स्वतंत्रता आन्दोलन में मध्यप्रदेश का योगदान

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के फलस्वरूप राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि मध्यप्रदेश में तैयार हो चुकी थी। अंग्रेज़ों की कुटिल राजनीति के विरुद्ध 1857 के पहले भी मध्यप्रदेश के कुछ राजाओं ने विद्रोह का झंडा उठाया था। इनमें से दो विद्रोह मुख्य रूप से उल्लेखनीय हैं, 

(1)राजकुमार चैनसिंह का विद्रोह-

नरसिंहगढ़ के राजकुमार चैनसिंह को अग्रेज़ों की सीहोर छावनी के पोलिटिकल एजेंट मैडाक ने अपमानित किया। इस पर चैनसिंह ने अग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया। सीहोर के वर्तमान तहसील चौराहे पर चैनसिंह तथा अंग्रेजों के बीच सन् 1824 में भीषण लड़ाई हुई। अपने मुट्ठीभर वीर साथियों सहित अंग्रेजी सेना से मुकाबला करते हुए चैनसिंह सीहोर के दशहरा बाग वाले मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए।

(2)बुन्देला विद्रोह

मध्यप्रदेश की धरती पर विद्रोह की दूसरी ज्वाला  1840-1842 में धधकी जब बुन्देलखंड में नर्मदा-सागर अंचल के बुंदला, राजपूत, गोंड तथा लोधी राजाओं, जर्मीदारों ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का झण्डा उठाया व अंग्रेज सत्ता के खिलाफ युद्ध किया। इनमें मदनपुर के ढिल्लनशाह,हीरापुर के राजा हिरदेशाह, जैतपुर के राजा परिछित तथा चिरगांव के जागीरदार राव बसंत सिंह एवं झीझन के दीवान बुंदेला, क्रांति के नायक थे, लेकिन आपसी एकता का अभाव तथा अंग्रेजों की सैन्य शक्ति के कारण विद्रोह सफल नहीं हो सका ।

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम व मध्यप्रदेश 

1857 की क्रांति में अनेक सेनानियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपने असंतोष को खुलकर अभिव्यक्त किया

था। इस संघर्ष में स्थानीय राजाओं, जागीरदारों, ताल्लुकदारों और मालगुजारों के साथ आम जनता ने भी भाग लिया। स्थानीय बड़ी रियासतों के असहयोग, साधनों की कमी, निम्नतर शस्त्र और बिखरी हुई ताकत के बावजूद अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ यह संघर्ष कई माह चला। आदिवासियों ने भी इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। सागर, जबलपुर,नरसिंहपुर जिलों में कितने ही गोंड मालगुजारों और जागीरदारों ने विद्रोह में हिस्सा लिया। बड़वानी के भील नायक भी पीछे नहीं रहे और इन सभी को आम जनता का सहयोग प्राप्त हुआ ।

सन् 1818 में लार्ड हैंस्टिंग्ज के काल में अंग्रेजों ने मराठा शक्ति को पूर्णतया कुचल दिया था। मराठों के अधिकार वाले, मध्यप्रदेश के विभिन्न भाग भी अंग्रेजों के हाथ में आ गए। अग्रेजों ने नये प्रकार की भूमि व्यवस्था लागू की। होशंगावाद, सिवनी, नरसिंहपुर, दमोह, सागर तथा नर्मदा घाटी के क्षेत्रं में लोगों के साथ निष्ठुरता का व्यवहार किया गया। बढ़ी हुई मालगुजारी चुकाना किसानों को असंभव हो गया तथा ब्रिटिश अधिकारियों ने अत्याचार करना शुरू कर दिया। आम जनता में भीषण असंतोष उत्पन्न हआ। 1857 की क्रांति के समय इस असंतोष का भारी विस्फोट हुआ। भारत के अन्य प्रदेशों के समान ही मध्यप्रदेश में भी उस समय छोटी- छोटी अनेक रियासते थीं। कुछ रियासतों के राजा व नवाब तो अंग्रेजों के प्रति स्वामिभक्ति रखते थे, लेकिन उनकी सेना के सिपाही क्रांति की खबर सुनकर अपने साथियों को मदद के लिए तत्पर हो उठे थे। क्रॉंति के मुख्य केन्द्र- ग्वालियर, भोपाल, इंदौर थे। जिन शहरों और गाँवों में क्रांति की ज्वाला तेजी से भड़की वो स्थान थे- सागर, जबलपुर, नरासिंहपुर, होशंगाबाद, नौगाँव, ग्वालियर, झाँसी, शिवपुरी, भोपाल, नीमच, इन्दौर, महिदपुर, मन्दसौर अदि ।

संग्राम के प्रमुख सेनानी

स्वतंत्रता संग्राम में मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों से स्वतंत्रता सेनानियों ने भाग लिया। इस प्रकार शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र रहा हो जहाँ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मौजूद न रहे हों। हर क्षेत्र, हर स्थान के लोगों ने बढ़-चढ़ कर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इस राष्ट्रीय संग्राम में भाग लिया, जिनके अमूल्य बलिदान के फलस्वरूप ही आज हम आजादा के माहोल में साँस ले रहे हैं। यद्यपि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी प्रदेश की सीमाओं में न बंधकर राप्ट्र को सर्वोपरि मानते रहे है, अतएवं उन्हें प्रदेश की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। यहाँ जिन प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का उल्लेख किया गया है, उनका मध्यप्रदेश के किसी-न-किसी स्थान से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान रहा है। सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाने वाली रानी लक्ष्मीबाई झाँसी की रहने वाली थी, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्ध मध्यप्रदेश में लड़ते हुए अग्रेजों को कड़ी चुनौतियाँ दीं व पराजित भी किया। तात्या टोपे की मदद से उन्होंने ग्वालियर किले पर अधिकार कर लिया था। अंग्रेज सेनापति ह्वारोज ने जब ग्वालियर को चारों ओर से घेर कर आक्रमण किया, रानी लक्ष्मीबाई बहुत वीरता से लड़ीं, 18 जून 1858 को ग्वालियर किले के पास युद्ध करते हुए बाबा गंगादास के बगीचे में वीरगति को प्राप्त हुई। रानी का शरीर अंग्रेजों के हाथ न लगे इसीलिए गंगादास को कुटिया के पास रखी घास की गंजियों में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। रानी का पीछा करते हुए अंग्रेजों की सेना ने आश्रम को तहस-नहस कर दिया। बाबा गंगादास के सहयोगी करीब दो-तीन सौ साधु सन्यासी इस संघर्ष में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए। रानी लक्ष्मीबाई का समाधि स्थल ग्वालियर में है। अंग्रेज जनरलों ने भी उनका लोहा मानते हुए उन्हें ‘ सर्वाधिक पौरुषवाली’ कहकर उनकी वीरता को सम्मान दिया।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उल्लेखनीय वीर सेनानी तात्या टोपे, ने रानी लक्ष्मीवाई को ग्वालियर पर अधिकार करने में मदद की। रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद भी तात्या टोपे मध्यप्रदेश व अन्य स्थानों पर गुरिल्ला पद्धति से 2 वर्ष तक अंग्रेजों से लड़ते रहे। एक मित्र के विश्वासघात के कारण तात्या को कैद कर लिया गया और शिवपुरी में फाँसी दे दी गई।

