे डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित नारायणराव व्यास आदि के समक्ष गीता के श्लोकों की गायन-प्रस्तुतिदेना इन बच्चों के लिए एक यादगार अनुभव होता। डॉ.राधाकृष्णन को तो यह इतना अच्छा लगा था कि वे इसे रिकॉर्ड करके अपने साथ ले गए थे। किसी नए श्लोक को याद करने या क्रिकेट खेलने के दौरान अच्छी गेंदबाज़ी करने पर पिता के हाथों पुरस्कार रूप में चांदी के सिक्कों की प्रप्ति भी होती रहती थी और इस तरह बच्चों के पास अच्छा संग्रह हो चुका था जिन्हें सुरक्षित रखने के लिए वे मां को दे दिया करते थे।
स्कूली शिक्षा बनारस के सेंट्रल हिंदू बॉयज़ स्कूल में
जयंत की स्कूली शिक्षा बनारस के सेंट्रल हिंदू बॉयज़ स्कूल में हुई। वहां पढ़ने वाले अधिकांश विद्यार्थी बीएचयू के प्रोफेसरों के ही बच्चे थे। घर की दीवार पर पिता ने दो श्यामपट्ट लगवा दिए थे,जिन पर दोनों बच्चे चित्र,मानचित्र आदि उकेरा करते और गणित के सवाल हल किया करते थे। ख़ासकर गर्मी की छुट्टियों में पिताअपने बच्चों को चित्रकला, मूर्तिकला आदि कई कलाएं सीखने को प्रोत्साहित करने के उ्देश्य से दृश्य कला विभाग ले जाते,पुस्तकालय से तरह-तरह की किताबें लाकर देते, कई तरह की गणितीय पहेली-खेल की किताबें भी लाते। किराए पर कार लेकर परिवार के साथ 10 मील दूर स्थित सारनाथ की सैर पर जाना दिलचस्प पिकनिक जैसा होता, तो गर्मी की छुट्टियों में बनारस से कोल्हापुर की रेलयात्रा भी रोमांच और मनोरंजन का साधन थी। इस तरह इन बच्चों का सर्वागीण विकास हो रहा था।
जब घर पर पधारे गणितवाले मामाजी!
पठन-पाठन, खेल और रोमांच से भरपूर बचपन में एक अविस्मरणीय अतिथि के रूप में दो वर्षों के लिए घर पर पधारे एक मामाजी, मौरेश्वर हुजूरबाजार। जयंत तब बारह वर्ष के थे जबवसन् 1950 में यह मामाजी बीएचयू में गणित में एमएससी करनेआए थे और इनके घर पर ही रहे थे। आगे चलकर ये मुंबई के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में गणित के प्रोफेसर बने। जयंत जल्द ही मामाजी से काफ़ी घुलमिल गए। गणित में जयंत की रुचिको देखते हुए मामाजी अक्सर एक श्यामपट्ट पर जयंत द्वारा हल करने के लिए गणित का कोई सवाल छोड़ जाते जिसके ऊपर शीर्षक होता, चैलेंज प्रोब्लेम्स फॉर जे वी एन’। जे वी एन यानी जयंत विष्णु नार्लीकर। श्यामपट्ट पर एक सवाल तब तक रहता जब तक जे वी एन उसे हल न कर लें या हार न मान लें।बारह साल के एक बच्चे के लिए ये सवाल बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण हुआ करते थे। जयंत की तर्क बुद्धि और गणितीय क्षमता को परिष्कृत करने में दो वर्षों के इस दौर की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसने गणित विषय के आधारभूत विन्यास और सौंदर्य से परिचित करवाया।
कैंब्रिज के क्षितिज पर चमकता सितारा
कैंब्रिज में जयंत विष्णु नाल्लीकर ने सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान विषय में सर फ्रेड़ हॉयल के मार्गदर्शन में अपना शोधकार्य आरंभ किया। सन् 1963 में जब उन्हें डॉक्टर ऑफ़ फिलॉसोफ़ी की उपाधि मिली, वे कैंब्रिज के किंग्स कॉलेज में पोस्टडॉक्टरल फेलो थे।
इसके अगले ही वर्ष में उन्होंने खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी में अतिरिक्त मास्टर डिग्री हासिल की। सन् 1966 में, हॉयल ने कैंब्रिज में सैद्धांतिक खगोल विज्ञान संस्थान की स्थापना की और नार्लीकर को किंग्स कॉलेज में फेलो रहते हुए ही अपने संस्थान में एक संस्थापक सदस्य बनने का न्योता दिया। नार्लीकर ने इस आमंत्रण को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया।
कुछ प्रश्र अनुत्तरित ही रह गए थे!
ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में अब तक की सर्वाधिक मान्य धारणा यही है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति महाविस्पफोट यानी ‘बिगबैंग से हुई है। लेकिन इस सिद्धांत का अनुसरण करने पर भी कुछ प्रश्र अनुत्तरित रह जाते हैं, जैसे महाविस्फोट से पहले क्या था? यदि ब्रह्मांड धीरे-धीरे फैल रहा है तो बेहद धीमी गति से ही सही, लेकिन आकाशीय पिंडों या किसी आकाशगंगा में अवस्थित तारों व अन्य पिंडों के बीच की दूरी बढ़ती जाएगी और इनके बीच का गुरुत्वाकर्षण बल कम होता जाएगा तो अंततः क्या ये बिखर जाएंगे? ऐसे तमाम अनुत्तरित प्रश्नों के समाधान तलाशने के क्रम में माख के दार्शनिक विचारों से सहमत होते हुए फ्रेड हॉयल ने एक नए सिद्धांत की अवधारणा दी जिसका नाम रखा ‘स्थाई अवस्था सिद्धांत’ (स्टीडी स्टेट थ्योरी)। इस सिद्धांत के मूल में यह अवधारणा दी गई कि ब्रह्मांड की कोई शुरुआत (बिग बैंग) नहीं थी और कोई अंत नहीं था। यानी ब्रह्मांड अनादि है और इसका विस्तार अनंत है। साथ ही, इस अवधारणा में यह प्रस्तावित किया गया कि ब्रह्मांड में समान अंतराल पर संकुचन और विस्तारण होता रहता है जिसकी वजह से यह ब्रह्मांड अंततः संतुलित ही रहता है।
दोनों की जोड़ी ने मिलकर
वैज्ञानिक मानते आए थे कि किसी कण का जड़त्वीय द्रव्यमान इसका एक आतंरिक गुण है। जबकि माख का सिद्धांत बताता है कि किसी वस्तु के जड़त्वीय गुण ब्रह्मांड में अन्य पदार्थों की उपस्थिति से निर्धारित होते हैं। इसका अर्थ यह है कि किसी कण का जड़त्वीय द्रव्यमान एक अतिरिक गुण नहीं है, बल्कि
ब्रह्मांड में अन्य सभी पदार्थों के साथ इसकी अंतक्रिया का परिणाम है। इस अंतक्रिया की शक्ति को एक युग्मन स्थिरांकद्वारा वर्णित किया जाता है जो ब्रह्मांडीय युग का एक फलन है,यानी यह समय के साथ बदलता है। नार्लीकर ने इस सिद्धांतपर फ्रेड हॉयल के साथ कार्य किया। माख के सिद्धांत के साथ आइंस्टीन के सामान्य सापेक्षता के सिद्धरांत को मिलाते हुए नार्लीकर ने हॉँयल-नार्लीकर सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार पदार्थ के एक सुचारु, अपरिवर्तनीय वितरण की सीमामें, हॉयल-नालीकर सिद्धांत आइंस्टीन के सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत में बदल जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हॉयल-नार्लीकर गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत आइंस्टीन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का एक वैकल्पिक सिद्धांत है। लेकिन आइंस्टीन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत के विपरीत, जो एक निश्चित गुरुत्वाकष्षण स्थिरांक (G) मानता है, हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत प्रस्तावित करता है कि गुरुत्वाकर्षण स्थिरांक (G) ब्रह्मांड में पदार्थ के औसत घनत्व का एक फलन है। यह गुरुत्वाकर्षण का वर्णन करने के लिए माख के सिद्धांत और विद्युत चुंबकत्व के विचारों को जोड़ता है। इस सिद्धांत ने एक विस्तारित ब्रह्मांड को स्वीकार किया, लेकिन प्रस्तावित किया कि ब्रह्मांड ऐसे विस्तार से उत्पन्न शून्य को भरने के लिए लगातार नए हाइड्रोजन परमाणुओं का निर्माण करके एक स्थिर घनत्व बनाए रखने में सक्षम था।
इस सिद्धांत में पदार्थ के निरंतर निर्माण के लिए ज़िम्मेदार एक काल्पनिक नकारात्मक-ऊर्जो क्षेत्र का प्रस्ताव रखा गया जिसे सूजन क्षेत्र (क्रिएशन फील्ड या सी-फील्ड) कहा गया। साथ ही यह सुझाया गया कि जब यह क्षेत्र प्रप्ति रूप से मज़बूत हो जाता है तो अंतरिक्ष में किसी भी बिंदु पर, एक नया हाइड्रोजन परमाणु दिखाई देता है। हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत के दिलचस्प पहलुओं में से एक है, कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (सीएमबी)विकिरण की संभावित व्याख्या। सीएमबी विकिरण ब्रह्मांड के सकारात्मक और नकारात्मक द्रव्यमान वाले क्षेत्रों के बीच की सीमा से उत्सर्जित विकिरण है।
