पृथ्वी का स्वरूप, गतियाँ, स्थिति एवं समय की गणना
पृथ्वी का स्वरूप, गतियाँ, स्थिति एवं समय की गणना
मानव प्रारम्भ से ही जिज्ञासु प्राणी रहा है। सभ्यता के विकास के साथ मानव ने आस-पास के पर्यावरण, पृथ्वी और आकाश के बारे में अधिक जानने का प्रयास शुरू कर दिया। प्राचीन काल में समस्त ब्रह्माण्ड को पृथ्वी केन्द्रित माना जाता था तथा पृथ्वी को स्थिर, चपटा या तस्तरीनुमा बताया गया। भारतीय ग्रंथों जैसे वेदों, ‘आर्यभटीय ( आर्यभट द्वारा लिखित ग्रंथ) में पृथ्वी को गोलाकार (खगोल, भूगोल) बताया गया। महान भारतीय खगोल वैज्ञानिक आर्यभट ने पृथ्वी को गेंद की तरह गोल तथा अपने ‘अक्ष पर पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा में भ्रमण करता बताया है। जिससे दिन-रात का निर्माण होता है। आर्यभटशएवं भास्कराचार्य (द्वितीय) ने सूर्य एवं चन्द्र ग्रहणों तथा गुरूत्वाकर्षण के बारे में वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत किये जिनका ज्ञान यूरोपियन को 15-16 शताब्दी में जाकर हुआ था। हालांकि यूरोपीय विद्वानों और अरस्तू ने पृथ्वी को गोलाकार बताया किंतु बाद के विद्वानों ने इस तथ्य को भुला दिया। इसके पश्चात 16वीं शताब्दी में कॉपरनिक्स और गैलीलियो नामक खगोल वैज्ञानिकों ने सूर्य को सौर्य मण्डल के मध्य में बताते हुए,पृथ्वी एवं अन्य सभी आकाशीय पिण्डों को गोल बताया तथा ग्रहों की दैनिक एवं वार्षिक गति पश्चिम से पूर्व दिशा में बताई ।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पृथ्वी गोलाकार (Sphericalin shape) है, जिसे कई प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया जा सकता है जैसे- ग्रहण के समय हमेशा गोल छाया का उभरना, सभी आकाशीय पिण्डों का विभिन्न कोणों से गोल दिखना, सभी आकाशीय पिण्डों का क्षितिज अवस्था (Horizon) में वक्र रेखा में आना, ‘अपोलो एवं अन्य मानव निर्मित उपग्रहों के अध्ययन पश्चात यह सिद्ध हो गया है कि पृथ्वी ‘गोलाकार है परन्तु धुवों पर चपटी होने के कारण इसे ‘चपटा या लध्वक्ष गोलाभ (Oblate Spheroid) रूप में माना जाता है। इसी प्रकार पृथ्वी की परिधि 256 ई.पू. में यूनानी विद्वान इरैटॉस्थनीज ने बड़ी आसान तकनीक अपनाते हुए वर्तमान वैज्ञानिक गणना के बराबर बताई । भारतीय विद्वानों ने भी पृथ्वी की आयु, परिधि, व्यास एवं अर्द्धव्यासआदि भूगणितीय पहलूओं पर अपनी गणनाएँ प्रस्तुत की, जो वर्तमान वैज्ञानिक गणनाओं से बहुत समानता रखती है।
वैज्ञानिक गणनाओं के आधार पृथ्वी के तथ्यों को में प्रस्तुत किया गया है।
पृथ्वी की दो महत्वपूर्ण गतियाँं हैं जिनसे पृथ्वी पर दिन-रात तथा ऋतुऐं बनती हैं ।
दैनिक या धूर्णन गति (Rotation) – पृथ्वी 24 घण्टों में अपने अक्ष पर घूमती है, जिससे दिन- रात बनते हैं। पृथ्वी के सूर्य के सम्मुख वाले भाग पर दिन तथा पिछले भाग पर रात होती है। यह गति पश्चिम से पूर्व दिशा में होती है जिसके कारण सूर्य पूर्व से उदय एवं पश्चिम में अस्त होता है। पृथ्वी के पश्चिम से पूर्व दिशा में धुर्णन के कारण ही सभी नक्षत्रों एवं तारों की भ्रमण दिशा भी पूर्व से पश्चिम दिशा में रहती है। पृथ्वी की इस गति के कारण भूमध्य रेखीय क्षेत्र में अधिक ‘उभार एवं ध्रुवों पर ‘चपटापन’ पैदा हुआ है।(केन्द्रापसारी बल)। इसके अतिरिक्त इस गति के कारण हवाओं और धाराओं की दिशा में बदलाव भी आता है। दैनिक गति या परिभ्रमण की भूमध्य रेखा पर सर्वाधिक गति (1600 कि.मी. प्रति घण्टा) 45 उत्तर एवं दक्षिण अक्षांशों पर (दोनों गोर्लाद्धों में) में गति कम हो जाती है।(1.120 कि.मी. प्रति घण्टा) तथा ध्रुवों पर जाकर लगभग शून्य हो जाती है।
