स्वतंत्रता आन्दोलन में मध्यप्रदेश का योगदान

(2)बुन्देला विद्रोह

मध्यप्रदेश की धरती पर विद्रोह की दूसरी ज्वाला  1840-1842 में धधकी जब बुन्देलखंड में नर्मदा-सागर अंचल के बुंदला, राजपूत, गोंड तथा लोधी राजाओं, जर्मीदारों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का झण्डा उठाया व अंग्रेज सत्ता के खिलाफ युद्ध किया। इनमें मदनपुर के ढिल्लनशाह,हीरापुर के राजा हिरदेशाह, जैतपुर के राजा परिछित तथा चिरगांव के जागीरदार राव बसंत सिंह एवं झीझन के दीवान बुंदेला, क्रांति के नायक थे, लेकिन आपसी एकता का अभाव तथा अंग्रेजों की सैन्य शक्ति के कारण विद्रोह सफल नहीं हो सका ।

1857 की क्रांति में अनेक सेनानियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपने असंतोष को खुलकर अभिव्यक्त किया

संग्राम के प्रमुख सेनानी

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उल्लेखनीय वीर सेनानी तात्या टोपे, ने रानी लक्ष्मीवाई को ग्वालियर पर अधिकार करने में मदद की। रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद भी तात्या टोपे मध्यप्रदेश व अन्य स्थानों पर गुरिल्ला पद्धति से 2 वर्ष तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। एक मित्र के विश्वासघात के कारण तात्या को कैद कर लिया गया और शिवपुरी में फाँसी दे दी गई।

राजा बख्तावर सिंह

अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी प्रजवलित होने में अमझेरा (धार से लगभग 30 कि.मी.) के राजा वख्तावर सिंह मालवा के पहले शासक थे, जिसने कम्पनी के शासन का अंत करने का बीड़ा उठाया था, अंग्रेजों की सेना को राजा ने कड़ी टक्कर दी, किन्तु अपने ही सहयोगियों द्वारा विश्वासघात के कारण बख्ताबर सिंह गिरफ्तार किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें इन्दौर में फाँसी पर चढ़ा दिया।

सआदत खाँ और भगीरथ सिलावट

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इंदौर के सआदत खाँ और भगीरथ सिलावट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का डटकर मुकाबला किया। अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिए जाने पर इन्हें फाँसी दे दी गई । इनका बलिदान उल्लेखनीय है।

राजा शंकर सिंह ओर रघुनाथ शाह

1857 की क्राति में जबलपुर की विशिष्ट भूमिका रही। रानी दुर्गावती के वंशज एवं गोंड़ राजघराने के वृद्ध राजा शंकरशाह व उनके युवा पुत्र र्ुनाथ शाह का बलिदान अविस्मरणीय था इन्हें बहादुर सैनिकों तथा ठाकुरों ने मिलकर अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बगावत करने की योजना का नेता बनाया । दुर्भाग्यवश क्रियान्वयन के पूर्व ही योजना का भंडाफोड़ हो गया, फलस्वरूप अंग्रेजों द्वरा उन दोनों को गिरफ्तार कर रेसीडेन्सी (वतमान कमिशनर कार्यालय) ले जाया गया। मुकदमा चलाने का नाटक करके भारी भीड़ के सामने 18 सितम्बर 1857 को पिता- पुत्र दोनों को तोप के मुँह पर वांधकर उड़ा दिया गया।

ठाकुर रणमत सिंह

1857 में सतना जिले के मनकहरी ग्राम के निवासी ठाकुर रणमत सिंह ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पोलिटिकल एजेंट की गतिविधियों से क्षुब्ध होकर ठाकुर रणमत सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध  अपने साथियों के साथ चित्रकूट के जंगल में सैन्य संगठन का कार्य कर नागीद की अंग्रेज़ रेजीडेन्सी पर हमला कर

दिया। वहा के रेजिडेंट भाग खड़े हुए। ठाकुर रणमत सिंह ने कुछ दिन बाद नौगाव छावनी पर भी धावा बाला एव घोषित बरौधा में अंग्रेज सेना की एक टुकड़ी का सफाया कर डाला। ठाकुर रणमत सिंह पर 2000 रु. को पुरस्कार किया गया। लंबे समय तक अंग्रेजों से संघर्ष करने के पश्चात जब रणमत सिंह अपने मित्र के घर विश्राम कर रह थे, धोखे से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1859 में फाँसी पर चढ़ा दिया।