ब्रह्मांड की कहानी एक नए चश्मे से…
इस सिद्धांत को स्पेसटाइम में शून्य-द्रव्यमान सतहों केअस्तित्व से कृष्ण विवर (ब्लैक होल) और श्वेत विवर (व्हाइट होल)के गठन को समझने के लिए लागू किया गया है। यह सुझाव दियागया है कि क्वासर और आकाशगंगाओं के असामान्य रेडशिफ्ट कोइस सिद्धांत के शून्य- द्रव्यमान सतहों में स्थानीय बदलावों द्वारासमझाया जा सकता है। साथ ही, कुछ शोधकरत्ताओं ने डार्क एनर्जी(ब्रह्मांड को तेज़ी से फैलाने वाली रहस्यमय ऊर्जा) और ब्रह्मांडके त्वरित विस्तार को समझाने के लिए हॉयल-ना्लीकर ढांचे के भीतर ज्यामिति और पदार्थ में संशोधनों की खोज की है।
आज भी ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में बिग बैंग के सिद्धांत को ही मान्यता
बहरहाल, हॉयल-नार्लीकर सिद्धांत को मेन स्ट्रीम वैज्ञानिक बिरादरी में अधिक स्वीकृति नहीं मिली। आज भी ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में बिग बैंग के सिद्धांत को ही मान्यता प्राप्त है। सन् 1965 में कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (सीएमबी) विकिरण की खोजने बिग बैंग थ्योरी के पक्ष में और अधिक प्रमाण प्रस्तुत किए और इस तरह गुरूत्वाकर्षण के हॉयल -नार्लीकर सिद्धांत की स्वीकृति को सीमित कर दिया। कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (सीएमबी) विकिरण (जिसे बिग बैंग की प्रतिध्वनि या शॉकवेव माना जाता है) पहले प्रकाश का ठंडा अवशेष है जो पूरे ब्रह्मांड में स्वतंत्र रूप से यात्रा कर सकता है। इन सभी चुनौतियों या प्रस्तावित सिद्धांत को सीमित मान्यता मिलने के बावजूद नार्लीकर हमेशा ही इसके प्रति आत्मविश्वस्थ्त रहे। वो मानते थे कि उनके द्वारा प्रस्तावित सिद्धांत वर्तमान से बहुत आगे का सिद्धांत है और भविष्य में यह अवश्य सत्य साबित होगा।
जीवन-संगिनी के साथ जुई़ींनई राहें..
इस बीच सन् 1966 में ही नार्लीकर का विवाह मंगला रजवाड़े से हुआ था। तब मंगला मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंड़ामेंटलरिसर्च (टीआईएफआर) के गणित विभाग में एक शोधार्थी थीं और शोध सहायक के तौर पर कार्यरत थीं। अगले दो वर्ष उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में स्नातक के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाया। सन् 1974 से 1980 तक वे पुनः टीआईएफआर से जुडीं और बाद में मुंबई विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया। इस दंपती को तीन बेटियां हैं-गीता, गिरिजा और लीलावती।
जब विश्वमंच से हुई स्वदेश वापसी
उधर कैंब्रिज में सन् 1972 में किसी पेशेवराना पद के चुनाव को लेकर विश्वविद्यालय नेतृत्व के साथ हुए विवाद के बाद सरहॉयल ने इस्तीफा दे दिया। कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने तब यह निर्णय लिया कि उनके संस्थान का कैंब्रिज के खगोल विज्ञान संस्थान में विलय कर दिया जाए। इस घटना के बाद नार्लीकर भी कैंब्रिज छोड़कर मुंबई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च(टीआईएफआर) में प्रोफेसर होकर भारत वापस आ गए। सन्1981 में नार्लीकर वर्ल्ड कल्चरल काउंसिल के संस्थापक सदस्य बनाए गए।
प्रोफेसर यशपाल का साथ
इथर देश में खगोल शास्त्र और खगोल भौतिकी पर केंद्रित एक संस्थान बनाने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल जब यूजीसी के अध्यक्ष बनाए गए,तब उन्होंने ऐसे किसी संस्थान की रूपरेखा बनाने का कार्यभार नार्लीकर को सौंपा। नार्लीकर ने एक रूपरेखा बनाकर प्रो. यशपाल को दी जिससे वे बहुत ख़ुश हुए। प्रो. यशपाल ने यह संस्थान बनाने की एकमात्र शर्त यह रखी कि नार्लीकर इसके संस्थापक निदेशक पद का कार्यभार संभालें और अपने निर्देशन में इस संस्थान को अस्तित्व में लाएं। नार्लीकर राज़ी हो गए। 1988 में, उन्हें पुणे में इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रॉनॉमी एंड एस्ट्रोफ़िज़िक्स(आईयूसीएए) का संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया। इस संस्थान की नींव और डिज़ाइन से लेकर इसके हरेक पहलू की परिकल्पना नार्लीकर की सोच और कार्यक्षमता का जीता जागता उदाहरण है।
अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ आयोग के अध्यक्ष बने
सन् 1994-1997 तक, वे ब्रह्मांड विज्ञान के लिए अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ आयोग के अध्यक्ष नियुक्त किए गए थे। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने नार्लीकर को विज्ञान और गणित में पाठ्यपुस्तकों के विकास के लिए गठित समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया । कोर्स और सिलेबस से इतर, संस्कृत जैसी सुवैज्ञानिक व समृद्ध भाषा को सही तरीक़े से पढ़े-पढ़ाए जाने की ज़रूरत को वे रेखांकित किया करते थे।एक भाषा के रूप में संस्कृत की शक्ति से वे अभिभूत थे और इस भाषा से देशवासियों की दिन पर दिन बढ़ती दूरी से चिंतित भी।
विज्ञान लेखक
उनका मानना था कि हरेक व्यक्ति को आधारभूत रूप से तर्क शील होना चाहिए। अंधविश्वासों और अजीबोगरीब मान्यताओं पर संदेह करना और प्रश्र उठाना सामान्य बुद्धि के व्यक्ति का मूल स्वभाव होना चाहिए। लेकिन सामाजिक वस्तु स्थिति उन्हें एकदम उलट दिखी। इस खाई को पाटने का एक उपाय उन्हें यही सूझा कि इस संदभ्भ में उन्हें लिखना और बोलना चाहिए। और तब उन्होंने अंग्रेज़ी, मराठी और हिंदी में सरल शब्दों में आम जन की भाषा में विज्ञान विषयक अनेक किताबें लिखीं। उनकी मराठी में लिखी किताबों के अनुवाद हिंदी में भी उपलब्ध हैं। उनके द्वारा लिखी महत्तवपूर्ण किताबों में शामिल हैं, फैक्ट्स एंड स्पेकुलेशंस इन कॉस्मौलोजी (सह लेखक- जी बरबिज), करंट इश्यूज इनकॉस्मोलोजी, “ए ड़िफरेंट एप्रोच टू कॉस्मोलोजी: फ्रॉम अ स्टेटिक यूनिवर्स थ्रू द बिग बैंग टुवईस रियलिटी’ आदि।
जबकि मराठी भाषा में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण रचनाएं की हैं जैसे-‘अंतरालातील भस्मासुर’ “अभयारण्य’ ‘टाइम मशीनची किमया”प्रेषित आदि। ‘चार नगरांतले माझे विश्व’ उनकी आत्मकथा है जिसके लिए उन्हें 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मिल चुके हैं कई सम्मान
खगोल-भौतिकी, विज्ञान और लेखन के क्षेत्र में आजीवन उच्चस्तरीय कार्य करते रहने वाले ब्रह्मांड-वैज्ञानिक जयंत विष्णु नार्लीकर को राषट्रीय- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेकानेक पुरस्कारों व सम्मानों से भूषित किया गया। भारत सरकार ने सन् 2004 में उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए सर्वोच्च पद्य पुरस्कार, पद्य विभूषण से अलंकृत किया। इससे पहले सन् 1965 में उन्हें पद्य भूषण भी प्रदान किया गया था। उन्हें मिलने वाले पुरस्कारों और सम्मानों की सूची काफ़ी लंबी है। साथ ही वे रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ लंदन के एसोसिएट और तीन इंडियन नैशनल साइंस अकैडेमीज़ व थर्ड वर्ल्ड अकैडमी ऑफ साइंसेज़ के फेलो चुने गए। वे भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में इन्फोसिस प्राइज़ के लिए जूरी के सदस्य चुने गए। सन् 1980 मैं कार्ल सेगन के प्रसिद्ध टीवी शो ‘कॉसमॉस: ए पर्सनल वॉयेज’ में भी उन्हें दिखाया गया था।
सितारों की दुनिया में जा बसे
अब जब हम आकाश की ओर देखेंगे तो एक मार्दर्शक सितारेके रूप में हमें जयंत विष्णु नार्लीकरजी के दर्शन भी होंगे, क्योंकि 20 मई, 2025 को वे इस फ़नी दुनिया को छोड़कर सितारों की दुनिया में जा बसे हैं। खगोल भौतिकी की दुनिया में उन्होंने अपनी जो विशिष्ट जगह बनाई है उसके लिए दुनिया भर में उन्हें याद किया जाता रहेगा और हम भारत के लोग इस वजह से गौरवान्वित होते हुए हमेशा ही उनके प्रति श्रद्धावनत बने रहेंगे।
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