चोल राजवंश

(CHOLA DYNASTY)

चोल वंश सुदर दक्षिण के प्राचीन राजवंशों में से एक था। संगम-काल में अपनी प्रतिष्ठा को बनाकर रखा था परन्तु बाद के समय में वे शक्तिशाली पल्लरवों, चालुक्यों और राष्ट्रकटों के अधीन सामन्त की भॉंति रह गये। 9वीं सदी के मध्य से उनकी शक्ती का पुनरुत्थान हुआ और इस अवसर पर वे सुदूर दक्षिण की एक महान् शक्ति बन गये। 200 वर्ष से भी अधिक समय तक चोलों ने तुंगभद्रा नदी के दक्षिण के सभी भू-प्रदेश और अरब सागर के बहुत से द्वीपों पर अपनी सत्ता को स्थापित रखा तथा शासन और सभ्यता के विकास दृष्टि से दक्षिण-भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भाग लिया।

1. विभिन्न शासक (Various Rulers)

विजयालय (850-871 ई)-

9वीं सदी में चोल-शक्ति की स्थापना में प्रमुख भाग विजयालय ने लिया। विजयालय पल्लव-शासकों के अधीन एक शक्तिशाली शासक था। उसने पल्लव और पाण्ड्यों से तंजौर को छीन कर ऊरैयर के स्थान पर तंजोर नगर को अपनी राजधानी बना दिया। इस प्रकार चोलों की प्राथमिक राजधानी ‘उरगपुर’ से हटकर ‘तंजौर(थंजाबुर अथवा तंजाउर) में स्थापित हो गई। उसने कावेरी की निम्न घाटी और कोलसन घाटी को विजय किया।

आदित्य प्रथम (871-907 ई)-

विजयालय के पुत्र और उत्तराधिकारी आदित्य ने पल्लव-शासक अपराजित को पाण्ड्यों के विरुद्ध सहायता दी। बाद में 893 ई. के लगभग उसने अपराजित को परास्त करके मार दिया और सम्पूर्ण तोण्डमण्डल पर अपना अधिकारकरके चोल वंश के स्वतनत्र राज्य की स्थापना की। पल्लवों का बचा हुआ सभी राज्य उसके हाथों में चला गया। उसने पश्चिमी गंगों को भी अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य किया। उसने अपनी राजधानी तंजौर में अनेक शिव-मन्दिरों का निर्माण कराया और उसे सुन्दर बनाया।

परान्तक प्रथम (907-953 ई.)–

परान्तक ने श्रीलंका और पाण्डय-शासक राजसिंह की सम्मिलित सेनाओं को परास्त करके राजसिंह के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। उसने बाणों और वैदुम्बों को परास्त किया तथा बल्लाल के युद्ध में राष्ट्रकूट-शासक कृष्णा द्वितीय को परास्त करके पैनर नदी के दक्षिण के सम्पूर्ण भू-प्रदेश पर अधिकार कर लिया। परन्तु चालाकी शक्ति के इस तीव्र विकास को राष्ट्कूट-शासक सहन न कर सके और कृष्णा तृतीय गंग-शासक के साथ मिलकर चोल-राज्य पर आक्रमण किया। 949 ई. में तक्कोलम नामक स्थान पर चोल-सेना की पराजय हुई और चोल-युवराज राजदित्य इस युद्ध में मारा गया राष्ट्रकूट्टों ने तोण्डमण्डल को भी अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। चोलों की यह पराजय इतनी गम्भीर थी कि अगले 32 वर्षों तक चोल-शासक दक्षिण की राजनीति में नगण्यन बने रहे। परन्तक प्रथम के पश्चात् सम्भवतया सुन्दर चोल अथवा परान्तक द्वितीय (957-973 ई) ने तोण्डमण्डल को पुनः प्राप्त करने में सफलता पायी ।

राजराज प्रथम महान् (985-1014 ई.)-

उत्तराधिकार में युवराज अरमोलिवर्मन को 985 ई. में अशान्त एवं अव्यवस्थित छोटा-सा कमजोर राज्य प्राप्त हुआ। सिंहासन पर
बैठने से पूर्व में ही उसे उत्तर चोल के शासनकाल में ही ‘युवराज के रूप में सैन्य-संचालन तथा शासन कार्य का अनुभव प्राप्त हो चुका था। उसने ‘राजराज’ की उपाधि धारण की। राजराज प्रथम अपने जीवन में शैव-धर्मावलम्बी था। उसने ‘शिवपाद शेखर’ की उपाधि भी धारण की।

