आधुनिक भारत के वैज्ञानिक

आधुनिक भारत के वैज्ञानिकश्रीनिवास रामानुजन (1887-1920 ई.) , चन्द्रशेखर वी रमन (1888-1970 ई.) , होमी जहांगीर भाभा (1909-1966 ई.) , जगदीशचन्द्र बोस (1858-1937) ,डा. विक्रम अम्बालाल साराभाई (1919-1970 ई.) , डा. ए.पी.जे अब्दुल कलाम…..

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सर सी वी रमन भारतीय वैज्ञानिक चिंतन धारा में अभूतपूर्व परिवर्तन लाए। डा. होमी जे. भाभा ने, जिन्हें हमारी आणविक भौतिकी का जनक कहा जाता है, भारतीय विज्ञान का भविष्य पहले ही लिख डाला था। वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में जे सी बोस, परमाणु ऊर्जा और औद्योगीकरण के क्षेत्र में डा. विक्रम साराभाई, रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि वैज्ञानिकों के क्रान्तिकारी परिवर्तनों ने आधुनिक भारत का गौरव बढ़ाया।

श्रीनिवास रामानुजन (1887-1920 .)

श्रीनिवास रामानुजन जो श्रीनिवास आयंगर रामानुजन के नाम से विख्यात हैं, भारत के प्रतिभाशाली इस गणितज्ञ का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु में इरोड नामक स्थान पर हुआ। बाद में इनके माता-पिता चेन्नई से 160 किलोमीटर दूर कुम्बकोणम चले गए रामानुजन ने कुम्बकोणम में टाउन हॉल स्कूल में अध्ययन किया जहाँ उन्होंने अपने आप को प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध किया। उनकी गणित में अद्वितीय रुचि थी। गणितीय अंकों से उनका स्वाभाविक लगाव था। स्कूल में 13 वर्ष की आयु में उन्हें एक पुस्तक मिली जिसका नाम था- ‘सिनोप्सिस ऑफ एलीमेन्टेरी रिजल्टस इन प्योर मेथेमेटिक्स’, जिसके लेखक थे जी.एस. कर , पुरानी होने पर भी इस पुस्तक ने उनको गणित की दुनिया से परिचित करवाया। उन्होंने गणित के क्षेत्र में अपने विचार विकसित करना और आगे कार्य करना प्रारंभ कर दिया। वह अपने विचारों और परिणामों को नोट करने लगे और अपने परिणामों पर अपने नोट्स बनाने लगे।

ऐसी तीन शोधपरक डायरियाँ जिनमें उनका अन्वेषण कार्य भरा हुआ है, आज हमें उपलब्ध हैं। उन्हें रामानुज की फ्रेंड नोटबुक्स कहा जाता है। वह अपनी कालेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाये क्योंकि उनका सारा समय गणित में ही बीत जाता था। वे अपने विचारों को विकसित करते रहे और नई-नई समस्याओं को प्रस्तुत करके उनके समाधान ‘जर्नल ऑफ इण्डियन मैथेमेटिक्स’ पत्रिका के माध्यम से प्रकाशित करते रहे । 1911 में उन्होंने इसी पत्र में ‘बरनौली संख्याएँ’ विषय पर एक बहुमुल्य अनुसंधान-पत्र प्रकाशित किया। इस पत्र से उन्हें पहचान मिली और वह मद्रास के शिष्टजनों में एक गणित विषयक विशिष्ट प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

औपचारिक शिक्षा के अभाव में उन्हें गुज़ारा चलाना कठिन हो गया। बड़़ी मुश्किल से उन्हें मद्रास पोर्ट ट्रस्ट (Madras Port Tnsi) में एक क्लर्क को नौकरी मिली जो अंत में उनके लिए भाग्यशाली सिद्ध हुई। यहाँ वे अनेक ऐसे लोगों के संपर्क में आए जिन्होंने गणित में प्रशिक्षण प्राप्त किया था उन्हें जी एच हार्डी (GH. Hardy) द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘आर्डरज ऑफ इनफिनिटि’ प्राप्त हुई। उन्होंने हार्डी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने 120 प्रमेय और सूत्र लिखे। हार्डी ने तुरंत उनकी प्रतिभा को पहचान लिया और इसके जवाब में उन्होंने लंदन तक की यात्रा की व्यवस्था कर दी। अपेक्षित योग्यता न होंने पर भी उन्हें ट्रिनिटी कालेज में प्रवेश की अनुमति मिल गई जहाँ उन्होंने दो साल से भी कम अवधि में ही बैचलर ऑफ साइंस की उपाधि प्राप्त कर ली। उन्होंने हार्डी और जे ई लिटलवुड के साथ एक उत्तम टीम बनाई और गणित के क्षेत्र में आश्चर्यजनक योगदान किए। उन्होंने लंदन में अनेक शोधपत्र प्रकाशित किए वह लंदन की राॅयल सोसाइटी के फैलो चुने जाने वाले दूसरे भारतीय थे और ट्रिनिट कालेज के फैलो चुने जाने वाले प्रथम भारतीय थे। रामानुजन का संख्याओं से अत्यधिक लगाव था। 1917 में वह बहुत अधिक बीमार पड़ गये लेकिन संख्याएँ अभी भी उनकी मित्र बनी रहीं यद्यपि उनका शरीर धोखा देता जा रहा था।

