ईरान-USA नाभिकीय समझौता
ईरान-USA नाभिकीय समझौता
24 नवम्बर, 2013 को जेनेवा (स्विट्जरलैण्ड) में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के स्थायी सदस्यों तथा जर्मनी (पी 5 – 1 ने ईरान के साथ ऐतिहासिक नाभिकीय समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते से वैश्विक चिन्ता का विषय बने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को शान्तिपूर्ण उद्देश्यों वाला तथा पारदर्शी बनाने का रास्ता साफ हो गया।
समझीते के प्रमुख प्रावधान
ईरान यूरेनियम का 5% से अधिक संवर्दधन नहीं करेगा। 20% तक संवर्द्धित यूरेनियम को ऑक्साइड में परिवर्तित किया जाएगा। ईरान यूरेनियम संवर्द्धन क्षमता नहीं बढ़ाएगा। इसके अन्तर्गत नए सेण्ट्रीफ्यूज लगाने पर रोक लगाई गई है। नए संवर्द्धन संयन्त्र तथा नई पीढ़ी के संयन्त्र नहीं लगाएगा। नंताज के आधे तथा फोरदाऊ के तीन-चौथाई परमाणु संयन्त्रों में काम बन्द होगा। अरक के गुरुजल रिएक्टर का काम रोका जाएगा। ईरान अन्तर्राष्ट्रीय निरीक्षकों को अपने परमाणु संयन्त्रों के निरीक्षण की अधिक छूट देगा तथा नंताज एवं फोरदाऊ संयन्त्रों के दैनिक निरीक्षण की छूट देगा। ईरान को 7 अरब डॉलर का राहत पैकेज दिया जाएगा। ईरान विदेशों जब्त लगभग चार अरब डॉलर की मुद्रा निकाल सकेगा । यदि ईरान समझौते की शर्तों का पालन करेगा तो अगले छह महीनों में उस पर परमाणु सम्बन्धी कोई नया प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाएगा।
नाभिकीय समझौता और भारत
भारत ने ईरान तथा पी5 + 1 के मध्य हुए इस समझौते का स्वागत किया है। भारत-ईरान सम्बन्ध अनेक कारकों पर आधारित हैं जिनके परस्पर संतुलन को यह समझौता प्रभावित करेगा।
इन कारकों में मुख्य हैं
- ऐतिहासिक सांस्कृतिक सम्बन्ध
- रणनीतिक आवश्यकताएँ
- इजरायल तथा यूएसए के साथ सम्बन्ध
- ऊर्जा आवश्यकताएँ
ऐतिहासिक सम्बन्ध
वैदिक काल से ही भारत तथा ईरान के निकट सम्बन्ध रहे हैं। ईरान शब्द स्वयं आर्यन से व्युत्पन्न माना जाता है जो दोनों देशों के सम्बन्धों की ऐतिहासिकता का द्योतक है। ईरान शिया बहुल राष्ट्र हैं जहाँ शिया मुसलमानों की जनसंख्या विश्व में सर्वाधिक है। भारत में शिया मुसलमानों की जनसंख्या ईरान के पश्चात विश्व में सर्वाधिक. है। ईरान के धार्मिक प्रमुख अयातुल्लाह खुमैनी का परिवार अवध रियासत से ईरान गया था तथा वे आज भी हिन्दी एवं अवधी में बातचीत करते हैं।
रणनीतिक आवश्यकताएँ
ईरान की रणनीतिक अवस्थिति भारत के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान का पड़ोसी है तथा दूसरी तरफ अरब देशों से इसकी भौगोलिक सीमाएँ स्पर्श करती हैं। भारत द्वारा आयात किया जाने वाला 80% कच्चा तेल होर्मुज की खाड़ी से होकर आता है जिस पर ईरान का वर्चस्व है, ऐसे में ईरान का महत्व भारत के सन्दर्भ में स्वतः स्पष्ट है।