वीरांगना रानी अवंतीबाई

मंडला जिले के वीर सेनानियों में रामगढ़ की रानी ने भी अपनी मातृभूमि के प्रति जिस प्रेम तथा शौर्य का प्रदर्शन किया था, उसके कारण उनका स्थान हमारे देश की महानतम वीरांगनाओं में है। रामगढ़ मंडला जिले की पहाड़ियों में स्थित एक छोटा-सा नगर है। सन् 1850 में रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र बिक्रमाजीत सिंह के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कारण शासन के अयोग्य समझते हुए अंग्रेज सरकार ने शासन प्रबंध अपने हाथ में ले लिया और वहाँ अपना एक अधिकारी नियुक्त कर दिया व राज परिवार के भरण-पोषण के लिए वार्षिक वृत्ति बाँध दी। रानी अवंतीबाई अत्यंत योग्य एवं कुशल महिला थी, जो राज्य का योग्य प्रबंधन व संचालन कर सकती थी, लेकिन उस समय अंग्रेजों की हड़प नीति चरम सीमा पर थी। रानी ने अपना विरोध प्रकट करते हुए रामगढ़ से अग्रेज़ो द्वारा नियुक्त अधिकारी को निकाल भगाया और राज्य का शासन सूत्र आपने हाथ में ले लिया। साथ ही उसने जिले के ठाकुरों और मालगुजारों से समर्थन हेतु सम्पर्क स्थापित किया। पड़ोस के अनेक जमींदारों ने उन्हें  सहायता देने का वचन दिया। रानी, सैनिक वस्त्र धारण कर हाथ में तलवार लेकर स्वयं अपने सैनिकों का रणक्षेत्र में नेतृत्व करती थी। अप्रैल 1858 को अंग्रेजों की सेना ने रामगढ़ पर दोनों और से आक्रमण किया, जिस कारण रानी और उनकी सेना ने अपनी शक्ति और स्थिति को देखते हुए किला खाली कर दिया और पास के जंगल में चलीं गई। वहाँ से रानी अंग्रेजों पर निरंतर आक्रमण करती रहीं, परन्तु इनमें से एक आक्रमण घातक सि्ध हुआ । जब उन्होंने देखा कि वह घिर गई और उसका पकड़ा जाना निश्चित है, वीरांगनाओं की गौरवशाली परम्परा के आनुरूप बंदी होने की अपेक्षा मृत्यु को श्रेष्ठ समझा और क्षणमात्र में घोड़े से उतर कर अपने अंगरक्षक के हाथ से तलवार छीनकर उसे अपनी छाती में घोंप कर हँसते- हँसते मातृभूमि के लिए बलिदान हो गईं ।

राजा बख्तावर सिंह

अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी प्रजवलित होने में अमझेरा (धार से लगभग 30 कि.मी.) के राजा वख्तावर सिंह मालवा के पहले शासक थे, जिसने कम्पनी के शासन का अंत करने का बीड़ा उठाया था, अंग्रेजों की सेना को राजा ने कड़ी टक्कर दी, किन्तु अपने ही सहयोगियों द्वारा विश्वासघात के कारण बख्ताबर सिंह गिरफ्तार किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें इन्दौर में फाँसी पर चढ़ा दिया।

सआदत खाँ और भगीरथ सिलावट

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इंदौर के सआदत खाँ और भगीरथ सिलावट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का डटकर मुकाबला किया। अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिए जाने पर इन्हें फाँसी दे दी गई । इनका बलिदान उल्लेखनीय है।

राजा शंकर सिंह ओर रघुनाथ शाह

1857 की क्राति में जबलपुर की विशिष्ट भूमिका रही। रानी दुर्गावती के वंशज एवं गोंड़ राजघराने के वृद्ध राजा शंकरशाह व उनके युवा पुत्र र्ुनाथ शाह का बलिदान अविस्मरणीय था इन्हें बहादुर सैनिकों तथा ठाकुरों ने मिलकर अंग्रेजी सेना के विरुद्ध बगावत करने की योजना का नेता बनाया । दुर्भाग्यवश क्रियान्वयन के पूर्व ही योजना का भंडाफोड़ हो गया, फलस्वरूप अंग्रेजों द्वरा उन दोनों को गिरफ्तार कर रेसीडेन्सी (वतमान कमिशनर कार्यालय) ले जाया गया। मुकदमा चलाने का नाटक करके भारी भीड़ के सामने 18 सितम्बर 1857 को पिता- पुत्र दोनों को तोप के मुँह पर वांधकर उड़ा दिया गया।

ठाकुर रणमत सिंह

1857 में सतना जिले के मनकहरी ग्राम के निवासी ठाकुर रणमत सिंह ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया। पोलिटिकल एजेंट की गतिविधियों से क्षुब्ध होकर ठाकुर रणमत सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध  अपने साथियों के साथ चित्रकूट के जंगल में सैन्य संगठन का कार्य कर नागीद की अंग्रेज़ रेजीडेन्सी पर हमला कर

दिया। वहा के रेजिडेंट भाग खड़े हुए। ठाकुर रणमत सिंह ने कुछ दिन बाद नौगाव छावनी पर भी धावा बाला एव घोषित बरौधा में अंग्रेज सेना की एक टुकड़ी का सफाया कर डाला। ठाकुर रणमत सिंह पर 2000 रु. को पुरस्कार किया गया। लंबे समय तक अंग्रेजों से संघर्ष करने के पश्चात जब रणमत सिंह अपने मित्र के घर विश्राम कर रह थे, धोखे से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1859 में फाँसी पर चढ़ा दिया।

दिमान देसपत बुन्देला

ये महाराजा छत्रसाल के बंशज थे। दिमान देसपत ने 185S7-58 में अंग्रेजी फौज को कड़ी चुनैतियों दी, उन्हंान तात्या टोपे की मदद के लिए एक हजार बंदुकची भी भेजे थे। देसपत ने अपने बल से शाहगढ़ रियासत के फतहपुर के इलाके पर भी कब्जा कर लिया था। देसपत की शक्ति इतनी बही हुई थी कि ब्रिटेश सरकार ने उन्हें पकड़न के लिए 5000 रु. का इनाम घोषित कर रखा था। लंबे संघर्ष के बाद सन 1862 में नौगाँव के कुछ मील दूर पर वार देसपत बुदेला मारे गए।