दिमान देसपत बुन्देला

ये महाराजा छत्रसाल के बंशज थे। दिमान देसपत ने 185S7-58 में अंग्रेजी फौज को कड़ी चुनैतियों दी, उन्हंान तात्या टोपे की मदद के लिए एक हजार बंदुकची भी भेजे थे। देसपत ने अपने बल से शाहगढ़ रियासत के फतहपुर के इलाके पर भी कब्जा कर लिया था। देसपत की शक्ति इतनी बही हुई थी कि ब्रिटेश सरकार ने उन्हें पकड़न के लिए 5000 रु. का इनाम घोषित कर रखा था। लंबे संघर्ष के बाद सन 1862 में नौगाँव के कुछ मील दूर पर वार देसपत बुदेला मारे गए।

महादेव शास्त्री

गवालियर के महादेव शास्त्री एक प्रखर राष्टरभक्त थे, जिन्होंने शस्त्र तो नहीं उठाए लेकिन नाना साहब पेशवा को दिए गए सहयोग के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया। महादेव शास्त्री ने ग्वालियर में तात्या टोपे के पक्ष में वातावरण तैयार किया। नाना साहब पेशवा का पत्रवाहक बनकर क्रांति की जानकारी अन्य सेनानियों तक पहुँचाई। अंग्रेज सरकार ने महादेव शास्त्री की गतिविधियों को देखते हुए उन्हें गिरपतार कर फाँसी दे दी। अमीरचन्द वाढिया को भी फाँसी दी गई।

बड़वानी के खाज्या (काजा) नायक और भीमा नायक

मालवा और निमाड क्षेत्र के भील स्वतंत्रता प्रेमी थे। ंग्रेजों ने उन्हें दबाने के लिए ‘ भील कोर’ नाम की

एक सैनिक टुकड़ी बना रखी थी। खाज्या और भीमा, भील कोर में नायक के पद पर कार्थरत थे। अंग्रजों की दमनात्मक नीति के विरुद्ध इन दोनों ने भी सन् 1857 के संग्राम में अपनी विद्रोहात्मक गतिविधियाँ तेज कर दीं। इनसे परेशान होकर अंग्रजों ने इन्हें पकड़ने के लिए सघन अभियान चलाया। खाज्या को 1860 में धोखे से मार दिया गया, जबकि भीमा नायक ने संघर्ष जारी रखा। सन् 1867 में उसे भी धोखे से बंदी बना लिया गया। उपरोक्त के अतिरिक्त 1857 की क्रांति में मध्यप्रदेश के सेवड़ा (दतिया) के राव खलकसिंह दौआ, राघ्ोगढ (देवास ) के दौलत सिंह, भोपाल के वारिस मोहम्मद अली खाँ, अम्बापानी (भोपाल) के नवाब आदिल मोहम्मद खाँ और फाज़िल मोहम्मद खाँ, सोहागपुर (शहडोल) के गरूल सिंह इत्यादि की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

टंट्या भील

1857 की महासमर के बाद मध्यप्रदेश के पश्चमी, निमाड़ में टंट्या भील ब्रिटिश सरकार के लिए आतंक का पर्याय था। उसके साथी दोपिया और बिजनियाभी उसकी क्रॉतिकारी गतिविधियों में सहभागी थे। वर्षों तक जनजीवन में घुले-मिले रहकर गुप्त ढंग से क्रान्तिकारा कार्यवाहियों करते रहकर उसने ब्रिटिश सरकार को कंपा दिया था। धोखे और षड्यंत्रपूर्वक अग्रेजों ने टेट्यां की गिरफ्तार किया और नवम्वर 1886 में फाँसी पर लटका दिया। भीलों के बीच आज भी टंट्या प्रेरणास्वरूप मौजूद है ।