इजरायल तथा यूएसए के साथ सम्बन्ध अरब प्रायद्वीप में अवस्थित इजरायल भारत का अत्यन्त घनिष्ठ सहयोगी है। भारत की रक्षा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा आतंकवाद से भारत के निपटने के प्रयासों में इजरायल की अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 1990 के दशक से भारत-इजरायल सम्बन्ध लगातार मजबूत होते रहे हैं। इजरायल एवं ईरान की परस्पर शत्रुता के चलते भारत के लिए अपने दोनों मित्र देशों से सम्बन्धों को संतुलित करना काफी कठिन कार्य था। इसी प्रकार यूएसए तथा ईरान के सम्बन्धों की क्लिष्टता का प्रभाव अनेक बार भारत-यूएसए की मित्रता पर पड़ा तथा यूएसए के दबावों के चलते भारत को।ईरान से तेल आयात में कटौती लानी पड़ी।
ऊर्जा आवश्यकताएँ – भारत अपनी ऊर्जा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के।लिए अन्य देशों पर निर्भर है। ईरान इन देशों में प्रमुख है यद्यपि प्रतिबन्धों के चलते भारत ने ईरान से तेल आयात में 26.5% कमी की है। वर्तमान में ईरान भारत का पाँचवाँ सबसे बड़ा पेट्रोलियम आपूर्तिकर्ता देश है जबकि पहले यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा पेट्रोलियम आपूर्तिकर्ता देश था।
ईनान की परमाणु आकांक्षां तथा भारत
भारत सदा से ही सभी देशों द्वारा परमाणु ऊर्जा नागरिक आदरश्यकताओं की परति हेतु इस्तेमाल किए जाने परमाणु शस्त्रों के प्रसार पर रोक लगाने की दकालत करता है। भारत वस्तुतः विश्वभर से सभी प्रकार के परमाणु हथियार नष्ट किए जाने की माँग करता रहा है। उपरोक्त नीति के अनुरूप ही भारत ईरान के नागरिक परमाणु ऊर्जा उपयोग के अधिकार का समर्थन करता है। भारत ईरान द्वारा परमाणु शस्त्र विकास किए जाने की स्थिति का विरोध करता है।।भारत अपने पड़ोस में एक और परमाणु शक्ति की उपस्थिति का विरोधी है। परमाणु शक्ति-सम्पन्न ईरान रणनीतिक रूप से भारत का नकारात्मक सरूप से प्रभावित कर सकता है। शिया बहुल ईरान द्वारा परमाणु शस्त्र विकसित किए जाने की सम्भावना से अरब जगत के सुन्नी राष्ट्र (सऊदी अरब, कतर आदि) आशंकित थे तथा सऊदी अरब द्वारा पाकिस्तान को व्यापक आर्थिक सहायता दी जाती रही।है, ताकि वह ईरान को प्रति संतुलित करे। पाकिस्तान को सऊदी अरब की सहायता भारत के लिए चिन्ता का विषय रही है।
इस सहायता राशि का एक बड़ा हिस्सा भारत विरोधी गतिविधियों में इस्तेमाल होता रहा है, जिनमें आतंकी संगठनों का पोषण प्रमुख है। ईरान की परमाणु शस्त्र विकसित करने की क्षमताओं पर रोक लगने से उपरोक्त परिदृश्य में परिवर्तन आने की सम्भावना है जो सम्भवतः भारत के लिए सकारात्मक सिद्ध हो।
समझौते का भारत पर प्रभाव
भारत के लिए यह समझौता सामान्य तौर पर सकारात्मक परिणामयुक्त सिद्ध होने की सम्भावना है। भारत लम्बे समय से इस बात के लिए प्रथतनशील रहा कि ईंरान तथा यूएसए में सीधी बात हो तथा संकट का कूटनीतिक एव शान्तिपूर्ण हल निकाला जाए। ईरान में उदारवादी राष्ट्रपति हसन रोहानी के सत्ता में आने के पश्चात कुटनीतिक प्रयास तेब हुए तथा समझौता सम्भव हो पाया। भारत के सन्दर्भ में निम्न परिणाम सम्भव हैं
सकारात्मक
- ईरान से तेल आयात में वृद्धि ।
- सस्ते तेल आया से भारत के विदेशी मुद्र भण्डार पर
- रुपए के मूल्य में वृद्धि