महादेव शास्त्री

गवालियर के महादेव शास्त्री एक प्रखर राष्टरभक्त थे, जिन्होंने शस्त्र तो नहीं उठाए लेकिन नाना साहब पेशवा को दिए गए सहयोग के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया। महादेव शास्त्री ने ग्वालियर में तात्या टोपे के पक्ष में वातावरण तैयार किया। नाना साहब पेशवा का पत्रवाहक बनकर क्रांति की जानकारी अन्य सेनानियों तक पहुँचाई। अंग्रेज सरकार ने महादेव शास्त्री की गतिविधियों को देखते हुए उन्हें गिरपतार कर फाँसी दे दी। अमीरचन्द वाढिया को भी फाँसी दी गई।

बड़वानी के खाज्या (काजा) नायक और भीमा नायक

मालवा और निमाड क्षेत्र के भील स्वतंत्रता प्रेमी थे। ंग्रेजों ने उन्हें दबाने के लिए ‘ भील कोर’ नाम की

एक सैनिक टुकड़ी बना रखी थी। खाज्या और भीमा, भील कोर में नायक के पद पर कार्थरत थे। अंग्रजों की दमनात्मक नीति के विरुद्ध इन दोनों ने भी सन् 1857 के संग्राम में अपनी विद्रोहात्मक गतिविधियाँ तेज कर दीं। इनसे परेशान होकर अंग्रजों ने इन्हें पकड़ने के लिए सघन अभियान चलाया। खाज्या को 1860 में धोखे से मार दिया गया, जबकि भीमा नायक ने संघर्ष जारी रखा। सन् 1867 में उसे भी धोखे से बंदी बना लिया गया। उपरोक्त के अतिरिक्त 1857 की क्रांति में मध्यप्रदेश के सेवड़ा (दतिया) के राव खलकसिंह दौआ, राघ्ोगढ (देवास ) के दौलत सिंह, भोपाल के वारिस मोहम्मद अली खाँ, अम्बापानी (भोपाल) के नवाब आदिल मोहम्मद खाँ और फाज़िल मोहम्मद खाँ, सोहागपुर (शहडोल) के गरूल सिंह इत्यादि की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

टंट्या भील

1857 की महासमर के बाद मध्यप्रदेश के पश्चमी, निमाड़ में टंट्या भील ब्रिटिश सरकार के लिए आतंक का पर्याय था। उसके साथी दोपिया और बिजनियाभी उसकी क्रॉतिकारी गतिविधियों में सहभागी थे। वर्षों तक जनजीवन में घुले-मिले रहकर गुप्त ढंग से क्रान्तिकारा कार्यवाहियों करते रहकर उसने ब्रिटिश सरकार को कंपा दिया था। धोखे और षड्यंत्रपूर्वक अग्रेजों ने टेट्यां की गिरफ्तार किया और नवम्वर 1886 में फाँसी पर लटका दिया। भीलों के बीच आज भी टंट्या प्रेरणास्वरूप मौजूद है ।

 राष्ट्रीय आंदोलन में मध्यप्रदेश का योगदान

मध्यप्रदेश, में राष्ट्रीय आंदोलन की सभी धाराएँ संघर्पशील रही। यहाँ के वनवासियों ने आजादी के महायज्ञ में अपनी आहुति दी, यहाँ की रियासतों की जनता ने और कई खुद्दार राजपरिवारों ने पराधीनता की बेड़ियों को काटने के लिए सर्वस्व दाँव पर लगाया, यहाँ के रजवाडों की प्रजा को दोहरी गुलामी को उतार फेंकने के लिए जूझना पड़ा, यहाँ के किसानों ने लड़ाई लड़ी, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, जंगल सत्याग्रह और 1942 की जन क्क्रांति में मध्यप्रदेश की सक्रिय भागीदारी रही। चन्द्रशेखर आजाद की क्रांतिकारी गतिविधियों का केन्द्र अगर ओरछा था, तो मगनलाल बागड़ी की हिन्दुस्तानी लाल सेना ने इसी धरती पर सशस्त्रस संग्राम छेड़ा था।

लोकमान्य तिलक, राष्पिता महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राष्ट्र नायक जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, देशरन् डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ अंसारी, मौलाना आजाद आदि महापुरुषों ने मध्यप्रदेश के स्वातंत्र्य समर को प्रेरित किया। पं. रविशंकर शुक्ल, पं. सुन्दरलाल शर्मा, द्वारका प्रसाद मिश्र, ठाकुर निरंजन सिंह, सेठ गोविन्ददास, हरिविष्णु कामथ, ठाकृर प्यारेलाल, ई. राघवेन्द्र राव, महंत लक्ष्मी नारायणदास, सुभद्रा कुमारी चौहान, वामनराव लाखें, धनश्याम सिंह गुप्र, भाई अव्दुल गनी, विष्णुदत्त शुव्ल, ब्यौहार राजेन्द्र, काशीप्रसाद पाण्डे, चौ. शकरलाल दुबे, नारायण राव मेघावाले, कक्तान अवधेश प्रताप सिंह, लाल यादवेन्द्रसिंह, राजभानु् सिंह तिवारी, लालराम वाजपेयी, चत्र्भुज पाठक, बृजलाल वियाणी, श्यामनारायण कश्मीरी, गोपीकृष्ण विजयवगीय, लीलाधर जोशी, श्यामलाल पांडवीय, जगन्नथ प्रसाद मिलिन्द, मुरलीधर धूले, वकील रा.मो. करकरे, कृष्णकांत व्यास, मिश्रीलाल गंगवाल, कन्हैयालाल वैद्य, मास्टर लाल सिंह, शंकर दयाल शर्मा, बैजनाथ महीदय, कन्हैयालाल खादीवाला, दुर्गशिंकर मेहता और अन्य अनेक अग्रणी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने मध्यप्रदेश में यत्र-तत्र सर्वत्र आजादी की अलख जगाई, आंदोलन का संचालन और नेतृत्व किया।

असहयोग आंदोलन

भोपाल, ग्वालियर, इन्दीर जैसी वड़ी-बड़ी रियासतों के अतिरिक्त छोटी रियासतों में भी असहयोग आन्दोलन के समय बड़ा उत्साह देखा गया। इस अवसर पर गांधीजी ने छिंदवाड़ा, जबलपुर, खण्डवा, सिवनी का दौरा किया। इस दौरे ने जनता में अभूतपूर्व राष्ट्रीय चेतना का संचार किया।असहयोग आन्दोलन में मध्यप्रदेश की जनता ने शराब बन्दी, तिलक स्वराज्य फण्ड, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, सरकारी शिक्षण संस्थाओं का त्याग कर राप्ट्रीय शिक्षा संस्थाओों की स्थापना, हथकरघा उद्योग की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण कारयों में अपना योगदान दिया। वकीलों ने वकालत त्याग दी। जो वकील न्यायालय जाना चाहते थे, उन्होंने गांधी टोपी पहनकर न्यायालयों में प्रवेश किया। जिला समितियों ने शासकीय आज्ञाओं की अवहेलना कर भवनों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये । जिससे लोगों की भय एवं आधीनता की मनोवृत्ति दूर हुई। इस आन्दोलन के समय साम्प्रदायिक सद्भावना की अभूतपूर्व मिसालें यहाँ देखने को मिलीं।

झंडा सत्याग्रह (1923 )

