चाँद पर पहला कदम

चाँद पर पहला कदम

आज भी चाँद हमें प्यारा, मोहक, आकर्षक, लुभावना और रोगांटिक लगता है। विश्वास नहीं होता कि वहाँ हमारे जैसी धरती है और मनुष्य ने उस पर अपने कदम रखकर झंडा गाड़ दिया है। मगर यह सच है कि २० जुलाई १९६९ को अमेरिका से भेजे गए अपोलो-११ ने चंद्रमा पर उतरने में सफलता पाई और नील आर्मस्ट्रांग ने वहाँ अपने पदचिह्न अकित किए हैं। उसने हमें अंतरिक्ष अभियानों को तेज करने की प्रेरणा दी है। अमेरिका, सोवियत रूस, फ्रांस, चीन, भारत सहित अनेक देश अंतरिक्ष की खोज करने के प्रयासों में लगे हैं। अनेक रॉकेट छोड़े जाते हैं और सैटेलाइट भेजे जा रहे हैं । ब्रह्मांड के अन्य भागों के बारे में जानकारी एकत्र करने और संभव हो तो उनसे संपर्क स्थापित करने में दिलचस्पी ने ही मनुष्य को चाँद पर कदम रखने में कामयाब बनाया। है कि हम अंतरिक्ष में हर कहीं, पृथ्वी प्रयास खासकर निकटस्थ मंगल और शुक्र ग्रहों पर, अपने प्रतिनिधि भेजें। इससे आगे लोग सोच रहे हैं कि यदि वहाँ मानव जीवन संभावनाएँ विद्यमान हों तो अपनी की हम बस्तियाँ वहाँ कायम और वैसे ही अंतरिक्ष में आना-जाना शुरू कर दें जैसे अभी से भारत अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जाते हैं। इस दिशा विज्ञान में ने ‘स्टार वार्स जैसी अनेक कल्पनाएँ उसे आगे बढ़ा रही हैं। मगर चंद्रमा अभी भी प्रेयसी की याद दिलाता कविताओं गुनगुनाने के लिए प्रेरित करता है। रॉबर्ट गोडाड और को धन्यवाद कि उन्होंने सन् १९२६ में रॉकेट उड़ाना बतलाया, जिसकी सूझबूझ को आगे बढ़ाते हुए सन् १९५७ में सोवियत रूस ने प्रथम स्पूतनिक सैटेलाइट का प्रक्षेपण किया| शीघ्र ही मनुष्य ‘चैलेंजर’ के माध्यम से मंगल ग्रह पर कदम रखने वाला है।

चाँद की अनोखी दुनिया

चाँद पर दिन-रात के अलावा कभी कुछ नहीं होता। वहाँ न तो बादल है न बरसात, न हवा ने तूफान। चाँद पर कोई मौसम नही। कोई नदी उसकी जमीन पर नहीं बहती, कोई समुद्र बहाँ हिलोरे नही लेता । बस ऊबड़-खाबड़ चट्टानें हैं और धूल है, लेकिन यह धूल उड़ नहीं सकती।

चाँद पर जाने वाला जहाज जब अपने सीमेंट के चबूतरे पर खड़ा हो, तो लगता है कि ३६ मंजिल की इमारत खड़ी है। ३६३ फुट ऊँचा यह अग्निबाण वजन में कुल ३१०० टन है। जो इंजिन इस जहाज को आकाश में ले जाते हैं, वे मानो २५ बोइंग जेट विमानों का, अथवा २००० मोटर कारों का बोझा ढो रहे हैं। चाँद का जहाज एक पूर नौसैनिक विध्वंसक के बराबर वजनदार होता है।

यह जहाज शायद दुनिया की सबसे विचित्र और पेचीदा मशीन है। उसे बनाने में अमेरिका ने आठ साल में
२४ अरब डॉलर खर्च किए हैं। पृथ्वी के इतिहास में इतना खर्चीला वैज्ञानिक प्रयोग कभी नहीं किया गया। प्रथम एंटम बम बनाने की २ अरब डॉलर की योजना अपोलो के सामने बच्चा थी। अपोलो-११ की कीमत एक लंबे युद्ध की कीमत के बराबर है।

इस ३६ मंजिल के अग्निबाण में तो ३० लाख छोटे-बड़े पुर्जे हैं। साढ़े तीन लाख वैज्ञानिकों ने पसीना बहाकर और दिमाग का तेल निकाल कर उसे बनाया है। बीस हजार कंपनियों को इस जहाज के अलग हिस्सों का ठेका दिया गया। अपोली योजना ठेके से हुए आविष्कार का आश्चर्यजनक उदाहरण है।

You may also like...

error: Content is protected !!