भारतीय युद्ध कलाएँ

भारतीय युद्ध कलाएँ

यह कलाएँ या मार्शल आर्ट खुद की या दूसरों की किसी शारीरिक खतरे से रक्षा की प्रणाली है। इसकी उत्पत्ति तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान केरल में हुई थी। जिस स्थान पर इन मार्शल आर्ट का अभ्यास किया जाता है उसे ‘कलारी’ कहा जाता है। यह एक मलयालम शब्द है, जिसका अर्थ है व्यायामशाला। मार्शल आर्ट युद्ध कला सें जुड़ा यूरोपीय शब्द हैं जिसे 1920 के दशक में रचा गया। मोटे तौर पर इसे हमले, प्रहार या हथियार प्रशिक्षण के वर्गों में बाँटा जा सकता है।

एशिया से आने वाले कई मार्शल आर्टस लड़ाई के अलावा चिकित्सा पद्धतियों से भी संबंधित हैं, जैसे- चीनी मार्शल आर्टस में एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर (तूई ना), अस्थि बिठाना, किगोंग और पारंपरिक चीनी दवाइयों के अन्य पहलू भी सिखाए जाते हैं। मार्शल आर्ट गतका धर्म के साथ जुड़ा है। विंग चुन कूंग फू’ का प्रयोग यात्रा कर रही ननों द्वारा पहली बार खुद की रक्षा के लिए किया गया था और इसी तरह कई मार्शल आर्टस दार्शनिक भावना पर आधारित हैं, जैसे- एकिडो।

प्रारंभिक एवं आधुनिक इतिहास

एक दंत कथा के आनुसार 550 ई. ‘में दक्षिण भारत के पल्लव वंश के राजकूमार बोधिधर्मा (दारुमा) को चीन में जेन बौद्धवाद (ध्यान संप्रदाय) का संस्थापक माना जाता है तथा अनुशासन, विनम्रता, संयम और सम्मान, मार्शल आर्ट के ये सभी गुण इनके द्वारा प्रतिपादित माने जाते हैं। मार्शल आर्ट की शिक्षा गुरु-शिष्य प्रणाली की परंपरा का अनुकरण करती है, जहाँ एक सख्त पदानुक्रम व्यवस्था में गुरु द्वारा शिष्यों को प्रशिक्षित किया जाता है: जिसे मंदारिन में शिफ, केंटोनीज़ में सिफु, जापानी में सेनसेई, कोरियाई में सेबैओम -निम, संस्कृत, हिंदी, और तेलुगु में गुरु, खमेर में क्रू, तागालोग में गुरो, मलयालम में कालारी गुरुक्कल या कालारी असान, तमिल में असान, थाई में अचान या खू और म्यांमार में साया कहा जाता है।

भारतीय मार्शल आर्ट कलारीपयद्टू और अन्य पारंपरिक कलाओं का उत्थान 1920 के दशक में तेलीचेरी में हुआ और संपूर्ण दक्षिण भारत में फैला। इसी तरह की कला इंडोनेशिया, वियतनाम और फिलीपींस जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में भी पाई जाती है। भारतीय मार्शल आर्ट थांग टा का विकास 1950 के दशक में हुआ। 19वीं सदी के अंत में संयुक्त राज्य के साथ चीन और जापान के व्यापार की वृद्धि के फलस्वरूप पश्चिम को एशियाई मार्शल आर्ट में फिर से दिलचस्पी उत्पन्न हो गई। कुछ पश्चमी देशों में प्रदर्शन कला के रूप में इनका अभ्यास भी कया जाने लगा। 1894-97 बीच एक रेलवे इंजीनियर, एडवर्ड विलियम बार्टन-राइट द्वारा जापान में काम करते समय जूजुत्सु का अभ्यास किया गया और वह पहला व्यक्ति माना जाता है जिसने युरोप में एशियाई मार्शल आर्ट सिखाया। उसने एक माशल आर्ट शैली जिसका नाम बारतित्सू था, की भी शरुआत की जो जूजुत्स्, जूडो, बॉक्सिंग, सेवेट और छड़ी युद्ध शैली से जड़ी थी।