 राष्ट्रीय आंदोलन में मध्यप्रदेश का योगदान

मध्यप्रदेश, में राष्ट्रीय आंदोलन की सभी धाराएँ संघर्पशील रही। यहाँ के वनवासियों ने आजादी के महायज्ञ में अपनी आहुति दी, यहाँ की रियासतों की जनता ने और कई खुद्दार राजपरिवारों ने पराधीनता की बेड़ियों को काटने के लिए सर्वस्व दाँव पर लगाया, यहाँ के रजवाडों की प्रजा को दोहरी गुलामी को उतार फेंकने के लिए जूझना पड़ा, यहाँ के किसानों ने लड़ाई लड़ी, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, जंगल सत्याग्रह और 1942 की जन क्क्रांति में मध्यप्रदेश की सक्रिय भागीदारी रही। चन्द्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र अगर ओरछा था, तो मगनलाल बागड़ी की हिन्दुस्तानी लाल सेना ने इसी धरती पर सशस्त्रस संग्राम छेड़ा था।

लोकमान्य तिलक, राष्पिता महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राष्ट्र नायक जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, देशरन् डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ अंसारी, मौलाना आजाद आदि महापुरुषों ने मध्यप्रदेश के स्वातंत्र्य समर को प्रेरित किया। पं. रविशंकर शुक्ल, पं. सुन्दरलाल शर्मा, द्वारका प्रसाद मिश्र, ठाकुर निरंजन सिंह, सेठ गोविन्ददास, हरिविष्णु कामथ, ठाकृर प्यारेलाल, ई. राघवेन्द्र राव, महंत लक्ष्मी नारायणदास, सुभद्रा कुमारी चौहान, वामनराव लाखें, धनश्याम सिंह गुप्र, भाई अव्दुल गनी, विष्णुदत्त शुव्ल, ब्यौहार राजेन्द्र, काशीप्रसाद पाण्डे, चौ. शकरलाल दुबे, नारायण राव मेघावाले, कक्तान अवधेश प्रताप सिंह, लाल यादवेन्द्रसिंह, राजभानु् सिंह तिवारी, लालराम वाजपेयी, चत्र्भुज पाठक, बृजलाल वियाणी, श्यामनारायण कश्मीरी, गोपीकृष्ण विजयवगीय, लीलाधर जोशी, श्यामलाल पांडवीय, जगन्नथ प्रसाद मिलिन्द, मुरलीधर धूले, वकील रा.मो. करकरे, कृष्णकांत व्यास, मिश्रीलाल गंगवाल, कन्हैयालाल वैद्य, मास्टर लाल सिंह, शंकर दयाल शर्मा, बैजनाथ महीदय, कन्हैयालाल खादीवाला, दुर्गशिंकर मेहता और अन्य अनेक अग्रणी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने मध्यप्रदेश में यत्र-तत्र सर्वत्र आजादी की अलख जगाई, आंदोलन का संचालन और नेतृत्व किया।

असहयोग आंदोलन

भोपाल, ग्वालियर, इन्दीर जैसी वड़ी-बड़ी रियासतों के अतिरिक्त छोटी रियासतों में भी असहयोग आन्दोलन के समय बड़ा उत्साह देखा गया। इस अवसर पर गांधीजी ने छिंदवाड़ा, जबलपुर, खण्डवा, सिवनी का दौरा किया। इस दौरे ने जनता में अभूतपूर्व राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।असहयोग आन्दोलन में मध्यप्रदेश की जनता ने शराब बन्दी, तिलक स्वराज्य फण्ड, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, सरकारी शिक्षण संस्थाओं का त्याग कर राप्ट्रीय शिक्षा संस्थाओों की स्थापना, हथकरघा उद्योग की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण कारयों में अपना योगदान दिया। वकीलों ने वकालत त्याग दी। जो वकील न्यायालय जाना चाहते थे, उन्होंने गांधी टोपी पहनकर न्यायालयों में प्रवेश किया। जिला समितियों ने शासकीय आज्ञाओं की अवहेलना कर भवनों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये । जिससे लोगों की भय एवं आधीनता की मनोवृत्ति दूर हुई। इस आन्दोलन के समय साम्प्रदायिक सद्भावना की अभूतपूर्व मिसालें यहाँ देखने को मिलीं।

झंडा सत्याग्रह (1923 )

