आर्थिक सुधार /उदारीकरण और वर्तमान

आर्थिक सुधार /उदारीकरण और वर्तमान

1991 के बाद भारत की अर्थव्यवस्था आज बदल चुकी है, परंतु यह बदलाव 25 वर्षों से किये जा रहे प्रयास के कारण दिखाई दे रहा है। भारत आज तेज़ आर्थिक संवृद्धि दर वाला दुनिया का बड़ा देश है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव का संक्षिप्त समीक्षा इस प्रकार है-

सुधार का पहला प्रयास

ये पहले ऐसे सुधार हुए जिन्होंने नीतियों के चलते पैदा हुई बाधाओं को दूर किया। 1991 (राव-मनमोहन पैक्ट) के सुधार बजट 24 जुलाई, 1991 को जारी इंडस्ट्रियल पॉलिसी स्टेटमेंट ने इंडस्ट्रियल लाइसेंसिंग।और बड़ी कंपनियों के लिये विस्तार योजनाओं या कोई शुरुआत करने की खातिर मोनोपॉली एंड रिस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रैक्टिसेज़ कमीशन से मंजूरी लेने की ज़रूरत खत्म कर दी। इसने विदेशी निवेश और विदेशी निजी।क्षेत्र लाइसेंसिंग के दरवाज़े खोले। इसने कई क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिये खोला जो अब तक सार्वजनिक क्षेत्र के लिये रिजर्व थे। सुधार ने निजी क्षेत्र पर बाज़ार का अनुशासन मानने का दबाव बनाया इस कदम से भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हुई।

सुधार का दुसरा प्रयास

रिफॉर्म्स का दूसरा सेट टैक्सेशन से जुड़ा था । इनकम टैक्स घटाए।गए और उन्हें सरल किया गया। इंपोर्ट ड्यूटीज़ में बड़ी कटौती की गई। एक्साइज ड्यूटीज़ में कमी आई और उनमें से कई को एक में मिलाया गया। आयात शुल्क कम होने से भारतीय उद्योग को नुकसान हो सकता था, लेकिन उद्योग को एक अन्य सुधार से काफी सुरक्षा मिल गई।

फ्लोटिंग करेंसी की गुंजाइश बनाकर यह रिफॉर्म किया गया। इसके चलते सभी प्रमुख करेंसीज़ के मुकाबले रुपया नीचे चला गया। हालाँकि इसके।चलते एक्सपोर्ट्स को प्रोत्साहन मिला और करेंट अकाउंट डेफिसिट को दो तरीकों से काबू में करने में मदद मिली। आयात रुपए के लिहाज़ से महँगा हो गया, जिससे इंपोर्ट बिल घटा और विदेश में काम कर रहे लोगों से देश में आने वाली रकम का मूल्य बढ़ा। विदेश से रकम भेजने के लिये हवाला का इस्तेमाल कम हुआ और लोग बैंकिंग सिस्टम का उपयोग ज्यादा करने लगे। इसके चलते भारत आज दुनिया में सबसे ज्यादा रेमिटेंस (भेजा हुआ धन) पाने वाला देश बन गया है।

सुधार का तीसरा प्रयास

आयात शुल्क घटाने से एक अन्य अहम सुधार हुआ। इसके चलते व्यापार का गणित बदल गया, जो अब तक कृषि के खिलाफ था। बहुत अधिक संरक्षण पाने वाले औद्योगिक उत्पादन की लागत ग्लोबल मार्केट के मुकाबले इंडिया में कहीं ज्यादा थी। इसके चलते अपनी ज़रूरत की औद्योगिक वस्तुएँ (गुड्स) खरीदने के लिये किसी भारतीय किसान को दुनिया में किसी भी जगह के किसान के मुकाबले अपनी उपज का ज्यादा हिस्सा बेचना पड़ता था। संरक्षण घटने के साथ औद्योगिक मूल्यों में गिरावट आई। आज भारत चावल, कपास, बफ और दुग्ध उत्पादों के बड़े नि्यातकों में शामिल हैं। वहीं कृषि उत्पादों के मामले में यह चीन और अमेरिका के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।

सुधार का चौथा प्रयास

सधार प्रक्रिया के एकदम शुरुआती दौर में कट्रोलर ऑफ कैपिट इशूज को खत्म कर दिया गया और कानूनी प्रावधान से सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया यानी सेबी की स्थापना की गई जिसमे पुंजी बाज़ार के विनियमन का जिम्मा दया गया। सरकार ने एक नए और ट्रांसपैरेंट स्टॉक एक्सचेंज एनएसई (NSE) की स्थापना की पहल की। इसका ढाँचा ऐसा बनाया गया ताकि देश भर में ब्रोकर्स इसके प्लेटफॉर्म पर गारंटीशुदा सेंटलमंट और क्लीयरंस के साथ ट्रेड कर सकें।