चूंकि पश्चिम का प्रभाव एशिया में तेजी से बढ़ा इसलिए सैन्य कर्मियों के एक बड़े हिस्से ने चीन, जापान और दक्षिण कोरिया में इसका अभ्यास किया। पश्चिम और दूनिया के अन्य देशों को मार्शल आर्ट से परिचित कराने का श्रेय स्वर्गीय ब्रुस ली को दिया जाता है जिनके कारण 1960 और 1970 के दशक में मीडिया की दिलचस्पी मार्शल आर्ट के प्रति बढ़ी। एशियाई और हॉलीवुड मार्शल आर्ट फिल्मों को भी आंशिक रूप से इसका श्रेय दिया जा सकता है जिनमें जैकी चेन और जेट ली जैसी प्रख्यात फिल्मी हस्तियों ने अभिनय किया। प्रारंभ में मार्शल आर्ट का अर्थ आत्मरक्षा या दूसरों की जीवन रक्षा से लिया जाता था लेकिन वर्तमान में यह प्राथमिक कारण नहीं है। मार्शल आर्ट के व्यवस्थित प्रशिक्षण से व्यक्ति की शारीरिक स्वास्थय की योग्यता जैसे ताकत, सहनशक्ति लचीलापन, गति समन्वय, आदि काफी हृद तक बढ़ जाते हैं क्योकि इससे पूरे शरीर का व्यवस्थित रूप से व्यायाम होता है।

मार्शल आर्ट एक प्रभावी तकनीक है जो समकालीन समाज और जीवन की कई समस्याओं, रोगों और कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली से लड़ती है। इसके प्रशिक्षण से व्यक्ति में आत्म-नियंत्रण, दृढ़ता और एकाग्रता का विकास होता है। वास्तव में, भारत में मार्शल आर्ट्स का इतिहास बहुत पुराना है। कलारीपयट्ट को, जिसकी उत्पत्ति केरल में हुई।  

भारत सहित दुनिया के अन्य देशों में पाए जाने वाले सबसे पुराने मार्शल आर्ट्स में से एक माना जाता है। लोगों की मान्यता है कि माशल आर्ट की कलारीपयट्टु शैली ही दुनिया के सभी मार्शल आर्टस की जनक है।

युद्ध कलाओं के प्रकार

तकनीक के आधार पर मार्शल आर्ट को सशस्त्र व शस्त्र रहित दो श्रेणियों में बॉटा जा सकता है। सशस्त्र मार्शल आर्ट  में कई तरह के हथियारों और अस्त्र-शस्त्रों का इस्तेमाल किया जाता है, जबकि शस्त्र रहित में किकिंग, पचिंग के साथ शरीर के ही अलग-अलग अंगों का इस्तेमाल किया जाता है। कई युद्ध कलाओं का जन्म भारत में हुआ है और कई अन्य देशों से आई जिन्हें उनका भारतीयकरण कर अपनाया गया। भारत के हर भाग में युद्ध कलाओं का अपना एक अहम स्थान है।

कलारीपयद्टू शैली दुनिया की प्राचीनतम तथा सर्वाधिक वैज्ञानिक युद्ध कला कलारीपयट्टू दक्षिणी केरल में उत्पन्न हुई । इसका प्राथमिक लक्ष्य मन और शरीर के वीच सामंजस्य की स्थापना है। यह केरल, तमिलनाड़ व कर्नाटक से सटे भागों तथा पूर्वोत्तर श्रीलंका और मलेशिया के मलयाली समुदाय के बीच प्रचलित है। इसका अध्यास मुख्यतः केरल की नायर, एन्हावा आदि योद्धा जातियों द्वारा किया जाता था। कलारी एक मलयालम शब्द है। जिसका मतलव है वह स्कूल/व्यायामशाला/ प्रशिक्षण हॉल जहाँ यह कला सिखाई जाती है। इसकी शुरुआत अगस्त्य मुनि द्वारा मुख्यतः जंगली जानवरों से लड़ने के लिए की गई थी उन्होंने यह कला कुछ लोगों को सिखाई, ताकि भ्रमण या यात्रा के दौरान वे लोग जंगली जानवरों से निपट सकें। लेकिन जब लोग भारत से चीन जाने लगे तो हिमालय लाँघते ही उनका सामना ऐसे लोगों से हुआ, जो यात्रियों पर हमला करते थे। अतः उन जगली मनुष्यों से लड़ने के लिए वे इस कला का प्रयोग करने लगे। जब इस कला का इस्तेमाल मनुष्यों के खिलाफ लड़ने में किया जाने लगा तो इस सामरिक कला में खासा बदलाव आया। भारत से चीन और दूसरे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में जाने से इसका रूप भी बदलता गया। भारत में जहाँ यह झुककर या दुबककर लड़ी जाने वाली कला थी, वहीं चीन जाते -जाते यह सीथे खड़े होकर लड़ने वाली कला के रूप में विकसित हुई., जिसे ‘कराटे’ कहा जाने लगा। महिलाओं द्वारा भी इस कला का अभ्यास किया गया। उन्नियर्चा नामक एक महान योद्धा द्वारा इस युद्ध कला का उपयोग कर कई लड़ाइयों को जीतने का उल्लेख मिलता है। कलारी के दक्षिण परिचमी छोर पर पुतारा ( सात परतों वाला मंच) होता है जहाँ संरक्षक देवता (काली या शिव) स्थित होते हैं। उत्तरी शैली में अभ्यास विशेष छत वाले गड्ढे में किया जाता है जबकि दक्षिणी शैली में आमतौर  पर खुली हवा या बिना छत वाले ताड़ की शाखाओं से बने बाड़े में। अभ्यास के साथ जुड़े विशेष आह्वान को ‘वयतरी’ कहा जाता है। प्रशिक्षण चार भागों मिथारी, कोल्थारी, अन्कथारी और वेरुम्कई में विभाजित है।