राष्ट्रीय ध्वज किसी राष्ट्र की सम्प्रभुता, अस्मिता और गौरव का प्रतीक होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिना में चरखा युक्त तिरंगे झण्डे को यह दर्जा प्राप्त रहा है, 1923 में इस ध्वज की आन-बान-शान का लकर एक एसा प्रसंग उपस्थित हो गया जिसमें न केवल राट्ट्रीय ध्वज के प्रति सम्पूर्ण राष्ट् की श्रद्धा और निष्ठा को मुखर अभिव्यक्ति हुई, बल्कि औंग्रेजी हुकृमत तक को उसे मान्य करने पर विवश होना पड़ा। इतिहास के इस स्वणम अध्याय को ‘झण्डा सत्याग्रह’ के नाम से जाना जाता है। असहयोग आंदोलन की मानसिक तैयारी की पड़ताल के लिए गठित कांग्रेस की समिति जबलपुर आई, हकीम अजमल खां उसके नेता थे। जबलपुर काग्रेस कमटा ने तय किया कि खाँ साहेव को अभिनन्दन पत्र भेंट किया जाएगा और जबलपुर नगरपालिका भवन पर राष्ट्रय तिरंगा ध्वज फहराया जाएगा। यह सम्मांन गोरे डिप्टी कमिश्नर को व्रटिश हकृमत का अपमान और चुनौती देता हुआ प्रतात हुआ और वह भड़क उठा। उसने पुलिस को हक्म दिया कि तिरंगे इझण्डे को न केवल उतार दिया जाये बल्कि पैरों से कुचला जाये, जिसका परिणाम स्वाभाविक रूप से तीव्र जनाक्रोश के रूप में फूटा और आदिलिन आरम्भ हो गया, जिसने कुछ ही महीनों में अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर लिया। अंग्रेज हुकूमत को अपमानजनक कार्यवाही के विरोध में पं. सुन्दरलाल , सुभद्रा कुमारी चौहान, नाथूराम मोदी, नरसिंह दास अग्रवाल, लक्ष्मणसिंह चौहान तथा कुछ अन्य स्वयंसेवकों ने झण्डे के साथ जुलूस निकाला । पुलिस ने जुलूस को आगे बढुन से रोक दिया और सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। पं. सुन्दरलाल पर मुकदमा चला और उन्हें छ: माह के कारावास की सजा दी गई । नगरपालिका जबलपुर के सभी सदस्यों ने विरोध स्वरूप सामूहिक इस्तीफा दे दिया। झण्डा सत्याग्रहियों की पहली टोली की गिरफ्तारी के बाद दूसरे जत्थे ने, जिसमें प्रेमचन्द्र, सीताराम जाघव, छिग्गेलाल स्वर्णकार, टोडरलाल थे, टाउन हाल पर झण्डा फहरा दिया। झण्डा आंदोलन नागपुर तथा देश के अन्य भागों में पैला था।

 सविनय अवज्ञा आअंदोलन

दुरिया जंगल संत्याग्रह 1930 में जब गांधीजी ने दांडी मार्च कर नमक सत्याग्रह किया था, तब सिवनी के कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने दुर्गाशंकर मेहता के नेतृत्व में जंगल सत्याग्रह चलाया। सिवनी से 9-10 मील दूर सरकारी जंगल चंदन बगीचों में घास काटकर यह सत्याग्रह किया जा रहा था। इसी सिलसिले में 9 अक्टूबर, 1930 को सिवनी जिले के ग्राम

दुरिया, जोकि सिवनी से 28 मील दूर स्थित है, में सत्याग्रह की तारीख निश्चत हुई । कुछ स्वयंसेवक घास काटकर सत्याग्रह करने गए। पुलिस दरोगा और रंजर ने सत्याग्रहियों का समर्थन करने आए जनसमुदाय के साथ बहुत अभद्र व्यवहार किया जिससे जनता उत्तिजित हो उठी । सिवनी के डिप्टी कमिश्नर के इस हुक्म पर कि ‘”टीच देम ए लैसन ‘ पुलिस ने गोली चला दी। घटनास्थल पर ही तीन महिलाएँ- गुड्डों दाई, रेना बाई, बेमा बाई और एक पुरुष विरजू गोंड शहीद हो गए, चारों शहीद आदिवासी थे। इस घटना से मध्यप्रदेश के गिरिजन समुदाय में भी स्वतंत्रता की ज्योति प्रज्वलित होने का पुष्ट प्रमाण मिलता है। इन शहीदों के शब भी अंतिम संस्कार के लिए इनके परिवार वालों को नहीं दिए गए।

घोड़ा-डोंगरी का जंगले सत्याग्रह

आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिला स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख केन्द्र रहा है और यहाँ के बनवासियों ने पराधीनता के विरूद्ध संघर्ष किया। 1930 के जंगल सत्याग्रह के समय बैतूल के आदिवासी समुदाय ने विद्रोह की मशाल थाम ली थी शाहपुर के समीप वंजारी ढाल का गंजन सिंह कोरकू विद्रोही आदिवासियों का नेता था । जब पुलिस गंजन सिंह को गिरिफ्तार करने बंजारी ढाल पहुँची तो आदिवासियों ने प्रवल प्रतिरोध खड़ा कर दिया । वनवासी समुदाय पर पुलिस ने गोलियाँ बरसाई, जिसमें कोमा गोंड चटनास्थल पर ही शहीद हो गया। गंजन सिंह पुलिस का घेरा तोड़कर निकल गया। उधर जम्बाड़ा में पुलिस की गिरफ्त से आदिवासियों को मुक्त कराने के लिए एकजुट भीड़ पर पुलिस के ब्बर बल प्रयोग में रामू तथा मकड़ गौड शहीद हो गये।

चरण पादुका गोलीकांड

14 जनवरी, 1931 को मकर संक्रांति के दिन छतरपुर रियासत में उर्मिल नदी के किनारे चरण पादुका में स्वतंत्रता सेनानियों की एक विशाल सभा चल रही थी। काफी संख्या में लोग इकट्ठे हुए थे। नौगांव स्थित अंग्रेज पोलिटिकल एजेंट के हुक्म पर बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चला दी गई, जिसमें अनेक लोग मारे गए। मध्यप्रदेश का जालियाँवाला बाग कहे जाने वाले इस लोमहर्षक कॉंड में अग्रेज सरकार ने छः स्वतंत्रता सेनानी-सेठ सुन्दरलाल, धरमदास खिरव, चिरकृ, हलके कुर्मी, रामलाल कुर्मी और रघुराज सिंह का पुलिस गोली से शहीद होना स्वीकारा।