चोलों की शक्ति और प्रतिष्ठा को पूनः स्थापित करने का श्रेय राजराज को गया जो चोल वंश का एक महान् शासक हुआ। उसने पश्चिमी गंगों, वेंगी के पूर्वी चालुक्यों, मदुरा के पाण्ड्यों, कलिंग के गंगों और केरल के चेरों को परास्त किया और सम्पूर्ण सुदूर दक्षिण मेंअपने राज्य का विस्तार किया। उसने एक शक्तिशाली नौ-सेना का निर्माण किया और उसकी सहायता से कुर्गे, सम्पूर्ण मलाबार-तट और श्रीलंका के कुछ भाग पर अधिकार कर लिया।उसने लक
लक्षदीव और मालदीव नामक द्वीपों को जीता, पूर्वीं द्वीपसमूहों पर आक्रमण किये और श्रीविजय-साम्रज्य के राजा तुंगवर्मन से मित्रता की। उसने वेंगी में अपने समर्थक विमलादित्य को सिंहासन पर बैठाया और उससे अपनी पुत्री का विवाह किया। उसने पश्चिमी चालुक्य-शासक सत्याश्रय के राज्य पर आक्रमण करके उसे लूटा । इस प्रकार, राजराज ने चोलों के एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया और उसकी महानता की नींव डाली।

राजराज एक महान् विजेता ही न था अपितु एक योग्य शासन- प्रबन्धक और निर्माता भी था। उसने दक्षिण भारत में सर्व प्रथम एक शक्तिशाली नौ-सेना का निर्माण किया। उसने अपने पुत्र ओर उत्तराधिकारी राजकुमार को अपने समय में ही शासन में सम्मिलित करने की परम्परा को आरम्भ किया और एक अच्छे स्थानीय स्वशासन की नींव डाली। राजराज शैव-मतावलम्बी था। उसने राजराजेश्वर के शिव-मन्दिर का निर्माण कराया जो तमिल-वास्तुकला का एक अद्वितीय नमूना माना गया है। परन्तु वह धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु था। उसने बौद्ध-मठों एवं विहारों को भी संरक्षण प्रदान किया।

राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.)-

राजराज प्रथम ने अपने पुत्र राजेन्द्र प्रथम को 1012 ई. में युवराज-पद पर आसीन कर उसे भावी सम्राट के रूप में प्रशिक्षित कर दिया था। 1014 ई. में राजेन्द्र प्रथम को चोल राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। राजेन्द्र ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गये कार्य को आगे बढ़ाया ओर चोलों की शक्ति को उसकी चरम सीमा पर पहुँचा दिया। उसने दक्षिण के पाण्डय और चेर राज्यों को जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। उसने श्रीलंका को जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया यद्यपि 1029 ई. में दक्षिणी श्रीलंका उसके आधिपत्य से मुक्त हो गया। उसने पश्चिमी चालुक्यों के शासक जयसिंह के वेंगी पर अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के प्रयल्न को असफल किया और बाद के समय में चालुक्य-शासक सोमेश्वर प्रथम के राज्य पर आक्रमण करके उसे लूटा। उसके समय में तुंगभद्रा नदी को पश्चिमी चालुक्य-राज्य और चोल-साम्रज्य को विभाजित करने वाली रेखा मान लिया गया। राजेन्द्र ने कलिंग, उड़ीसा और बस्तर के मार्ग से पश्चमी बंगालपर आक्रमण किया ओर शक्तिशाली पाल-शासक महीपाल को परास्त किया। परन्तु उत्तर-भारत पर उसका यह- आक्रमण केवल कीर्ति स्थापित करने हेतु किया गया। उसने उत्तर-भारत के किसी भाग को अपने राज्य में सम्मिलित नहीं किया। उसने मलाया, जावा,सुमात्रा आदि में स्थापित महान् शैलेन्द्र-साम्राज्य पर नो-सेना के द्वारा आक्रमण किया और वहाँ के शासक श्रीविजय ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। अरब सागर में भी उसने अपनी नौ-सेना की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। इन आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य समुद्री व्यापार की रक्षा करना था जिसमें वह सफल हुआ।

राजेन्द्र एक महान् विजेता था और वह अरब सागर में नौ-सेना की श्रेष्ठता को स्थापित करने वाला पहला भारतीय शासक था । इसके अतिरिक्त वह एक योग्य शासक और महान

क्रमशः

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