मर्मशास्त्र के दुरूपयोग के कारण यह केवल होनहार एवं शांत चित्त व्यक्तियों को ही सिखाया जाता है, क्योंकि कहा जाता है कि मर्मशास्त्र का प्रयोग जानने वाला सही मर्मम यानी महत्त्वपूर्ण बिंदू पर छूुकर ही अपने विरोधी को अक्षम कर सकता है या मार सकता है। मर्मम का प्रयोग चिकित्सा के लिए भी होता है। इसका श्रेय अगस्त्य ऋषि को दिया जाता है।

सिलम्बम

यह तमिलनाडु की शस्त्र आधारित भारतीय युद्ध कला है जो श्रीलंका एवं मलेशिया के तमिल समुदाय में भी प्रचलित है। यह मुख्यतः केरल के कलारिपयट तथा श्रीलंका के अंगमपोरा से संबंधित है। ‘पतले लबे बास के डंडे’ के प्रयोग के कारण इसका नाम सिलम्बम पड़ा। सिलम्बम को पांड्य, चोल और चेर आदि कई शासकों द्वारा संरक्षण दिया गया। मलेशिया में इसका उपयोग आत्मरक्षा तकनीक के साथ-साथ एक प्रसिद्ध खेल

के रूप में होता है। तामिल पौराणिक कथाओं में भगवान मुरुगन और ऋषि अगस्त्य को सिलम्बम के प्रारंभ का श्रेय दिया जाता है। सिलम्बम की उत्पति 5000 वर्ष पूर्व हुई थी। इसका उल्लेख तमिल संगम साहित्य में मिलता है। सिलम्बम में फुटवर्क का बहुत महत्त्व है। यह समतल और कठोर सतह पर लड़ा जाता है। इसका मैदान गोलाकार तथा 20-25 फीट की परिधि वाला होता है।

थांग-टा और सरित सरक

मणिपुर को मिशेई जनजाति के बीच प्रचलित थांग-टा सशास्त्र भारतीय युद्ध कला है। ‘थांग’ का अर्थ है ‘तलवार’ तथा टा’ का आर्थ है ‘भाला’। अन्य हथियारों में ढाल और कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसमें दो कलाकार या खिलाड़ी होते हैं । मणिपुर और म्यांमार के बीच सांस्कृतिक समानता, भौगोलिक समीपता तथा नृजातीय संबद्धता के कारण थांग-टा नजदीकी रूप से तोबनशाही से जुड़ा है। थांग-टा के तीन अलग-अलग प्रकार हैं-रीति- रिवाजों, संस्कारों तथा युद्ध से संबधित प्रदर्शन, तलवार व भाले के साथ नृत्य का प्रदर्शन तथा तीसरा प्रकार वास्तविक युद्ध प्रयोग है। थांग-टा युद्ध नृत्यों से संबंधित है और अधिकांशतः नृत्य एवं युद्ध के बीच की लाइन धुंधली पड़ जाती है। जैसे अस्थांगकैरोल (तलवार नृत्य) और खोसारोल (भाला नृत्य)। सरित सरक एक शस्त्र हीन युद्ध कला रूप है जिसमें हाथ से मुकाबला किया जाता है। अंग्रेजों द्वारा इस कला को बंद करने का आदेश दिया गया था ताकि इसका अभ्यास कर भारतीय उनका मुकाबला न करने लगें। मणिपुर के लोगों ने अपने प्रयासों से इसे न केवल पुनर्जीवित किया बल्कि ‘खेलो इंडिया’ तक पहुँचा दिया।