फ्यूचर्स और डेरिवेटिव्स की शुरुआत हुई, जो स्पॉट और फॉरवर्ड मार्केटस फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर्स को मार्केट में से बिल्कुल अलग राह आने की इज़ाजत देने से इन रिफॉर्स को पूर्णता मिली। कंपनियों ने अपना मुनाफा कम करके बताना बंद कर दिया ताकि उनका वैल्यूएशन बढ़ सके। इस कदम ने उनके प्रमोटरों को अरबपति बना दिया और सरकारी खजाने को भी ज्यादा कॉरपरेट टैक्स मिलने लगा।

सुधार का पांचवा प्रयास

टेलीकॉम, पाॅवर, हाइड्रोकार्बन्स और इंश्योरेंस सेक्टर में रेग्युलेटर।(नियामक) बनाए गए। साथ ही प्रतिस्पद्ध्धा पर नज़र रखने के लिये रेग्युलेटर की व्यवस्था हुई। आरबीआई को स्वायत्तता मिली। नए निजी बैंक खोलने की इज़ाज़त दी गई। 2008 में नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने देश भर में इलेक्ट्रॉनिक बैंकिंग की राह बनाई तो इसके साथ मिलकर आधार परियोजना ने वित्तीय समावेशन को रफ्तार दी, आरबीआई ने बचतकत्त्ताओं की कीमत पर लेनदार को फायदा देने को खातिर ब्याज की दरों को महँगाई दर से नीचे रखने का चलन बद कर दिया। सरकार को अनिवार्य कर्जों में बड़े पैमाने पर कमी आई। नए बैंको को लाइसेंस दिये गए। प्राइवेट म्यूचुअल फंड्स का आकार सरकार का ओर से प्रायोजित यूटीआई से बड़ा हो गया।


सुधार का छटा प्रयास

सरकार ने अपने बजट घाटे की भरपाई के लिये आरबीआई से उधार लेना बंद कर दिया। उधारी पर काबू पाने (फिस्कल डेफिसिट पर नियंत्रण) और पिछली उधारी पर ब्याज चुकाने के लिये नया कर्ज़।

लेने से बचने की ज़रूरत को राजकोषीय अनुशासन का अहम अंग बनाया गया। इसी कारण FRBM कानून लाया गया। अवसंरचना तैयार करने से भी संवृद्धि के अवसर बढ़े। भारत की सूचना प्रौद्योगिकी और आईटी आधारित उद्योगों ने संचार क्रांति को संभव बनाया और इन तीनों ने इंडिया को एक नए मुकाम पर पहुँचाया और ग्लोबल लेवल पर इसका सम्मान बढ़ाया।

सातवाँ सुधार तथा वर्तमान स्थिति

भारत को विनिर्माण हब के रूप में विकसित करने का ला लिया गया। इस समय नई व्यापार नीति लाई गई। ‘मेक इंडिया कैंपेन की शुरुआत हुई है। रक्षा, रेलवे सहित कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों विदेशी निवेश के लिये खोल दिया गया है। श्रम सुधार के कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। नवीकरणीय ऊर्जा नीति को विस्तार दिया गया। भारत के जनसाख्यिकी लाभांश के अधिकतम दोहन हेतु स्किल इंडिया कैंपेन के तहत कौशल विकास एवं उद्यमिता के विकास के लिये राष्ट्रीय नीति बनाई गई। इसी समय नवाचार तथा स्टार्टअप को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया । मानव को बुनियादी सुविधाओं में स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा घर आदि तक पहुँच सुनिश्चित करने के प्रयास हो रहे हैं। शहर आर्थिक केंद्र के रूप में उभरे इसे देखते हुए ‘स्मार्ट सिटी’ तथा ‘अमरूत’ परियोजनाओं का शुभारंभ हुआ ।

वैश्वीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन वैश्वीकरण को ऐतिहासिक प्रक्रिया मानते हुए कहते हैं कि यह अनिवार्य रूप से पश्चिमी नहीं है। साथ ही ये इसके सुधार की आवश्यकता पर बल देते हैं। वैश्वीकरण से चीन और भारत जैसे कई विकासशील देशों ने फायदा उठाया है तो वहीं अफ्रीका के अल्पविकसित देशों को खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। अब हम वैश्वीकरण के स्वरूप को जान चुके हैं तो सवाल आता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है? 1991 में आर्थिक सुधार को अपनाकर भारतीय अर्थव्यवस्था में कई सुधार किये गए और बाधाओं को हटाकर अर्थव्यवस्था को विश्व के लिये खोला गया यह सुधार अपने में तीन अवयवों को समेटे हुए हैं – वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण।