दुर्भाग्यवश उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और वह 1919 में भारत लौट आए। एक वैज्ञानिक पहचान और प्रतिष्ठा के साथ वे 1920 में मृत्यु को प्राप्त हो गए। उनकी गणितीय प्रतिभा इस बात का प्रमाण है कि भारत वास्तव में महान गणितीय विचारों का जन्म स्थान और स्रोत रहा है।
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चन्द्रशेखर वी रमन (1888-1970 .)

चन्द्रशेखर वी रमन जो सी वी रमन के नाम से प्रसिद्ध हैं, न केवल एक महान वैज्ञानिक थे बल्कि मानव कल्याण और मानवीय सम्मान की वृद्धि में विश्वास करते थे। उन्होंने 1930 में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त किया और यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले वह पहले एशियाई थे। श्री सी वी रमन का जन्म 7 नवंबर, 1888 ई. में तमिलनाडू में तिरूचिरापल्ली नगर था। उनके पिता भौतिकी और गणित के प्रोफेसर थे। वह संस्कृत साहित्य, संगीत और विज्ञान के वातावरण में पले बड़े हुए। प्रकृति ने उन्हें तीव्र एकाग्रता, बुद्धि और अन्वेषण की प्रवृत्ति प्रदान की थी। बचपन में भी वह बाल प्रतिभा के रूप में प्रसिद्ध थे । वह भारतीय ऑडिट और अकाउन्ट्स परीक्षा में प्रथम आए और 19 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता में वित्त विभाग में सहायक अकाउन्टेंट जनरल के पद पर नियुक्त कर दिए गए। उन्होंने विज्ञान के प्रति अपनी रूचि के कारण इस उच्च पद का भी बलिदान कर दिया और कलकत्ता विश्वविद्यालय के सांइस कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में कार्य करने लगे। संगीत में गहरी रुचि होने के कारण उन्होंने संगीत के वाद्ययंत्रों, वीणा, वायलिन, तबला और मृदंग पर काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने लंदन की रायल सोसाइटी में तार वाद्य यंत्रों के सिद्धांत पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया। 1924 में वह राॅयल सोसायटी के फेलो बना दिए में हुआ गए लंदन की ओर अपनी यात्रा के समय वह समुद्र के नीले रंग से बहुत अधिक प्रभावित हुए।

वह यह जानने को उत्सुक हो उठे कि इतनी विशाल तरंगों के उछाल के उपरांत भी पानी का रंग नीला ही क्यों रहता है। तब उन्हें अंतर्ज्ञान की झलक प्राप्त हुई कि यह पानी के अणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश के बिखरने के कारण होता है। उन्होंने अनेक अनुसंधान किए और प्रकाश के आणविक बिखराव पर लंबा शोध प्रबंध तैयार करके लंदन की राॅयल सोसायटी को भेज दिया। विज्ञान जगत उनके मस्तिष्क की प्रतिभा की चमक से आश्चर्यचकित रह गया।

रमन प्रभाव

जब एक रंग का प्रकाश पुंज एक पारदर्शी पदार्थ से गुजरता है, तो वह बिखर जाता है। रमन ने इस बिखरे हुए प्रकाश का अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि पानी में डाली गई एक प्रमुख प्रकाश की रेखा के समानान्तर दो बहुत कम चमक वाली रेखाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। इससे यह ज्ञात होता है यद्यपि पानी में डुबोया गया प्रकाश एकवर्णी था परंतु बिखरा हुआ प्रकाश एकवर्णी नहीं था। इस प्रकार प्रकृति का एक बहुत बड़ा रहस्य उनके समक्ष उद्घाटित हो गया। यह परिवर्तन रमन प्रभाव के नाम से ही प्रसिद्ध हो गया और बिखरे हुए प्रकाश की विशेष रेखाएँ भी ‘रमन रेखाएँ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई। यद्यपि वैज्ञानिक इस प्रश्न पर विवाद करते रहे हैं कि क्या प्रकाश लहरों के समान हैं अथवा कणों के? लेकिन रमन प्रभाव ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकाश छोटे-छोटे कणों से मिल कर बनता है जिन्हें फोटोन कहा जाता है।