मुष्टि युद्ध 

संस्कृत भाषा में ‘मुष्टि’ का अर्थ होता है ‘मुटठी। दक्षिण- पूर्वी एशियाई किकबॉक्सिंग की तरह इस मार्शल आर्ट में भी पंच,किक, कोहनी, घुटनों के अलावा विरोधी को पकड़ने का नियम है। मुष्टि युद्ध की उत्पत्ति दुनिया के सबसे पुराने शहरें में से एक वाराणसी में हुई  थी। प्रतियोगिता को नॉकआउट, सबमिशन या फिर प्रतियोगी को रिंग से बाहर करके जीता जा सकता है। इसमें अक्सर एक-एक प्रतियोगी के अलावा समूहों में भी मुकाबले होते हैं।

वरमा कलाई

वरमा कलाई एक तमिल पारंपरिक कला है जिसकी उत्पत्तिवर्तमान कन्‍याकुमारी, तमिलनाड़ और भारत के दक्षिणी भाग में हुई। यह मालिश, वैकल्पिक चिकित्सा, पारपरिक योग और मार्शल आर्ट को जोड़ती है जिसमें शरीर के दबाव बिंदुओं का प्रयोग प्रतिद्वंद्वी को नुकसान पहुँचाने के लिए किया जाता है। उपचार अनुप्रयोग को वैद्य मुरई कहा जाता है जो सिद्ध वैद्यम का हिस्सा है। वरमा कलाई का श्रेय अगस्त्य, बोगर, थेरियार और पुलिपानी जैसे कई सिद्धार ( ऋषियों ) को दिया जाता है। इनमेमें से आमतौर पर केवल अगस्त्य शैली तमिलनाडु और पड़ोसी राज्य केरल में प्रचलित है।

नियुद्ध

नियुद्ध का शाब्दिक अर्थे है “बिना हथियार के युद्ध’। यह एक शस्त्रहित युद्ध कला है जिसमें हाथ और पांव के प्रहार शामिल हैं। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मरक्षा है। कई प्राचीन ग्रंथों जैसे- महाभारत में नियुद्ध का उल्लेख मिलता है। नियुद्ध को बाहुयुद्ध, मल्लयुद्ध, प्राणयुद्ध आदि नामों से भी जाना जाता है। इस कला का प्रभाव दक्षिण भारतीय क्षेत्र में अधिक देखा जाता है ।

मल्लयुद्ध 

मल्लयूद्ध कुश्ती का प्राचीन रूप एवं एक पारंपरिक भारतीय युद्ध कला मल्लयुद्ध कुश्ती का प्राचीन रूप एवं एक है। मल्लयुद्ध के चार प्रकार हैं- हनुमंती, जाम्बुवंती, जरासंधी और  और भीमसेनी, जो क्रमशः तकनीको श्रेष्ठता, लॉक्स तथा होल्स का प्रयोग कर प्रतिद्वंदी को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने, हड्डियों तथा जोड़ों को तोड़ने तथा विशुद्ध रूप से ताकत पर आधारित हैं।

कुद्टु वरसाई

कुट्टू वरसाई का उल्लेख तमिल संगम साहित्य में मिलता है। इसमें शरीर के लगभग हर हिस्से जैसे- मुद्ठी, घुटने, कोहनी, पैर आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें योग, जिमनास्टिकस, स्ट्रेचिंग के जरिए कदमों के संचालन और शारीरिक शक्ति को सुधारा जाता है। यह दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु, श्रीलंका और मलेशिया के कुछ हिस्सों में प्रचलित है।