अर्थव्यवस्था की विकास की दर को बढ़ाना, अतीत में प्राप्त लाभों का समायोजन करना, उत्पादन इकाइयों की प्रतिस्पद्धात्मक क्षमता को बढ़ाना इसके मुख्य उद्देश्य रहे हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये कई प्रमुख परिवर्तन किये गए, जैसे कि लाइसेंस व्यवस्था की समाप्ति, निजी निवेश के लिये एमएनसी को प्रोत्साहन, विदेशी विनिमय पर लगी रुकावटों को समाप्त करना, कीमत तथा वितरण संबंधी सारी रुकावटों को हटाना और एमआरटीपी अधिनियम को समाप्त करना है ।

उदारीकरण के सकारात्मक प्रभाव

उदारीकरण की नीति के परिणामस्वरूप देश में उद्योग एवं अवसंरचना क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में वृद्धि हुई। इसने औद्योगिक क्षेत्र में मंदी पर लगाम लगाई। सकल घरेलू उत्पाद में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई।

विभिन्न प्रोजेक्टों की स्थापना में व्यापक निवेश और आधुनिकीकरण ने विशेष रूप से कपड़ा, ऑटोमोबाइल, कोयला खदान, रसायन एवं पेट्रो-रसायन, धातु, खाद्य प्रसंस्करण, सॉफ्टवेयर उद्योग इत्यादि को ऊँचा उठाया। अवसंरचना के विकास के साथ रोज़गार अवसरों में वृद्धि हुई।


भारत में उदारीकरण के प्रभावस्वरूप अर्थव्यवस्था में खुलापन आया और इसके कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण का दौर प्रारंभ होता है। इसी समय भारत में कई बहुउद्देशीय निगमों का आगमन शुरू होता है तथा भारत नए दौर में प्रवेश करता है। भारत में मल्टीनेशनल कंपनियों द्वारा काफी सफलता हासिल की गई । निगमों की व्यापक सफलता के पीछे निम्न कारण गिनाए जा सकते हैं-

  1. उच्चतर मार्केटिंग
  2. बाज़ार का विस्तार
  3. विशाल वित्तीय संसाधन
  4. तकनीकी श्रेष्ठता

उत्पादों का नवीकरण

भारत में 1991 में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नीति की घोषणा के बाद से भारतीय उद्योगों में बहुराष्ट्रीय निगमों की हिस्सेदारी का एक मुख्य रूप विदेशी सहयोग है। इस उद्देश्य के लिये भारतीय उद्योगपतियों के सहयोग से समझौते बनाए जाते हैं जिनमें तकनीक के आयात की व्यवस्था होती है। कंपनियाँ भारत क्यों आ रही हैं, के कारण हैं- भारत एक बहुत बड़े बाज़ार के रूप में स्थापित हुआ। विश्व में इसकी अर्थव्यवस्था सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनी। भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने के लिये विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की दिशा में सरकार की नीति ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। देश के विकास पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव काफी असमान है। कुछ मायनों में भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव सकारात्मक रहा है।

उदारीकरण के नकारात्मक प्रभाव

उदारीकरण के भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित देखे जा सकते हैं-

# भारतीय राज्यों में समान रूप से निवेश नहीं हुआ, जिसके कारण कुछ राज्य विकसित हुए तथा कुछ पिछड़े ही रह गए.

# असमान निवेश के कारण असमान औद्योगिक विकास हुआ।

# बेरोज़गारी तथा गरीबी की समस्याएँ बढ़ी।

# मुद्रास्फीतिः आर्थिक विकास के साथ ही महँगाई बढ़ी।

# आर्थिक विकास का लाभ कुछ क्षेत्रों, लोगों एवं वर्गों को मिला, परतु महँगाई सर्वव्यापी बनी रही।

# कृषि क्षेत्र में किसानों को अनावश्यक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा। अधिक सब्सिडी प्राप्त विकसित देशों के किसानों एवं उनके उत्पादों के साथ भारतीय संसाधनविहीन किसानों को मुकाबला करना पड़ा जिससे किसानों की आय प्रभावित हुई।

# उदारीकरण ने बड़ी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों की संवृद्धि को सुनिश्चित किया, लेकिन कुटीर एवं लघु उद्योगों को विशेष रूप से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछडे राज्यों में बरी तरह प्रभावित किया।

नोट – 2014 के बाद जो प्रयास किए गए हैं उस पर अलग से आर्टिकल दिया जाएगा, आप वेबसाइट के नियमित सम्पर्क में रहें

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