जर्मनी का एकीकरण

जर्मनी का एकीकरण 

19वीं शताब्दी के मध्य में जर्मनी का एकीकरण यूरोप में राष्ट्रीयता की महाविजय का सूचक था. जर्मनी के एकीकरण का मुख्य नायक प्रशा का चांसलर बिस्मार्क था, किन्तु इसके लिए जर्मनी में बिस्मार्क के रंगमंच पर आने की पहले से तैयारी हो रही थी. जर्मनी में देशभक्ति तथा उदारवाद का बीजारोपण फ्रांस के महान् सम्राट् नेपोलियन बोनापार्ट (1798-1814) द्वारा किया गया था. नेपोलियन की सेनाओं के आक्रमण का प्रतिरोध करने से जर्मनी में देशप्रेम की भावना प्रज्वलित हुई. अपनी विजय के उपरान्त नेपोलियन ने जर्मनी का राजनीतिक पुनर्गठन करते हुए राज्यों की संख्या कम कर दी. ऐसा करके उसने जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया को आरम्भ कर दिया. इतिहासकार ई. लिप्सन का यह कथन सत्य है कि “यह इतिहास का व्यंग्य है कि नेपोलियन आधुनिक जर्मनी का निर्माता था.” ‘वर्ल्ड सिविला इजेशंस’ के लेखकों का भी विचार यही है.

उनका मानना है कि प्रशा पर फ्रांस की विजय वहाँ की जनता के लिए अपमानजनक थी. इसके साथ ही फिख्टे जैसे लेखक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर जर्मन जनता को प्रेरित कर रहे थे कि वह देश के प्राचीन गौरव की पुनः स्थापना के लिए कार्य करें. उभरते हुए राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति कई रूपों में हो रही थी. कवि शिलर की नाट्य रचनाएं राष्ट्रीय चेतना जाग्रत कर रही थीं. फिख्टे, कांट तथा हीगेल जैसे दार्शनिकों ने जर्मन आदर्शवादी दर्शन को नई दिशा प्रदान की. कांट के राजनीतिक विचारों पर स्पष्टतः फ्रेंच क्रान्तिकारियों के विचारों की छाप थी.

फिख्टे ने अपने आदर्शवादी दर्शन का इस्तेमाल नेपोलियन के आक्रमणों के विरुद्ध राष्ट्रीय प्रतिरोध को विकसित करने के लिए किया. हीगेल ने भी जर्मन राष्ट्र की आस्था का विचार जर्मन जनता को दिया. यहाँ तक कि इस दौर का संगीत भी राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत था.जर्मनी में राष्ट्रीयता की भावना को पुष्ट करने में फॉनस्टाइन,लिंडनबर्ग तथा हम्बोल्ट जैसे सुधारकों का भी योगदान रहा. इन्होंने प्रशासन, सेना, अर्थव्यवस्था, आदि के क्षेत्र में सुधार करके प्रशा को एक शक्तिशाली आधुनिक राज्य बनाया और इसी कारण वह जर्मनी के एकीकरण में नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर सका. 

राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्ष का प्रथम चरण

जर्मनी में राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्ष का पहला चरण 1815-1819 का था. यह चरण जर्मनी में उदारवाद के सिद्धान्तों पर आधारित संवैधानिक शासन की स्थापना के लिए संघर्ष का दौर था. इसमें मुख्य भूमिका छात्रों तथा बुद्धिजीवियों की थी तथा महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय इस आन्दोलन के केन्द्र थे. आन्दोलन का लक्ष्य प्रजातान्त्रिक संवैधानिक शासन के अन्तर्गत देश की राष्ट्रीय एकता को स्थापित करना था. इस आन्दोलन को काल्सवाद के दमनकारी आदेशों (Carlsbad Decrees) द्वारा कुचल दिया गया. प्रथम दौर के इन प्रयासों का दमन करने में मुख्य भूमिका आस्ट्रिया तथा वहाँ के चांसलर मेटर्निख की थी. जर्मन एकीकरण की दिशा में प्रथम सार्थक कदम 1834 में उठाया गया. उस वर्ष प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के 18 राज्यों ने एक आर्थिक संघ (जॉल्वेरिन) की स्थापना की आस्ट्रिया को इस संघ में स्थान नहीं दिया गया. जॉल्वेरिन ने जर्मनी के राजनीतिक एकीकरण के लिए जमीन तैयार की. इतिहासकार दूरगैंग के अनुसार, जॉल्वेरिना के फलस्वरूप स्थानीय भावनाओं तथा आदतों को दबाकर उनके स्थान पर जर्मन राष्ट्रीयता के व्यापक एवं शक्तिशाली तत्व स्थापित हुएएक अन्य इतिहासकार केटलवी के अनुसार जॉल्वेरिन ने 1850 में किए गए जर्मन एकीकरण के प्रयास हेतु आधार तैयार किया.1850 में प्रशा ने अपने को लगभग सम्पूर्ण जर्मनी के मजबूत आर्थिक संघ के नेता के रूपहमें पाया. इस आर्थिक एकता का राजनीतिक एकता के लिए बहुत ज्यादा महत्व था.

जर्मनी के एकीकरण का दूसरा चरण 

1848-50 का दौर यूरोप में क्रान्ति का दौर था. इस क्रांन्तिकारी उभार से जर्मनी भी अछूता नहीं रहा. एक जनतान्त्रिक आन्दोलन ने सम्पूर्ण जर्मनी को प्रभावित कर दिया. जर्मनी का एकीकरण करने के लिए फ्रैंकफुर्ट असेम्बली का गठन हुआ था तथा देश में संवैधानिक सरकार की स्थापना के लिए कदम उठाए गए. फ्रकफुर्ट संसद का जन्म जनता के स्वस्फूर्त आन्दोलन का परिणाम था, किन्तु इसके सदस्यों में इतनी क्षमता नहीं थी कि वे जर्मनी के एकीकरण से जुड़ी पेंचीदा समस्याओं काससमाधान कर सकें. अतः फ्रैंकफुर्ट प्रयोग की ससफलता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था अन्त में, 1850 में इस आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर रहे प्रशा द्वारा आल्मुव्ज में आस्ट्रिया के समक्ष समर्पण से यह दौर पूर्ण विफलता के साथ समाप्त हो गया. यद्यपि 1848-50 का प्रयास पूर्णतः विफल रहा, किन्तु इस विफलता से जर्मन राष्ट्रवादियों ने कई महत्वपूर्ण सबक सीखे जिनका लाभ भविष्य के प्रयास में मिला. सर्वप्रथम तो जर्मनी को यह समझ में आ गया कि उनके राष्ट्रीय एकीकरण में मुख्य बाधक शक्ति आस्ट्रिया है. अतः जर्मनी का एकीकरण करने के लिए आस्ट्रिया को जर्मनी से बाहर खदेड़ना जरूरी था. दूसरे, अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया कि आस्ट्रिया के प्रभाव तथा नियन्त्रण में रहने वाली फ्रैंकफुर्ट संसद अथवा कोई स्वतः स्फूर्त जनआन्दोलन जर्मनी के एकीकरण के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है. तीसरा और अन्तिम सबक था कि जर्मनी का एकीकरण प्रशा के राज्य के नेतृत्व।में ही सम्भव है. प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक भीतस्के ने लिखा “हमारी पितृभूमि नहीं है तथा केवल होहेनजॉलर्न उसे प्रदान करहसकता है.”