- ईरान के साथ दीर्कालिक करार सम्मद जिनसे 85 अरब
- डॉलर तक की वत सम्भव
- भारतीय तेल कम्यानियों के लिए ईरान के साथ रयापार में आसानी।
- ईरान- पाकिस्तात-भारत गैस पाइपलाइन को पुनर्जीवित किए जाने की सम्भावना।
नकारात्मक
वैश्चिक प्रतिबन्धों के चलते ईरान अपने तेल की विक्री काफी कम मूल्य पर करता है। ईरान भारतीय रुपए को भी रनीकार करता है। भविष्य में प्रतिबन्धमुक्त ईरान अपने तेल की कीमत बढ़ा सकता है तथा रुपए को अस्वीकार कर सकता है।
समझौते का विरोध
इजरायल
ऐतिहासिक करार दिए जा रहे इस समझौते को इजरायल ने ऐतिहासिक भूल बताया है। इजरायल तथा इरान वस्तुतः पिछले कुछ समय से कई बार युद्ध के कगार पर पहुंच चुके हैं। इजरायल ने ईरान के परमाणु संयन्यो पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट करने की योजनाएं भी बना ली थी। इस योजना में सऊदी अरब को सहयोग भी माना जा रहा था। इजरायल की माँग है कि ईरान का . परमाणु कार्यक्रम पूर्णतः समाप्त किया जाए। यूएसए में इजरायल समर्थक लॉबी इसके लिए पूरा दचाव भी बनाए हुए थी। सम्भवतः इसी कारण यूएसए ने ईंरान के साथ पर्दे के पीछे गुप्त बार्ताएँ कीं।
अरब राष्ट्र
इस समझौते को लेकर अरब क्षेत्र के सुन्नी बहुल देशों (यथा सऊदी अरब, कतर, मिल्र, कुवैत आदि) ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी है। इस क्षेत्र में एक तरफ जहाँ सुन्नी बहुल देशों का यूएसए तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है वहीं शिया बहुल राष्ट्रो-ईरान, सीरिया, इराक से पश्चिम के सम्बन्ध प्रायः तनावपूर्ण रहे हैं। वर्तमान समझौता उपरोक्त समीकरण को बदल सकता है। शक्तितशाली तथा बड़ी जनसंख्या वाला ईरान पश्चिम के समर्थन से उक्त क्षेत्र में अपने प्रभुत्व का विस्तार कर सकता है जो सुन्नी जगत को आसानी से स्वीकार्य नहीं होगा।
ईनान का पनमाणु कार्यक्रम तथा विवाद प्रमुव घटनाएँ
जून, 2011 ईरान द्वारा बुशहर परमाणु संयन्त्र को बिजली उत्पादन हेतु राष्ट्रीय ग्रिड से जोड़ा गया।
जून, 2010 सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान पर चौथे दौर के प्रतिबन्ध लगाए गए। अप्रैल, 2007 ईरान ने औद्योगिक स्तर पर परमाणु ईंधृन उत्पादन की घोषणा की।
अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी (आईएईए) की रिपोर्ट में माना गया कि ईरान परमाणु हथियार विकसित कर सकता है। अगस्त, 2005 ईरान ने परमाणु संदर्द्धन कार्यक्रम पुनः प्रारम्भ करने की घोषणा की जबकि आईएईए ने ईरान को परमाणु अप्रसार सन्धि (एनपीटी) के उल्लंघन का दोषी ठहराया।
नवम्बर, 2003 ईरान द्वारा यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम स्थगित किए जाने की घोषणा। सितम्बर, 2003 आईएईए ने तेहरान को यह सिद्ध करने के लिए एक सप्ताह का समय दिया कि उसका परमाणु कार्यक्रम, परमाणु शस्त्र विकास के लिए नहीं है। सितम्बर, 2002 रूसी विशेषज्ञों ने ईरान का बुशहर परमाणु रिएक्टर प्रारम्भ किया। ऐसा यूएसए के विरोध के बावजूद किया गया। जनवरी, 2002 अमेरिकी के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इराक और उत्तर कोरिया के साथ-साथ ईरान को बुराइयों की धुरी बताया|