राष्ट्रीय ध्वज किसी राष्ट्र की सम्प्रभुता, अस्मिता और गौरव का प्रतीक होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिना में चरखा युक्त तिरंगे झण्डे को यह दर्जा प्राप्त रहा है, 1923 में इस ध्वज की आन-बान-शान का लकर एक एसा प्रसंग उपस्थित हो गया जिसमें न केवल राट्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्पूर्ण राष्ट् की श्रद्धा और निष्ठा को मुखर अभिव्यक्ति हुई, बल्कि औंग्रेजी हुकृमत तक को उसे मान्य करने पर विवश होना पड़ा। इतिहास के इस स्वणम अध्याय को ‘झण्डा सत्याग्रह’ के नाम से जाना जाता है। असहयोग आंदोलन की मानसिक तैयारी की पड़ताल के लिए गठित कांग्रेस की समिति जबलपुर आई, हकीम अजमल खां उसके नेता थे। जबलपुर काग्रेस कमटा ने तय किया कि खाँ साहेव को अभिनन्दन पत्र भेंट किया जाएगा और जबलपुर नगरपालिका भवन पर राष्ट्रय तिरंगा ध्वज फहराया जाएगा। यह सम्मांन गोरे डिप्टी कमिश्नर को व्रटिश हकृमत का अपमान और चुनौती देता हुआ प्रतात हुआ और वह भड़क उठा। उसने पुलिस को हक्म दिया कि तिरंगे इझण्डे को न केवल उतार दिया जाये बल्कि पैरों से कुचला जाये, जिसका परिणाम स्वाभाविक रूप से तीव्र जनाक्रोश के रूप में फूटा और आदिलिन आरम्भ हो गया, जिसने कुछ ही महीनों में अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर लिया। अंग्रेज हुकूमत को अपमानजनक कार्यवाही के विरोध में पं. सुन्दरलाल , सुभद्रा कुमारी चौहान, नाथूराम मोदी, नरसिंह दास अग्रवाल, लक्ष्मणसिंह चौहान तथा कुछ अन्य स्वयंसेवकों ने झण्डे के साथ जुलूस निकाला । पुलिस ने जुलूस को आगे बढुन से रोक दिया और सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। पं. सुन्दरलाल पर मुकदमा चला और उन्हें छ: माह के कारावास की सजा दी गई । नगरपालिका जबलपुर के सभी सदस्यों ने विरोध स्वरूप सामूहिक इस्तीफा दे दिया। झण्डा सत्याग्रहियों की पहली टोली की गिरफ्तारी के बाद दूसरे जत्थे ने, जिसमें प्रेमचन्द्र, सीताराम जाघव, छिग्गेलाल स्वर्णकार, टोडरलाल थे, टाउन हाल पर झण्डा फहरा दिया। झण्डा आंदोलन नागपुर तथा देश के अन्य भागों में पैला था।

 सविनय अवज्ञा आअंदोलन

दुरिया जंगल संत्याग्रह 1930 में जब गांधीजी ने दांडी मार्च कर नमक सत्याग्रह किया था, तब सिवनी के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने दुर्गाशंकर मेहता के नेतृत्व में जंगल सत्याग्रह चलाया। सिवनी से 9-10 मील दूर सरकारी जंगल चंदन बगीचों में घास काटकर यह सत्याग्रह किया जा रहा था। इसी सिलसिले में 9 अक्टूबर, 1930 को सिवनी जिले के ग्राम

दुरिया, जोकि सिवनी से 28 मील दूर स्थित है, में सत्याग्रह की तारीख निश्चत हुई । कुछ स्वयंसेवक घास काटकर सत्याग्रह करने गए। पुलिस दरोगा और रंजर ने सत्याग्रहियों का समर्थन करने आए जनसमुदाय के साथ बहुत अभद्र व्यवहार किया जिससे जनता उत्तिजित हो उठी । सिवनी के डिप्टी कमिश्नर के इस हुक्म पर कि ‘”टीच देम ए लैसन ‘ पुलिस ने गोली चला दी। घटनास्थल पर ही तीन महिलाएँ- गुड्डों दाई, रेना बाई, बेमा बाई और एक पुरुष विरजू गोंड शहीद हो गए, चारों शहीद आदिवासी थे। इस घटना से मध्यप्रदेश के गिरिजन समुदाय में भी स्वतंत्रता की ज्योति प्रज्वलित होने का पुष्ट प्रमाण मिलता है। इन शहीदों के शब भी अंतिम संस्कार के लिए इनके परिवार वालों को नहीं दिए गए।