राष्ट्रीय एकीकरण का अन्तिम चरण

जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया के अन्तिम चरण (1862-70) का नायक बिस्मार्क था. बिस्मार्क का जन्म 1815 ई. में हुआ था तथा प्रशा के राजा विलियम प्रथम ने उसे 1862 में प्रशा का चांसलर नियुक्त किया. बिस्मार्क ने घोषणा की थी कि “मेरे जीवन की महानतम् महत्वाकांक्षा जर्मनी को एक राष्ट्र बनाना है.” यहाँ यह स्मरणीय है कि बिस्मार्क के लिए जर्मनी के एकीकरण का।अर्थ था सम्पूर्ण जर्मनी को प्रशा राज्य के।अधीन लाना. वह जर्मनी का प्रशियाकरण चाहता था, प्रशा का जर्मनीकरण नहीं. जर्मनी के एकीकरण के लिए किस कार्यनीति पर चलना है ? इस सम्बन्ध में बिस्मार्क की समझ साफ थी. उसका दृढ़ विश्वास था कि “युग के महान् प्रश्नों का हल भाषणों तथा संसदीय बहुमत से नहीं, अपितु रक्त और तलवार से होता है.” इस कार्यनीति पर काम करते हुए उसे एक ओर तो प्रशा को एक महान् सैन्यशक्ति बनाना था तथा दूसरी ओर आस्ट्रिया को अलग- थलग करने के उपरान्त युद्ध में पराजित कर जर्मनी से बाहर करना था. प्रशा की सेना को शक्तिशाली बनाने की दिशा में कदम बिस्मार्क से पहले ही उठाए जा चुके थे.

प्रशा में सैन्य सुधार की दिशा में मुख्य योगदान रून तथा मोल्त्के को जाता है. हों इन सुधारों को प्रशा के राजा का भी समर्थन  प्राप्त था, किन्तु प्रशा की संसद देश के हो सैन्यीकरण के पक्ष में नहीं थी तथा उसने  सेना के बजट को पारित करने से इनकार कर दिया. प्रधानमंत्री बन जाने पर बिस्मार्कहने पूरी कोशिश की कि संसद सेना को ।शक्तिशाली बनाने की पक्षधर हो जाए तथा बजट को पारित कर दे. जब उसे इसमें सफलता नहीं मिली, तो बिस्मार्क ने संसदहकी उपेक्षा करते हुए, बजट पारित न होने के बावजूद सैन्य सुधारों को जारी रखा. कुछ ही समय में प्रशा की सेना यूरोप की सबसे।अधिक शक्तिशाली सेना हो गई.

सैनिक तैयारी पूर्ण हो जाने पर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को अलग-थलग करने और युद्ध में पराजित करने के लिए चाल चलना आरम्भ कर दिया. आस्ट्रिया को अलग-थलग करना विशेष कठिन कार्य नहीं था. इटली आस्ट्रिया का दुश्मन था. रूस से आस्ट्रिया के सम्बन्धसतनावपूर्ण थे. ग्रेट ब्रिटेन की सहानुभूति जर्मन जनता के साथ ही थी. अतः ये शक्तियाँ प्रशा के विरुद्ध आस्ट्रिया का साथ नहीं देतीं. अतः केवल फ्रांस रह जाता था. फ्रांस, जर्मन एकता तथा शक्तिशाली जर्मन राज्य को लेकर आशंकित था. अतः वह आस्ट्रिया का साथ दे सकता था. इस सम्भावना को समाप्त करने के लिए अक्टूबर 1865 में फ्रांस के सम्राट् नेपोलियन तृतीय के साथ गुप्त रूप से भेंट की. बिस्मार्क ने फ्रांस के सम्राट् को विश्वास दिलाया कि यदि वह प्रशा आस्ट्रिया  युद्ध में तटस्थ रहता है, तो उसे पर्याप्त रूप से किया जाएगा. फ्रांस की तटस्थता पुरस्कृत सुनिश्चित करने के उपरान्त 1866 में बिस्मार्क ने इटली के साथ सन्धि की. इस सन्धि के अनुसार, यदि तीन माह के अन्दर युद्ध आरम्भ हो जाता है, तो इटली युद्ध में प्रशा का साथ देगा.

इस तरह आस्ट्रिया को अलग-थलग करने का काम पूरा करने के साथ ही बिस्मार्क ने उसके साथ युद्ध की तैयारी भी आरम्भ कर दी. बिस्मार्क की महानता इसमें थी कि वह अपने काम के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा नहीं करता था, अपितु उसे पैदा।करता था. यहाँ पर भी ऐसा ही हुआ.