अन्य देशों का दृष्टिकोण
फ्रांस
यद्यपि फ्रांस इस समझौते में शामिल पक्षों में से एक था समझौते के पश्चात फ्रांस की प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं दिखी फ्रांस वस्तुतः समझौते को सम्भव बनाने के लिए पर्दे के पीछे चली गुप्त वार्ताओं को लेकर निराश था। फ्रांस की प्रतिक्रिया के पीछे इस समझौते के आलोचक इजरायल तथा समझौते के प्रति आशंकित सुन्नी अरब राष्ट्रों के दृष्टिकोण भी जिम्मेदार हैं। इजरायल फ्रांस का घनिष्ठ सहयोगी है। यूरोप में सर्वाधिक यहूदी फ्रांस में ही बसते हैं। दूसरी तरफ सुन्नी अरब राष्ट्रों ने फ्रांस से मजबूत व्यापारिक सम्बन्ध बनाए हैं।
यूएसए
यूएसए ने यह समझौता करके एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि हासिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है। इस समझौते से पिछले 34 वर्षों से दोनों देशों के सम्बन्धों में व्याप्त तनाव समाप्त होने की पहल हो गई है। वर्तमान में यूएसए अफगानिस्तान में उलझा है तथा किसी तरह वर्ष 2014 तक अपने सैनिकों को सुरक्षित अफगानिस्तान से निकाल ले जाने तथा अफगानिस्तान में शान्ति सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहा है।
अफगानिस्तान से बाहर निकलने के यूएसए के प्रयासों को पाकिस्तान अपने पक्ष में दोहन कर रहा है। ईरान से सकारात्मक सम्बन्ध विकसित करके यूएसए अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को ईरान के रास्ते निकाल सकता है। इस सन्दर्भ में भारत द्वारा अफगानिस्तान में निर्मित जरांज-दलारम सड़क मार्ग (जो ईरान के चाहबहार बन्दरगाह तक जाता है) रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हो गया है।
ईरान के साथ यह समझौता इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यूएसए वर्तमान में एक और युद्ध छेड़ने का खतरा नहीं उठाना चाहता है। ईरान को रूस तथा चीन का खुला समर्थन तथा इराक एवं अफगानिस्तान युद्धों तथा सीरिया के हालिया घटनाक्रम के अनुभवों के आधार पर यूएसए के समक्ष युद्ध के नकारात्मक पहलू स्पष्ट हो गए। सम्भवतः ईरान भी प्रतिबन्धों तथा निरन्तर युद्ध की धरमकियों के माहौल से बाहर निकलकर वैश्विक परिदृश्य पर अपनी भूमिका निभाने तथा क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरने की आकांक्षा की पूर्ति हेतु शान्तिपूर्ण कूटनीति के मार्ग के महत्व को समझ गया है।
निष्कर्ष
यद्यपि वृहद रूप में समझौते के परिणत होने में अभी काफी समय शेष है परन्तु ईरान तथा यूएसए दोनों ने कूटनीतिक लचीलेपन का परिचय देकर साहस एवं दूरदृष्टि का काम किया है। इससे दोनों पक्षों के साथ-साथ भारत के लिए स्थितियाँ अनुकूल होने की सम्भावना बलवती हुई इससे दोनों पक्षों के साथ-साथ भारत के लिए स्थितियाँ अनुकूल होने की सम्भावना बलवती हुई है। इससे विशेष रूप से पश्चिम एशिया तथा समग्र रूप से वैश्विक स्तर पर तनाव घटेगा तथा शान्ति स्थापित होगी।