घोड़ा-डोंगरी का जंगले सत्याग्रह

आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिला स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा है और यहाँ के बनवासियों ने पराधीनता के विरूद्ध संघर्ष किया। 1930 के जंगल सत्याग्रह के समय बैतूल के आदिवासी समुदाय ने विद्रोह की मशाल थाम ली थी शाहपुर के समीप वंजारी ढाल का गंजन सिंह कोरकू विद्रोही आदिवासियों का नेता था । जब पुलिस गंजन सिंह को गिरिफ्तार करने बंजारी ढाल पहुँची तो आदिवासियों ने प्रवल प्रतिरोध खड़ा कर दिया । वनवासी समुदाय पर पुलिस ने गोलियाँ बरसाई, जिसमें कोमा गोंड चटनास्थल पर ही शहीद हो गया। गंजन सिंह पुलिस का घेरा तोड़कर निकल गया। उधर जम्बाड़ा में पुलिस की गिरफ्त से आदिवासियों को मुक्त कराने के लिए एकजुट भीड़ पर पुलिस के ब्बर बल प्रयोग में रामू तथा मकड़ गौड शहीद हो गये।

चरण पादुका गोलीकांड

14 जनवरी, 1931 को मकर संक्रांति के दिन छतरपुर रियासत में उर्मिल नदी के किनारे चरण पादुका में स्वतंत्रता सेनानियों की एक विशाल सभा चल रही थी। काफी संख्या में लोग इकट्ठे हुए थे। नौगांव स्थित अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट के हुक्म पर बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चला दी गई, जिसमें अनेक लोग मारे गए। मध्यप्रदेश का जालियाँवाला बाग कहे जाने वाले इस लोमहर्षक कॉंड में अग्रेज सरकार ने छः स्वतंत्रता सेनानी-सेठ सुन्दरलाल, धरमदास खिरव, चिरकृ, हलके कुर्मी, रामलाल कुर्मी और रघुराज सिंह का पुलिस गोली से शहीद होना स्वीकारा।

भारत छोड़ो आन्दोलन

मौलाना मोहम्मद बरकतउझाह अगस्त 1942 में देश के राजनीतिक रंगमंच पर ‘भारत छोड़ो’ नामक ऐतिहासिक आन्दोलन की शुरुआत हुई। 8 अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव बम्बई में होने वाली अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने पारित किया। 9 अगस्त को गांधीजी सहित सारे बड़े नेता बन्दी बनाये जा चुके थे । ऐसी स्थिति में पंडित रविशंकर शुक्ल, द्वारकाप्रसाद मिश्र सहित मध्यप्रदेश के सभी बड़े नेता दमन के नग्र तांडव का सामना करने के लिए अपने प्रदेश वापस लौट आये। प्रत्येक नगर, तहसील और ग्राम में जनता ने अपने-आपको संगठित किया और संघर्ष का सूत्रपात किया। बैतूल जिले में आन्दोलन ने उয्र रूप धारण किया। पुलिस ने गोली चलाकर दमन का प्रयास किया। मंडला, सागर, होशंगाबाद, डिंदवाड़ा, जबलपुर आदि स्थानों पर जनता ने शासकीय कार्यालयों पर हमला कर अभिलेखों को विनट्ट किया, रेल, तार के परिवहन-साधनों को छिन्र-भिन्न कर दिया। पुल्िस ने यहाँ दमनकारी नीति अपनाई।

जबलपुर में सेठ गोविन्द दास बन्दी बना लिये गये। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप आन्दोलन और तेज हुआ। खण्डवा, खरगौन, नरसिंहपुर, दमोह, बालाघाट सहित सभी स्थानों पर नागरिकों ने वढ़ -चढ़कर आन्दोलन में भाग लिया। 9 अगस्त, 1942 को कांग्रेस नेताओं की गिरप्तारी के विरोध में जबलपुर की तिलक भूमि तलैया में सभा रखी गई जिसमें एक सप्षाह तक हड़ताल रखने का फैसला लिया गया। ग्यारह अगस्त को फुहारे पर सत्याग्रहियों पर पुलिस ने लाठियाँ बरसाई, इससे आंदोलन उग्र हो गयथा। 14 अगस्त को फुहारे से निकलने वाले जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई युवक गुलाब सिंह इस हादसे में शहीद हुआ। 12 अगस्त को बैतूल जिले के प्रभात पट्टन में बाजार लगा हुआ था, जिसमें आसपास के गाँवों के लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए थे, पुलिस वाले भी थे।