मध्यप्रदेश के प्रमुख क्रांतिकारी

अमर शहीद चन्द्रशेखर अजाद का जन्म मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाभरा ग्राम में हुआ। वे 14 वर्ष की अवस्था में असहयोग आंदोलन से जुड़े। गिरफ्तार होने पर अदालत में उन्होंने अपना नाम ‘आजाद’, पिता का नाम “स्वतंत्रता’ और घर का पता ‘जेलखाना’ बताया तभी से चन्द्रशेखर के नाम के साथ ‘आजाद’ जुड़ गया। व्रिटिश सरकार के लिए आतंक का दसरा नाम था सम्पूर्ण उत्तर भारत में सशक्त क्रांति की ज्वाला धधकाने तथा क्रांतिकारियों की एक पीढ़ी तैयार करने का श्रेय चन्द्रशेखर आजाद को जाता है। 1926 से 1931 तक लगभग हर अंग्रेज़ विद्रोही गतिविधियों में वे शामिल थे और वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के जनरल ऑफीसर इन कमाण्ड बने रहे।

झँसी और ओरछा के बीच ग्राम ढीमरपूरा के नजदीक सातार नदी के किनारे चन्द्रेशेखर अजाद ने अपना डेरा जमाया। वे पं. हरिशंकर ब्रह्चारी के नाम से ढीमरपुरा ग्राम के लोगों को दिन में रामकथा सुनाते, भोजन का इंतजाम करते, वहीं से झँसी की क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।

उत्तर भारत की पुलिस आजाद के पीछे पड़ी हुई थी। दल के कुछ साथी विश्रासघात कर चुके थे, जिससे वे चिन्तित और क्रुत्ध थे। आजाद वचते-छिपते इलाहावाद जा पहुँचे 27 फरवरी, 1931 को वे अलफ्रेड पार्क में बैंठे हुए थे। दिन के दस बज रहे थे कि पुलिस ने उन्हें घेर लिया, दोनों ओर से गोलियाँ चलने लगी आजाद ने पुलिस के छके ख़ुड़ दिए और जब उनकी पिस्तौल में एक गोली बची थी तब उसे अपनी कनपटी पर दागकर शहीद हो गए।

23 जुलाई 1931 की रात को दिल्ली से बम्बई जा रही पंजाव मेल के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में अंग्रेज अफसर हेक्सट, शीहन और उनका शिकारी कुत्ता सवार थे। देश की आजादी के दीवाने दमोह के वीर यशवंत सिंह, भुसावल के देवनारायण तिवारी और उनके मित्र दलपत राव ने इन गोरे अफसरों से राइफल और अन्य सामान लूटने की योजना बनाई। तीनों सेनानियों ने ट्रेन के डिब्बे में पहुँचकर अपनी मातृभूमि के लिए बदला लिया। जंजीर खींच कर तीनों क्रांतिकारी ट्रेन से उतर कर जंगल में छुप गए। इस घटना ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया। पुलिस ने गहन छानबीन करके तीनों क्रांतिकारियों को पकड़ लिया और खंडवा की अदालत में उन पर मुकदमा चलाया गया। यश्वंत और देवनारायण तिवारी को जबलपुर जेल में फॉँसी दे दी गई।

स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय जब गांधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था, देश की आँखें सुभाषचन्द्र बोस और आजाद हिन्द फौज के शौर्य को निहार रहीं थीं। मध्यप्रदेश के अनेक सेनानियों ने आजाद हिन्द फौज में सम्मिलित होकर राष्ट्रीय यज्ञ में अपना योगदान दिया। देवास जिले के अधिसंख्य स्वतन्त्रता सेनानियों ने आजाद हिन्द फौज में भाग लिया था। कर्नल गुरुबक्श सिंह ढिल्रन,जिन पर आजाद हिन्द फौज में कार्य करने के कारण अभियोग चला था, मध्यप्रदेश के शिवप्री जिले के निवासी थे। स्वतन्वता संग्राम के समय अनेक क्रान्तिकारी देश के बाहर रहकर आन्दोलन चला रहे थे। जिनमें मध्यप्रदेश के मौलाना मोहम्मद बरकतउल्लाह (भोपाल) जैसे महान क्रान्तिकारी भी थे, जिन्होंने अपने बेजोड साहस, देशभक्ति की अमिट लगन के साथ देश की आजादी के लिए कई कार्य किए। अमेरिका,जापान, काबुल में आजादी के लिए संघर्ष में उनकी भूमिका उल्ेखनीय रही

भारत छोड़ो आन्दोलन

मौलाना मोहम्मद बरकतउझाह अगस्त 1942 में देश के राजनीतिक रंगमंच पर ‘भारत छोड़ो’ नामक ऐतिहासिक आन्दोलन की शुरुआत हुई। 8 अगस्त को भारत छोड़ो प्रस्ताव बम्बई में होने वाली अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने पारित किया। 9 अगस्त को गांधीजी सहित सारे बड़े नेता बन्दी बनाये जा चुके थे । ऐसी स्थिति में पंडित रविशंकर शुक्ल, द्वारकाप्रसाद मिश्र सहित मध्यप्रदेश के सभी बड़े नेता दमन के नग्र तांडव का सामना करने के लिए अपने प्रदेश वापस लौट आये। प्रत्येक नगर, तहसील और ग्राम में जनता ने अपने-आपको संगठित किया और संघर्ष का सूत्रपात किया। बैतूल जिले में आन्दोलन ने उয्र रूप धारण किया। पुलिस ने गोली चलाकर दमन का प्रयास किया। मंडला, सागर, होशंगाबाद, डिंदवाड़ा, जबलपुर आदि स्थानों पर जनता ने शासकीय कार्यालयों पर हमला कर अभिलेखों को विनट्ट किया, रेल, तार के परिवहन-साधनों को छिन्र-भिन्न कर दिया। पुल्िस ने यहाँ दमनकारी नीति अपनाई।

जबलपुर में सेठ गोविन्द दास बन्दी बना लिये गये। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप आन्दोलन और तेज हुआ। खण्डवा, खरगौन, नरसिंहपुर, दमोह, बालाघाट सहित सभी स्थानों पर नागरिकों ने वढ़ -चढ़कर आन्दोलन में भाग लिया। 9 अगस्त, 1942 को कांग्रेस नेताओं की गिरप्तारी के विरोध में जबलपुर की तिलक भूमि तलैया में सभा रखी गई जिसमें एक सप्षाह तक हड़ताल रखने का फैसला लिया गया। ग्यारह अगस्त को फुहारे पर सत्याग्रहियों पर पुलिस ने लाठियाँ बरसाई, इससे आंदोलन उग्र हो गयथा। 14 अगस्त को फुहारे से निकलने वाले जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई युवक गुलाब सिंह इस हादसे में शहीद हुआ। 12 अगस्त को बैतूल जिले के प्रभात पट्टन में बाजार लगा हुआ था, जिसमें आसपास के गाँवों के लोग बड़ी संख्या में इकट्ठे हुए थे, पुलिस वाले भी थे।