पृथ्वी का ‘अक्ष पृथ्वी की ‘कक्षा’ पथ पर समकोण न बनाकर 23%° झुकाव लिए हुए है। यह 23%° का झुकाव सूर्य की परिक्रमा के समय एक ही दिशा में बना रहता है। पृथ्वी के इस झुकाव के फलस्वरूप उत्तर एवं दक्षिण धुव्र बारी-बारी से सूर्य के सामने आते हैं, जिससे दोनों गोलाद्धों में अलग- अलग ऋतुओं का आनन्द प्राप्त होता है। अगर यह ‘अक्षीय झुकाव’ नहीं होता तो पृथ्वी पर रात-दिन बराबर होते तथा विभिन्न ऋतुओं का बनना भी असम्भव होता।
परिक्रमण (Revolution) – पृथ्वी की दूसरी गति सूर्य के चारों ओर पश्चिम से पूर्व अपनी ‘कक्षा में वार्षिक यात्रा करना है। पृथ्वी की कक्षा लगभग 965 मिलियन कि.मी. लम्बी है जो लगभग 365 दिनों मेंव29.6 कि.मी. प्रति सैकेण्ड की गति से सम्पन्न होती है। पृथ्वी की कक्षा वृत्ताकार न होकर अण्डाकार है जिससे सूर्य और पृथ्वी की दूरी परिक्रमण के दौरान बदलती रहती है। पृथ्वी और सूर्य के मध्य औसत दूरी 150 मिलियन कि.मी. हैं। जब पृथ्थी सूर्य से सर्वाधिक दूरी ( 152 मिलियन कि.मी. ) पर होती है इसे ‘अपसौर (Aphelion) और जब निकटतम दूरी (147 मिलियन कि.मी) पर हो तो इसे ‘उपसौर’ कहा जाता है। ‘उपसौर’ (Perihelion) की स्थिति में पृथ्वी की यात्रा तुलनात्मक रूप से जल्दी सम्पन्न होती है। इसके विपरित अपसौर की स्थिति में परिक्रमण में अधिक समय लगता है। इससे सूर्य-दिवस की अवधि घटती-बढ़ती रहती है। पृथ्वी के परिक्रमण के फलस्वरूप विभिन्न ऋतुओं का बनना सम्भव हो पाता है। पृथ्वी की दोनों गतियों और स्थिति में बदलाव के फलस्वरूप ही पृथ्वी पर सौर ऊर्जा का वितरण निश्चित होता है।
अयनान्त या संक्रान्ति तथा विषुव (Solstices and Equinoxes) –
पृथ्वी के एक भाग पर हमेशा उजाला तथा दूसरे भाग पर अंधेरा रहता है। उजाले एवं अंधेरे भाग को अलग करने वाली रेखा को प्रदीपन या प्रकाश वृत्त (Circle of Illumination) कहा जाता है।
पृथ्वी 21 जून एवं 22 दिसम्बर प्रत्येक वर्ष क्रमश: ग्रीष्म संक्रान्ति एवं शीत संक्रान्ति की स्थिति में होती है। 21 जून एवं 22 दिसम्बर को सूर्य की लम्बवत स्थिति क्रमशः कर्क एवं मकर रेखा पर होती है। पृथ्वी का 23%°अक्ष के झुकाव के कारण दोनों गोलाद्धों में यह स्थिति बनती है। 21 जून को सूर्य के कर्क रेखा पर लम्बवत चमकने के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु तथा इसके विपरित दक्षिण गोलार्द्ध में शीत ऋतु का प्रभाव रहता है। इसके विपरित 22 दिसम्बर को विपरित स्थति होती है। सूर्य की लम्बवत किरणें मकर रेखा पर होती है जिससे दक्षिण गोलार्द्ध में ग्रीष्म एवं उत्तर गोलार्ध में शीत ऋतु की स्थिति होती है । सूर्य की लम्बवत किरणों का प्रभाव कर्क एवं मकर रेखाओं (23%° उ.गो. एवं 23%° द.गो.) के मध्य ही बना रहता है। ये दोनों वर्तन बिन्दु के रूप में कार्य करते हैं। संक्रान्तियों पृथ्वी को गतिशीलता प्रदान करती है तथा सूर्य, तारों और नक्षत्रों की स्थिति में बदलाव भी होता है।यह बदलाव पृथ्वी पर जीवन, मंगल और नयेपन का द्योतक होता है। विश्व के विभिन्न देशों में संक्रान्तियों पर कई उत्सव एवं त्यौहार मनाये जाते हैं। हमारे देश में मकर संक्रान्ति का विशेष महत्व है। पूरे देश में पर्व के रूप में इस बदलाव रूपी दिवस को हर्षोल्लास से मनाया जाताहै। इस दिन सूर्य पूजा तथा तिल-गुड़ का सेवन कियाजाता है ।
अयनान्त या संक्रान्ति की स्थितियाँ
विषुव – जब पृथ्वी पर 21 मार्च और 23 सितम्बर को सूर्य की स्थिति भूमध्य रेखा पर लम्बाकार होती है। इस विषुवीय स्थिति में पृथ्वी पर दिन एवं रात की लम्बाई लगभग बराबर होती है। उत्तरी गोलार्ध में 21 मार्च से वसन्त ऋतु का प्रारम्भ होता है, इसलिए इसे वसन्त विषुव