भारत छोड़ो आन्दोलन की उमंग में लोगों ने तय कर लिया कि पुलिस वालों की वर्दीं उतार कर उन्हें खादी के कपड़े पहनने के लिए विवश कर दिया इसी बीच मुलताई से पुलिस के और जवान आ पहुँचे, जिन्होंने जुलूस पर गोली चला दी, जिसमें महादेव तेली स्वतंत्रता की वेदी पर बलिदान हो गया। रीवा राज्य के अन्तर्गत सतना जिले के कृपालपुर ग्राम में विद्यार्थी यूनियन के तत्वावधान में निकले जुलूस पर जब पुलिस ने गोलियाँ वरसाई तब लाल पद्मधर सिंह राष्ट्रीय झण्डा हाथ में लिए सीना तान कर खड़े हो गए। गोली से वे वीरगति को प्राप्त हुए।

15 अगस्त, 1942 को मण्डला में एक बड़ा जुलूस निकाला गया जो जिलाधीश कार्यालय जाने वाला था, लेकिन हथियारबंद पुलिस ने जुलूस को रोक दिया और तब उसी स्थान पर सभा होने लगी, जिसे मन्रूलाल मोदी और मथुराप्रसाद यादव ने सम्बोधित किया। इसके बाद मैट्रिक के छात्र उदयचंद जैन ने सभा की बागडोर सँभाली पुलिस ने सभा को तितर-वितर करने के लिए बर्बर लाठी प्रहार किया और हवा में गोलियाँ चलाई। जब प्लिस को बर्बरता पर ऐतराज किया गया तो मजिस्ट्रेट ने गोली चलवा दी और वीर बालक उदयचंद शहीद हो गए। 1942 में बैतृूल जिले के घोड़ाडोंगरी – शाहपुर क्षेत्र के आदिवासी सेनानियों का एक बड़ा समूह 19 अगस्त,1942 को विष्णु गोंड के नेतृत्व में घोड़ाडोंगरी रेल्वे स्टेशन के पास इकट्ठा हुआ। गाड सरदार विष्णु ने जंगल- जंगल घूम कर इन आदिवासियों को प्रेरित और एकज़ुट किया था। इस आदिवासी समृह ने रेल की पटरियाँ उखाड़ी, पुलिस थाने और घोड़ाडोंगरी रेल्वे स्टेशन के पीछे ्थित लकड़ी के विशाल डिपो को आग के हवाले कर दिया। पुलिस और वन अधिकारी घटनास्थल पर आए। पुलिस ने बिना चेतावनी दिए गोलियों की बछार कर दी। वीरसा गोंड घटनास्थल पर ही शहीद हो गया और जिराँ गांड की मृत्यु बाद में कारावास में हुई। अंग्रेजी हुकूमत ने यहाँ आदिवासियों पर काफी जुल्म किए।

৪ अगस्त, 1942 को बापू द्वारा दिया गया “करो या मरो’ का संदेश समूचे भारतवर्ष को उद्देलित कर रहा था, गाडरवारा के समीप ग्राम चीचली में 21 अगस्त को एक सभा हुई जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ जोशीले भाषण दिए गए। पुलिस ने नर्मदा प्रसाद और वाबूलाल को गिरपतार कर लिया। इससे जनता उत्तेजित हो गई। 23 अगस्त को जब भारी भीड़ चीचली ग्राम में इकट्ठी थी, पुलिस ने बेरहमी से गोलीबारी की जिसमें मंशाराम और गौराबाई शहीद हो गए। नरसिंहपुर जिले के मानेगाँव के ठाकर रुद्रप्रताप सिंह जिन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान 1940 में गिरफ्तार किया गया था, जेल में ही वे शहीद हो गये।