भारत छोड़ो आन्दोलन की उमंग में लोगों ने तय कर लिया कि पुलिस वालों की वर्दीं उतार कर उन्हें खादी के कपड़े पहनने के लिए विवश कर दिया इसी बीच मुलताई से पुलिस के और जवान आ पहुँचे, जिन्होंने जुलूस पर गोली चला दी, जिसमें महादेव तेली स्वतंत्रता की वेदी पर बलिदान हो गया। रीवा राज्य के अन्तर्गत सतना जिले के कृपालपुर ग्राम में विद्यार्थी यूनियन के तत्वावधान में निकले जुलूस पर जब पुलिस ने गोलियाँ वरसाई तब लाल पद्मधर सिंह राष्ट्रीय झण्डा हाथ में लिए सीना तान कर खड़े हो गए। गोली से वे वीरगति को प्राप्त हुए।

15 अगस्त, 1942 को मण्डला में एक बड़ा जुलूस निकाला गया जो जिलाधीश कार्यालय जाने वाला था, लेकिन हथियारबंद पुलिस ने जुलूस को रोक दिया और तब उसी स्थान पर सभा होने लगी, जिसे मन्रूलाल मोदी और मथुराप्रसाद यादव ने सम्बोधित किया। इसके बाद मैट्रिक के छात्र उदयचंद जैन ने सभा की बागडोर सँभाली पुलिस ने सभा को तितर-वितर करने के लिए बर्बर लाठी प्रहार किया और हवा में गोलियाँ चलाई। जब प्लिस को बर्बरता पर ऐतराज किया गया तो मजिस्ट्रेट ने गोली चलवा दी और वीर बालक उदयचंद शहीद हो गए। 1942 में बैतृूल जिले के घोड़ाडोंगरी – शाहपुर क्षेत्र के आदिवासी सेनानियों का एक बड़ा समूह 19 अगस्त,1942 को विष्णु गोंड के नेतृत्व में घोड़ाडोंगरी रेल्वे स्टेशन के पास इकट्ठा हुआ। गाड सरदार विष्णु ने जंगल- जंगल घूम कर इन आदिवासियों को प्रेरित और एकज़ुट किया था। इस आदिवासी समृह ने रेल की पटरियाँ उखाड़ी, पुलिस थाने और घोड़ाडोंगरी रेल्वे स्टेशन के पीछे ्थित लकड़ी के विशाल डिपो को आग के हवाले कर दिया। पुलिस और वन अधिकारी घटनास्थल पर आए। पुलिस ने बिना चेतावनी दिए गोलियों की बछार कर दी। वीरसा गोंड घटनास्थल पर ही शहीद हो गया और जिराँ गांड की मृत्यु बाद में कारावास में हुई। अंग्रेजी हुकूमत ने यहाँ आदिवासियों पर काफी जुल्म किए।

৪ अगस्त, 1942 को बापू द्वारा दिया गया “करो या मरो’ का संदेश समूचे भारतवर्ष को उद्देलित कर रहा था, गाडरवारा के समीप ग्राम चीचली में 21 अगस्त को एक सभा हुई जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ जोशीले भाषण दिए गए। पुलिस ने नर्मदा प्रसाद और वाबूलाल को गिरपतार कर लिया। इससे जनता उत्तेजित हो गई। 23 अगस्त को जब भारी भीड़ चीचली ग्राम में इकट्ठी थी, पुलिस ने बेरहमी से गोलीबारी की जिसमें मंशाराम और गौराबाई शहीद हो गए। नरसिंहपुर जिले के मानेगाँव के ठाकर रुद्रप्रताप सिंह जिन्हें व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान 1940 में गिरफ्तार किया गया था, जेल में ही वे शहीद हो गये।

1942 में इन्दौर के सर्राफा में सत्याग्रह के दौरान प्लिस ने पहले तो लाठी चार्ज किया और जब स्वतंत्रता के अभिलाषियों का मनोबल नहीं तोड़ा जा सका तब गोलियों की बौछार कर दी। इन्दौर रियासत में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय पुलिस का रुख दमनकारी रहा। लाठीचार्ज और गोली चालन के बावजूद इन्दौर में सभाएँ हुयी और जुलूस निकले। प्रजामण्डल ने भारत छोड़ो आन्दोलन को समर्थन दिया। रतलाम, धार, वदनावर, धामनोद, झाबुआ आदि स्थानों पर उग्र प्रदर्शन हुए। ग्वालियर रियासत में ‘सार्वजनिक सभा’ ने भारत छोड़ो आन्दोलन के प्रस्ताव का समर्थन कर, विदिशा भोपाल रियासत में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पारित कर बांटा गया। इस कारण शाकिर अली खाँ तथा अन्य रीवा विन्ध्यक्षेत्र में के आव्हान पर चावल आन्दोलन में अनेक लोगों ने सम्मेलन में उत्तरदायी शासन की माँग की। अनेक नेता बन्दी बनाए गए। नेताओं को बन्दी बनाया गया । सीहोर, रायसेन आदि स्थानों पर आन्दोलन हुये। भाग लिया और गिरफ्तारियां दी । संक्षेप में मध्यप्रदेश का ऐसा कोई भी क्षत्र नहीं था, जहाँ आन्दोलन न हुआ हो। सरकार ने भी आन्दोलन का दमन सभी उपलब्ध साधनों तथा शक्ति से किया। सरकार का दमन-चक्र जब तेज हुआ, भूमिगत आन्दोलन आरम्भ हुआ। सरकार चाहती थी कि आन्दोलन के दौरान हुई हिंसा की गांधीजी निन्दा करें परन्तु गांधीजी ने जनता के उग्र प्रदर्शनों के लिए सरकार की उत्तेजक कार्यवाहियों को दोषी बताया । इसकी प्रतिक्रियास्वरुप मध्यप्रदेश में हड़तालों, सभाओं और प्रदर्शन के माध्यम से अपना विरोध दर्ज किया गया।

प्रजामण्डल

रियासतों के विलीनीकरण आन्दोलन

1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहा परन्तु इस आन्दोलेन ने ब्रिटिश सरकार और देशी रियासतों के शासकों को यह आभास करा दिया कि स्वाधीनता की माँग की उपेक्षा अधिक समय तक नहों की जा सकती। 1946 में भारत की अन्तरिम सरकार बन जाने के बाद रियासतों में उत्तरदायी शासन की माँग ने जोर पकड़ा। रियासतों को यह अधिकार था कि ब्रिटिश सार्वभौमिकता और प्रभुसत्ता समाप्त होने पर वे किसी भी अधिराज्य में सम्मिलित हो सकते हैं परन्तु प्रजा मण्डलों के आव्हान पर रियासतों की जनता ने उत्तरदायी शासन की माँग के लिए आन्दोलन किए। यह आन्दोलन तभी समाप्त हुए, जब रियासत के शासकों ने विलीनीकरण समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये।

टीकमगढ़ जिले की बम्होरी में रियासती निरंकश शासन से मक्ति और लोकप्रिय शासन की स्थापना लिए आन्दालन हैतु अलख जगा रहे स्वतंत्रता सेनानी नारायण दास खरे को सामंती तत्वों ने तब मरवां डाला।

