बिहार की कोहबर व भोजपुरी शिल्प
कोहबर शिल्प

कोहबर चित्र शैली का प्रचलन यूँ तो पूरे बिहार में है। लेकिन, मिथिलांचल और भोजपुर की कोहबर चित्र शैली विशेष रूप से विकसित है। कोहबर का मतलब होता है ऐसा कमरा, जिसमें शादी के बाद दूल्हा-दुल्हन पहली बार मिलते हैं । दोनों ही क्षेत्रों में विवाह सामाजिक संस्कृति के निरंतर प्रवाह का सूचक है और कोहबर घर की सज्जा उसका सांस्कृतिक वैभव। यह नव दंपत्ति के आटूट संबंध का प्रतीक माना जाता है दोनों एक-दूसरे के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होने का संकल्प उसी घर में लेते हैं।
मिथिलांचल के कोहबर घर की सजावट में विशेष अलंकरण देखने को मिलता है। सुहागन स्त्रियाँ अपने कुल देवता का स्मरण करती हुई नव दम्पति के मंगल जीवन की कामना के साथ चित्रांकण की शुरुआत करती है। जिस दीवार पर चित्रांकण किया जाता है, उसे पहले चूने से सफेद किया जाता है । फिर उस पर रेखांकन गेरू अथवा हल्दी के रंगों से किया जाता है । कोहबर चित्रण में काले रंग का प्रयोग वर्जित है। चारों कोनों पर और केन्द्र में स्वास्तिक का चित्रण होता है। कोहबर घर की पूरी दीवार पर चित्रांकन किया जाता है।
क्षेत्र में भी कोहबर एक अनोखी एवं अविस्मरणीय कला-परम्परा के रूप में स्थापित है। कोहबर लेखन क्षेत्र की एक ज्यामितीय पद्धति की रेखांकन कला है, जो पूर्णतः धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है। यहाँ की कोहबर शैली का एक अलग आनंद है। इस क्षेत्र में विवाह के अवसर पर घर की आतंरिक दीवार, देवता घर, पूजा घर अथवा देव स्थान के निकट कोहबर बनाया जाता है। कहीं-कहीं आँगन में भी कोहबर बनाने की परम्परा है।
कोहबर की रचना प्रक्रिया में पहले दीवार पर कली-चूना से सफेदी की जाती है उसके सूखने पर गोबर से लीपकर गेरू से रेखांकन किया जाता है। कहीं -कहीं चावल-हल्दी के मिश्रण से अथवा सिंदूर तथा काजल से भी चित्रांकन होता है। रेखांकन के लिए ब्रश के स्थान पर बाँस की कूँची का इस्तेमाल होता है,जिसे औरतें स्वयं तैयार करती हैं। कोहबर का स्वरूप वर्गाकार या आयताकार होता है।
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भोजपुरी कला
पिड़िया लेखन बिहार के भोजपुरी क्षेत्र की पारम्परिक चित्रकला शैली है, जिसकी हर वर्ष भैयादूज’ के दिन विधिवत शुरुआत होती है। गोधन कुटने के बाद महिलाएँ गोबर की पिंडी बनाकर दीवा रपर चिपका देती हैं। पन्द्रह दिन बाद भाइयों की संख्या के अनुरूप सोरहिया पिंड बनाती हैं। फिर 15दिनों के बाद पिड़िया पर्व का आयोजन किया जाता है। उस दिन महिलाएँ उपवास रखकर पूजा-अर्चना करती हैं । दीवार पर लगे गोबर पिंड को उखाड़ कर वे गीत गाते हुए वहाँ पिड़िया लेखन करती है। इसके तहत वे सेम की पत्ती घिसकर दीवार पर हरे रंग की एक विशाल मानव आकृति बनाती हैं। तदुपरांत चावल पीसकर तैयार किये गए उजले रंग से बाँस की कूंची के सहारे सूर्य, चांद,तारे, बिच्छू झाड़ू, साँप, चूल्हा, फूल, डोली, जाता, ढेका और मछली आदि की आकृति बनाती हैं। इन आकृतियों का संबंध मुख्य रूप से लोक जीवन से होता है। उन आकृतियों के चारों तरफ़ खास प्रकार की रेखाएँ खींचकर उनका बॉर्डर बनाया जाता है। हरे रंग की पृष्ठभूमि पर उजले रंग का रेखांकन बहुत कम कलाओं में देखने को मिलता है। पिड़िया लेखन को कहीं-कहीं सिंदूर से टीक देने का भी प्रचलन हैं। गाँवों की दीवारों पर उत्कीर्ण पिड़िया चित्रों का सौन्दर्य कला-प्रेमियों को आकर्षित करने लगा है और उनसे प्रोत्साहन पाकर वहाँ की महिलाएँ अब उसे कागज़ पर उतारने लगी है । इस कलाको जीवंत बनाये रखने हेतु बिहार सरकार का सतत् प्रयास जारी है। अब यह कला व्यावसायिक क्षेत्रमें प्रवेश की ओर अग्रसर है।

बिहार के भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में महिलाओं द्वारा गेहूँ के डंठल, राढ़ी तथा मूँज से आकर्षक टोकरी, डोलची, डलिया, पशु-पक्षी, गुलदस्ता, खिलौने, दउरा और झापी इत्यादि बनाने की परम्परासदियों से विद्यमान है। शादी-ब्याह, पर्व-त्यौहार या सामाजिक उत्सवों के अलावा दैनिक जीवन में इन वस्तुओं का प्रयोग होता है। इसलिए वहाँ के लोग धान- गेहूँ ढोने से लेकर छोटी -बड़ी जरूरतों केलिए टोकरी, डलिया या दउरा इत्यादि का प्रयोग करते हैं। लेकिन व्यावसायिक उपयोग न होने के कारण यह कला घर-आंगन तक ही सीमित है। जरूरत है इस कला को व्यावसायिक स्वरूप देने की।तभी मिथिलांचल की सिक्की कला की तरह यह कला भी देश-दुनिया के बाज़ार में अपना स्थान बना पायेगी।