आस्ट्रिया के साथ युद्ध के लिए जमीन तैयार करने हेतु डेनमार्क के साथ युद्ध का इस्तेमाल किया गया. डेनमार्क राज्य के अधीन श्लेसविग।तथा होलस्टीन भी दो जर्मन उची (रियासतें या जागीर) थीं. यहाँ की जर्मन जनता में असंतोष था. उनका पक्ष लेकर प्रशा वह आस्ट्रिया ने डेनमार्क पर हमला कर उसे  पराजित कर 30 अक्टूबर, 1864 की वियना सन्धि के लिए बाध्य किया गया. इस सन्धि।के अनुसार, डेनमार्क ने श्लेसविग तथा होलस्टीन की जागीर छोड़ दी तथा अगस्त 1865 के गैस्टीन समझौते के अनुसार होलस्टीन पर आस्ट्रिया तथा श्लेसविग पर प्रशा का अधिकार हो गया. अब बिस्मार्क ने होलस्टीन की जनता को आस्ट्रिया के विरुद्ध उकसाना तथा भड़काना शुरू कर दिया. इसका आस्ट्रिया के द्वारा विरोध किया गया तथा वह मामले को संघीय संसद में ले गया. बिस्मार्क ने आरोप लगाया कि ऐसा करके उसने गैस्टीन समझौते का उल्लंघन किया है. जून 1866 में प्रशा ने होलस्टीन पर हमला कर दिया. आस्ट्रिया ने संघीय संसद से अनुरोध किया कि वह प्रशा के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही करे. प्रशा ने इसके उत्तर में अपने प्रतिनिधि को संघीय संसद से बुला लिया. 16 जून, 1866 को प्रशा-आस्ट्रिया के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया. युद्ध में इटली ने प्रशा का साथ दिया. सेडोवा के में आस्ट्रिया युद्ध की निर्णायक पराजय हुई तथा उसे 23 अगस्त, 1866 को प्राग की सन्धि पर हस्ताक्षर करने पड़े. इस सन्धि के अनुसार, वेनेशिया इटली को मिल गया तथा प्रशा राज्य की सीमाओं में विस्तार हुआ. मेन्ज नदी के उत्तर के जर्मन राज्यों को मिलाकर उत्तर जर्मन राज्य परिसंघ की स्थापना हुई. आस्ट्रिया जर्मनी से बाहर हो गया.

फ्रैंकों-प्रशा के तनावपूर्ण रिश्तों के इस दौर में ही स्पेन की गद्दी के उत्तराधिकार का प्रश्न उठ खड़ा हुआ. नेपोलियन तृतीय नहीं चाहता था कि प्रशा के राजवंश का कोई व्यक्ति स्पेन की गद्दी पर बैठे. यह स्पष्ट हो जाने पर भी कि प्रशा के राजवंश ने स्पेन की गद्दी की दौड़ से अपने को अलग कर लिया है, फ्रांस का राजदूत एम्स (Ems) में प्रशा के राजा से मिला. राजा ने इसकी सूचना तार द्वारा बिस्मार्क को दी. बिस्मार्क ने एम्स टेलीग्राम को इस तरह सम्पादित करके सार्वजनिक किया कि दोनों राज्यों की जनता यह सोचने लगी कि उनका राष्ट्रीय अपमान किया गया है. दोनों तरफ भावनाओं का तीव्र उभार युद्ध के पक्ष में हुआ. अन्ततः जुलाई 1870 में युद्ध आरम्भ हो गया. दक्षिण जर्मनी के राज्य युद्ध में प्रशा के साथ आ गए. सीडान के युद्ध में नेपोलियन तृतीय को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा (सितम्बर 1870). जर्मन सेनाओं ने फ्रांस में प्रवेश किया तथा फ्रांस की राजधानी वर्साय में 18 जनवरी, 1871 को जर्मन साम्राज्य की स्थापना की घोषणा की गई. जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हो गया था.

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