मध्यप्रदेश में राष्ट्रीय आंदोलन के मुख्य केन्द्र

जबलपुर – स्वाधीनता आंदोलन में जबलपुर का योगदान महत्वपूर्ण रहा । रावर्टसन कालेज के छात्र चिदश्वरम् पिल्नई तथा उसके साथियों ने यहाँ क्रांतिकारी दल का संगठन किया। पिल्लई इतिहास प्रसिद्ध ‘कामा गाटा मारूकाड से संबंधित थे। सन् 1916 एवं सन् 1917 में लोकमान्य तिलक जबलपुर आये थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी 1921 में जबलपुर आगमन हुआ। जबलपुर के नागरिकों ने स्वराजनिधि कोष के लिए 20,000 रूपये की राशि भेट की थी। झण्डा सत्याग्रह का प्रारंभ जबलपुर से ही हुआ था। यूरोपीय कमिश्वर द्वारा तिरंगे को पैरो से कुचले जाने के परिणाम स्वरूप शीघ्र ही रोषपूर्ण आंदोलन प्रारंभ हुआ इसके विरोध में जुलूस निकाला गया उसके नेताओं में पं. सुन्दरलाल, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान इत्यादि थे।

नमक सत्याग्रह के समय सेठ गोविन्ददास व पंडित द्वारिका प्रसाद ने जबलपुर में नमक का कानून तोड़ा।सन् 1942 के आंदोलन में भी जबलपुर में हड़ताल रखी गईं और जुलूस निकाले गए । सन् 1945 में जबलपुर में स्थित भारतीय सिगनल कोर के जवानों ने बम्बई की रायल इण्डियन नेवी के विद्रोह की सहानुभूति के पक्ष में हड़ताल की और अपनी बेरकें छोड़कर बड़ा जुलूस निकाला।

इन्दौर – राजनीतिक चेतना का नयादौर इन्दौर में 20 वीं शताब्दी के अरंभ से शुरू हुआ। सन् 19०7 में

ज्ञान प्रकाश मण्डल स्थापित किया गया, जिसमें राष्ट्रय विचारों के प्रचार का काम प्रारंभ किया। सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन गांधीजी की अध्यक्षता में इन्दौर में हुआ। गांधीजी की यात्रा से इन्दौर में राष्ट्रीय विचारों का बड़ा बल मिला। कांग्रेस की शाखा की स्थापना इन्दौर में सन् 1920 में हुई। इन्दौर में स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल का खूब प्रचार हुआ। कन्हैयालाल खादीवाला ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 1942 के आंदोलन में भी इन्दौर की जनता ने पूरे जोश के साथ भाग लिया। बड़ी संख्या में सार्वजनिक सभा प्रजा मंडल, मजदूर संघ, कांग्रेस तथा महिला संगठनों के देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी जेलों में बंद रहे। मई 1946 में प्रजा मण्डल ने इन्दौर के राजा को एक वर्ष की अवधि में उत्तरदायी शासन कायम करने का अल्टीमेटम दिया। जनता ने उग्र संघर्ष किया। सितम्बर, 1947 में इन्दौर में उत्तरदायी शासन कायम हुआ। उजैन में सार्वजनिक सभा की स्थापना में त्रिम्बक दामोदर पुस्तके का प्रमुख योगदान रहा।

भोपाल – मोहम्मद बरकतुल्लह भोपाली ने विदेशों में रहकर स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्ष किया। काबुल में स्थापित की गई भारत की अंतरिम सरकार (सन् 1915) में उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। सन् 1934 में भोपाल में राजनैतिक गतिविधियाँ आरंभ हुई । इसी वर्ष शाकिर अली खान ने ‘सुबहे वतन’ उर्दू सासाहिक और भोपाल राज्य की हिन्दू महासभा ने ‘प्रजा पुकार’ हिन्दी सास्ताहिक निकाले। 1938 में भोपाल के हिन्दू और मुसलमान नेताओं ने मिलकर प्रजा मण्डल की स्थापना की। सन् 1939 में गांधीजी भोपाल आए थे। सन् 1942 में प्रजा मुण्डल बहुत शक्तिशाली हो गया। सन् 1946 में प्रजा मण्डल एवं भोपाल नवाब के बीच समझौता हो गया। सन् 1946 में ही भोपाल नगर में विलीनीकरण के समर्थन में जोर-शोर से आंदोलन प्रारंभ हुआ। मास्टर लाल सिंह, डॉ. शंकरदयाल शर्मा (पूर्व राष्ट्रपति), सूरजमल जैन, प्रेम श्रीवास्तव आदि की गिरफ्तारियाँ हुई। महिलाएँ भी सैकडों की संख्या में मैदान में आ गई शासन ने भारी यातनाएँ दी। अत्याचारों के विरोध में 22 दिनों तक बाजारों में पूर्ण हड़ताल रही। बरेली, सीहोर, उदयपुरा आदि तहसीलों में आंदोलन अग की तरह फैल गया। उदयपुरा तहसील में वोरासघाट में लोमहर्षक गोलीकांड हुआ जिसमें राष्ट्रीय तिरंगा हाथ में थाम चार वीर नवयुवक छोटेलाल धनसिंह, मंगलसिंह तथा विशाल सिंह एक के बाद एक शहीद हो गए। इस घटना से तहलका मच गया। सरदार पटेल ने वी.पी. मेनन को भोपाल भेजा। मंत्रिमंडल भंग कर दिया गया। अधिकांश बंदियों को सामूहिक रिहाई हो गई। नवाब से चार माह तक वार्तां चलने के पश्चात् 1949 को भोपाल रियासत केन्द्र मैं विलीन हुई।

विन्ध्यक्षेत्र – विन्ध्यक्षेत्र में रीवा राज्य राष्ट्रीय आंदोलन में सबसे आगे रहा। इलाहाबाद के निकट होने के कारण यहाँ आन्दोलन की लहर शीघ्रता से पहुँची। 1920 के कांग्रेस के नागप्र अधिवेशन के पश्चात बघेलखण्ड में कांग्रेस के संगठन का कार्य शुरू हुआ। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय (1931) रीवा के राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं पर अत्याचार किए गए। रीवा के मुख्य कार्यकता थे – पं. शंभूनाथ शुक्ल और कप्तान अवधेशप्रताप सिंह। सन् 1943 में राज्य प्रजा मण्डल का गठन हुआ और छतरपुर में कार्यालय की स्थापना की गई। राजा से उत्तरदायी शासन की माँंग की गई। यह माग 1947 में और तीव्र हो गई। भारत स्वतंत्र होने के पश्चात विन्ध्य क्षेत्र की रियासतों ने केन्द्रीय सरकार में विलीन होने के संकल्प-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।

ग्वालियर – ग्वालियर रियासत भिण्ड से मन्दसौर तक फैली हुई थी। यहाँ भी राष्ट्रीय आन्दोलन की आग