1942 में इन्दौर के सर्राफा में सत्याग्रह के दौरान प्लिस ने पहले तो लाठी चार्ज किया और जब स्वतंत्रता के अभिलाषियों का मनोबल नहीं तोड़ा जा सका तब गोलियों की बौछार कर दी। इन्दौर रियासत में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पुलिस का रुख दमनकारी रहा। लाठीचार्ज और गोली चालन के बावजूद इन्दौर में सभाएँ हुयी और जुलूस निकले। प्रजामण्डल ने भारत छोड़ो आन्दोलन को समर्थन दिया। रतलाम, धार, वदनावर, धामनोद, झाबुआ आदि स्थानों पर उग्र प्रदर्शन हुए। ग्वालियर रियासत में ‘सार्वजनिक सभा’ ने भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रस्ताव का समर्थन कर, विदिशा भोपाल रियासत में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित कर बांटा गया। इस कारण शाकिर अली खाँ तथा अन्य रीवा विन्ध्यक्षेत्र में के आव्हान पर चावल आन्दोलन में अनेक लोगों ने सम्मेलन में उत्तरदायी शासन की माँग की। अनेक नेता बन्दी बनाए गए। नेताओं को बन्दी बनाया गया । सीहोर, रायसेन आदि स्थानों पर आन्दोलन हुये। भाग लिया और गिरफ्तारियां दी । संक्षेप में मध्यप्रदेश का ऐसा कोई भी क्षत्र नहीं था, जहाँ आन्दोलन न हुआ हो। सरकार ने भी आन्दोलन का दमन सभी उपलब्ध साधनों तथा शक्ति से किया। सरकार का दमन-चक्र जब तेज हुआ, भूमिगत आन्दोलन आरम्भ हुआ। सरकार चाहती थी कि आन्दोलन के दौरान हुई हिंसा की गांधीजी निन्दा करें परन्तु गांधीजी ने जनता के उग्र प्रदर्शनों के लिए सरकार की उत्तेजक कार्यवाहियों को दोषी बताया । इसकी प्रतिक्रियास्वरुप मध्यप्रदेश में हड़तालों, सभाओं और प्रदर्शन के माध्यम से अपना विरोध दर्ज किया गया।

प्रजामण्डल

रियासतों के विलीनीकरण आन्दोलन

1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहा परन्तु इस आन्दोलेन ने ब्रिटिश सरकार और देशी रियासतों के शासकों को यह आभास करा दिया कि स्वाधीनता की माँग की उपेक्षा अधिक समय तक नहों की जा सकती। 1946 में भारत की अन्तरिम सरकार बन जाने के बाद रियासतों में उत्तरदायी शासन की माँग ने जोर पकड़ा। रियासतों को यह अधिकार था कि ब्रिटिश सार्वभौमिकता और प्रभुसत्ता समाप्त होने पर वे किसी भी अधिराज्य में सम्मिलित हो सकते हैं परन्तु प्रजा मण्डलों के आव्हान पर रियासतों की जनता ने उत्तरदायी शासन की माँग के लिए आन्दोलन किए। यह आन्दोलन तभी समाप्त हुए, जब रियासत के शासकों ने विलीनीकरण समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये।

टीकमगढ़ जिले की बम्होरी में रियासती निरंकश शासन से मक्ति और लोकप्रिय शासन की स्थापना लिए आन्दालन हैतु अलख जगा रहे स्वतंत्रता सेनानी नारायण दास खरे को सामंती तत्वों ने तब मरवां डाला।

  • नमक सत्याग्रह के समय सेठ गोविन्ददास व पंडित द्वारिका प्रसाद ने जबलपुर में नमक का कानून तोड़ा।सन् 1942 के आंदोलन में भी जबलपुर में हड़ताल रखी गईं और जुलूस निकाले गए । सन् 1945 में जबलपुर में स्थित भारतीय सिगनल कोर के जवानों ने बम्बई की रायल इण्डियन नेवी के विद्रोह की सहानुभूति के पक्ष में हड़ताल की और अपनी बेरकें छोड़कर बड़ा जुलूस निकाला।

राष्ट्रीय आन्दोलन के समय मध्यप्रदेश की शासन व्यवस्था

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