थोडा

थोडा हिमाचल प्रदेश की युद्ध कला है जो तीरंदाजी की कुशलता पर आधारित है। इसका संबंध महाभारत काल में पांडवों और कौरवों के बीच हुए युद्ध में तीर एवं धनुष के प्रयोग से जोड़ा जाता हैं। यह कुल्लू और मनाली की आकर्षक घाटियों में प्रसिद्ध है। उसे प्रतिवर्ष बैसाखी के अवसर पर खेला जाता है। तीर के सिरे पर जड़े हुए “गोलाकार लकड़ी के टुकड़े’ के कारण इसे थोडा

नाम दिया गया है जो कि तीर के पैनेपन को कुंद करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। 1.5 मीटर से 2 मीटर का लकड़ी का धनुष होता है और धनुष के अनुपात में लकड़ी के तीर होते हैं जो कि कुशल दस्तकार या मिस्त्री द्वारा बनाए जाते हैं। इस खेल में निशाना घुटने के नीचे लगाया जाता है।

गतका

गतका शस्त्र आधारित मार्शल आर्ट है, जिसका प्रदर्शन सिखों द्वारा किया जाता है। इस खेल में लकड़ी की छड़ी जिसे गतका कहा जाता है, से दो विरोधी खिलाड़ी एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। छड़ी के साथ संपर्क होने पर प्वाइंट की प्राप्ति होती। कोई अन्य हथियार (कृपाण, तलवार आदि) लड़ाई में प्रयोग नहीं किया जाता परन्तु उनकी विधि सीखी जाती है। गतका का अभ्यास करने वाले को गतकाबाज जबकि सिखाने वाले को गुरु या गुरुदेव कहा जाता है।

चेइबी गाद-गा शैली

यह मणिपुर की प्राचीन युद्ध कलाओं (मार्शल आर्ट ) में से एक है। इसमें प्रतियोगी द्वंद्ध युद्ध करते हैं और अधिकतम प्वाइंट लेने वाला विजयी होता है। प्राचीन काल में युद्ध में तलवार व भाले का प्रयोग किया जाना आर्ट में जीत मांसपेशियों की शक्ति पर नहीं बल्कि कुशलता पर आधारित होती हैं। यह प्रतियोगिता समतल जमीन पर 7 मीटर व्यास के वृत्त में आयोजित की जाती है। चेइबी छड़ी की लंबाई 2.2-5 फीट होती है जबकि ढाल का व्यास 1 मीटर होता है।

काथी सामू शैली

आंध्र प्रदेश में प्रचलित इस मार्शल आर्ट में विभिन्न प्रकार की तलवारों का प्रयोग किया जाता हैं। जहाँ काथी सामूहिक का प्रदर्शन होता है, उसे ‘गरीडी’ कहते हैं। वर्तमान समय में इस मार्शल आर्ट का प्रचलन सिर्फ उन्हीं परिवारों में है जिन्होंने सिपाही के रूप में राजा की सेवा की थी। यह लंबी तलवार को घुमाते हुए दो व्यक्तियों के बीच लड़ा जाता है।

मर्दानी खेल

मर्दानी महाराष्ट्र की हथियार आधारित युद्ध कला है। इसका प्रचलन महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले में काफी पाया जाता है। शिवाजी द्वारा इस कला को विशेष संरक्षण दिया गया था। यह ‘पाटा’ (तलवार ) तथा ‘विटा’ (रस्सी युक्त लंबे हत्थे वाला भाला) के प्रयोग के लिए जाना जाता है।

परी खंडा

यह बिहार की कला है। ‘परी’ का मतलव है ‘ढाल’ और ‘खंड़ा’ का मतलब है ‘तलवार’। यह तलवार और ढाल की लड़ाई का खेल है। इस तकनीक का प्रयोग बिहार के छऊ नृत्य में किया जाता है।

मलखंब

मलखंब भारत का एक पारंपरिक खेल है। इसमें खिलाड़ी लकड़ी के एक ऊर्ध्व खंभे या रस्सी के ऊपर तरह-तरह के करतब दिखाते हैं।’मल्लखंभ’ दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘मल्ल’ (बलवान या योद्धा) तथा ‘खंभ’ (खंभा)।

पायका अखाड़ा

इस युद्ध कला का प्रचलन ओडिशा में है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग किसानों को सैन्य प्रशिक्षण देने के लिए किया जाता था।

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