फैल गई। सन् 1908 में मुरार में स्वदेशी प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। क्रांतिकारियों का तो ग्वालियर गढ़ था। गेंदालाल दीक्षित और चन्द्रशेखर आजाद अनेक बार ग्वालियर के विभिन्न क्षेत्रों में छूपे रहे। सन् 1930 में ग्वालियर में विदेशी वस्त्र बहिष्कार संस्था बनाई गई । विदेशों से हथियार प्राप्त कर क्रांतिकारियों गोवा पडयंत्र काण्ड हुआ इस संवंध में जिन लोगों को दुण्डित तक पहुँचाने के संबंध में सन् 1932 में ग्वालियर किया गया उनमें बालकृष्ण शर्मा, गिरधारी लाल, रामचन्द्र सरवटे, स्टीफन जोसेफ मुख्य थे। सन् 1937 में राजनैतिक कारणों के लिए ग्वालियर राज्य सार्वजनिक सभा ने कार्य प्रारंभ किया। इस सभा ने राजा से उत्तरदायी शासन की माँग की। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का सार्वजनिक सभा ने समर्थन किया तथा विशाल प्रदर्शनी और हड़ताले की। सन् 1940 में ग्वालियर राज्य का शिवपूरी शहर कांग्रस का केन्द्र बन गया था व्यक्तिगत सत्याग्रहों के लिए शिवपुरी के विश्वनाथ गुप्ता को दो वर्ष की सजा काटना पड़ी। उपरोक्त मुख्य स्थानों के अतिरिक्त अनेक छोटे-छोटे नगरों और कस्बों में राष्ट्रीय आंदोलन तीव्रता से फैला।इसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है- धमतरी, मण्डला, दमोह, नरसिंहपुर, झाब्आ, धार, मन्दसौर, भानपुरा, गढ़ाकोटा,डिन्डोरी, डोंगरगाँव, छिन्दवाड़ा, प्रभातपट्टन, नाहिया, घोड़ाडोंगरी, सागर, टीकमगढ़, ओरछा, रतलाम, विदिशा, कुरबाई इत्यादि । 

राष्ट्रीय आन्दोलन के समय मध्यप्रदेश की शासन व्यवस्था

        स्वाधीनता आन्दोलन के समय मध्यप्रदेश दो प्रकार की शासन व्यवस्थाओं से संचालित रहा। जबलपुर, मंडला, सागर, बैतूल, छिंदबाडुा, होशंगाबाद, खंडवा और इनसे जुड़े हुये इलाके सीधे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत थे। यह क्षेत्र मध्य प्रान्त के अंग थे। मध्य प्रान्त में वर्तमान महाराष्ट्र के अनेक जिले सम्मिलित थे और इसकी राजधानी नागपुर थी। ब्रिटिश शासन के अधीन इन क्षेतरों मेंजनता अत्यधिक कट में थी और राष्ट्रीय कॉग्रेस की स्थापना के बाद इन स्थानों पर इसकी शाखाओं की स्थापना हुयी। अत: राष्ट्रीय आन्दोलन में इन स्थानीं पर अधिक सक्रियता दिखायी दी।

वर्तमान मध्यप्रदेश के शेष भाग में देशी रियासतों का शासन था। इन्दौर, गवालियर, रीवा, देवास, भोपाल आदि अनेक स्थानों की देशी रियासतें अंग्रेजों के संरक्षण में थी। 1857 की क्रान्ति के पश्चात् अग्रेजें ने देसी रियासतों के शासकों के प्रति सद्भावना की नीति आपनायी । इसके अतिरिक्त रियासतों की जनता रियासती शासन व्यवस्था से अपेक्षाकृत संतुष्ट थी। अत: रियासतों में राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित गतिविधियाँ अपेक्षाकृत मन्द गति में रहीं । इन रियासतों के देशभक्त राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने के लिए पड़ौसी प्रान्तों में जाते थे और आन्दोलनो में भाग लेते थे इसी प्रकार ब्रिटिश शासन क्षेत्र में चल रहे आन्दोलनों में कार्यरत स्वतंत्रता सेनानी शासन के दमन से बचने के लिए रियासतों में शरण लेते थे।

 राष्ट्रीय जागरण में समाचार पत्रों की भूमिका

मध्यप्रदेश में राष्टरीय चेतना में वृद्ध के लिए अनेक कारकों का संयोग रहा, जिसमें समाचार-पत्रों की भूमिका महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय आन्दोलन के समय लोकमान्य तिलक, महात्या गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय आदि नेताओं के आगमन ने राष्ट्रीयता की भावनाओं को बल दिया । उस समय ऐसे अनेक समाचार-पत्र प्रकाशित हुए, ज़िन्होंने ब्रिटिश शासन की अन्यायी एवं दमनकारी नीति से जनता को अन्दोलन के लिए प्रेरित किया। इनमें

प्रमुख थे- ‘कर्मवीर’, ‘अंकुश’, सुबोध सिंधु (खण्डवा), ‘न्याय सुधा’ (हरदा), “आर्यं वैभव’ (बुरहानपुर ),”लोकमत’ (जबलपुर), ‘प्रजामण्डल पत्रिका’ (इन्दौर), ‘ सरस्वती विलास’ (जबलपुर) ‘सासताहिक आवाज’ एवं

“सुबह वतन’ (भोपाल) आदि। ब्रिटिश शासन के प्रतिबंधों के कारण जब समाचार-पत्र प्रकाशित नहीं हो सके, गुप्त रूप से बुलेटिन एवं परचौं ने जनजागृति का कार्य किया।

राष्ट्रीय आंदोलन के समय स्थापित संगठन एवं संस्थाएँ

राष्रीय आन्दोलन के दौरान अनेक संस्थाओं ने आन्दोलन की गतिविधियों में संलग्र रहते हुए रचनात्मक

कार्य भी किये । भारतीय राष्टरीय कांग्रेस ने इन संगठनों में अग्रणी भूमिका निभाई। रियासतों में ‘प्रजा मण्डल’ तथा “सार्वजनिक सेवा संघ’ प्रमुखता से उभरे इनके अतिरिक समय- समय पर ऐसी संस्थाओं एवं संगठनों की स्थापना भी हुई, जिन्होंने रचनात्मक कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें प्रमुख थे गुरूकुल’ 1929 (सतना), ‘हिन्दुस्तानी सेवा दल’ 1931 ‘चरखा संघ’ (रोवा), ‘ग्वालियर राज्य सेवा संघ ‘तथा “हरिजन सेवक संघ’ 1935 ( ग्वालियर), ‘लोक सेवा संघ’ 1939 (खरगोन), ‘ग्राम सेवा कुटीर’ 1935(सेंधवा), “सेवा समिति’ (बैतूल), ‘सेवा मण्डल’ (रतलाम),’ज्ञान प्रकाश मण्डल’ (इन्दौर)आदि। स्वत्रता आन्दोलन के दौरान भारत में अनेक राजनीतिक दलों एवं समाज सेवी संस्थाओं का गठन हुआ। जिनकी रीति-नीति कांग्रेस से पृथक थीं परन्तु अन्दोलन में उनकी उपस्थति महत्वपूर्ण थी। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान मध्यप्रदेश की जनता ने जो योगदान दिया वह अविस्मरणीय रहेगा ।

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