डा. रमन एक महान शिक्षक और एक महान पथप्रदर्शक भी थे। वह अपने छात्रों में अत्यधिक आत्मविश्वास भर देते थे। उनका एक विद्यार्थी बहुत ही निराश था क्योंकि उसके पास केवल एक किलो वाट की शक्ति बाला एक्सरे यंत्र था जबकि उस समय इंग्लैण्ड में वैज्ञानिक 5 किलोवाट की शक्ति वाले एक्सरे यंत्र से कार्य कर रहे थे। डा. रमन ने उसे प्रोत्साहित करते हुए बदले में 10 किलोवाट की शक्ति वाला मस्तिष्क प्रयोग करने का सुझाव दिया डा. रमन का जीवन हम सबके लिए अनुकरणीय है। जब भारत अंग्रेजों के अधीन था और शोध कार्य के लिए भौतिक संसाधन बहुत सीमित थे. उन्होंने अपनी प्रतिभाशाली मस्तिष्क रूपी प्रयोगशाला का हो प्रयोग किया। उन्होंने अपने जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कर दिखाया कि किस तरह हमारे पूर्वजों ने मस्तिष्क के बल पर बड़े-बड़े सिद्धांतों को खोज कर डाली।
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जगदीशचन्द्र बोस (1858-1937)

भारत में एक अन्य सुविख्यात वैज्ञानिक जे. सी. बोस हुए जिन्होंने देश को गौरव और सम्मान प्राप्त करवाया। इनका जन्म 30 नवम्बर सन् 1858 ई. में मेमनसिंह नामक जगह पर हुआ जो कि अब बंग्लादेश में है। यहीं पर इन्होंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की कलकत्ता के सेंट जेवियर कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1885 ई. में इनको प्रेसीडेंसी कालेज कलकत्ता में भौतिकी के सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्त किया गया, पर इन्होंने वेतन लेने से मना कर दिया क्योंकि यह वेतन अंग्रेज प्राध्यापक के वेतन का आधा था, बाद में इन्होंने वैज्ञानिक बनने का फैसला किया जिससे वे भारत के उस सम्मान को वापस ला सकें जो उसे प्राचीन काल में प्राप्त था उन्होंने विद्युतीय किरणों की खूबियों का अध्ययन करने के लिए एक यंत्र बनाया।

उन्हें 1917 ई. में सरदार ‘नाइट’ और 1920 ई. में लंदन की रायल सोसाइटी का फेलो भी बनाया गया। यह सम्मान प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय भौतिकशात्र वेत्ता थे।
डा. बोस पूरे विश्व में अपने यंत्र क्रेस्कोग्राफ के आविष्कारक के रूप में प्रसिद्ध हैं । यह यंत्र पौधों की वृद्धि और गति के एक मिलीमीटर उन्नति के दसलाखवें हिस्से को भी दर्ज कर सकता है। उन्होंने अपने क्रेस्कोग्राफ के द्वारा लिए गए रेखाचित्रों से यह प्रमाणित किया कि पौधों में भी संचार व्यवस्था होती है। क्रेस्कोग्राफ ने यह भी सिद्ध किया कि पौधों में वृद्धि उनमें स्थित जीवित कोशिकाओं के कारण होती है। डॉ. बोस ने अनेक यन्त्र भी बनाए जो विश्व में बोस यन्त्रों के नाम से विख्यात हैं । वे यन्त्र यह सिद्ध करते हैं कि धातुएँ भी बाहरी प्रेरक के प्रति प्रतिक्रिया करती हैं और कैंची और मशीन के पुर्जे भी थकान अनुभव करते हैं और कुछ समय विश्राम करने के बाद पुनः कुशलतापूर्वक कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं। रस की ऊपर की ओर गति उनकी जीवित कोशिकाओं के फलस्वरूप है। क्रेस्कोग्राफ तथा बोस यंत्रों के अलावा, उनके बेतार आविष्कारों ने मारकोनी के आविष्कारों को भी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने ही सर्वप्रथम एक बेतार कोहर (रेडियो सिग्नल डिटेक्टर) तथा एक अन्य यंत्र बनाया जिससे विद्युतीय तरंगों का परिवर्तन ज्ञात होता है। जब किसी व्यक्ति ने उनका इस और ध्यान आकर्षित किया तो उन्होंने सरलता से उत्तर दिया कि यह ऐसा आविष्कार है जो मानवता के लिए आविष्कारक से भी अधिक उपयोगी है।
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होमी जहांगीर भाभा (1909-1966 .)

डा. होमी जहांगीर भाभा एक महान वैज्ञानिक थे। वे भारत को आणविक युग में ले गये। वे भारतीय नाभिकीय विज्ञान के जनक कहलाते हैं। उनका जन्म 30 अक्टूबर, 1909 ई. की एक प्रसिद्ध पारसी परिवार में हुआ था। अपने बाल्यकाल में ही उन्होंने अपनी प्रखर बुद्धि का परिचय देना प्रारंभ कर दिया था और अनेक पुरस्कारों को प्राप्त किया। उनका प्रारंभिक अध्ययन मुंबई में हुआ। उन्होंने कैम्ब्रिज से प्रथम श्रेणी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की, वहीं शोध कार्य पूरा किया और 1935 तक कॉस्मिक रेडिएशन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मौलिक शोध कार्य किया। जब द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया तब वे भारत वापस आ गए।
डा. भाभा ने डा. सी वी रमन के अनुरोध पर इण्डियन इंस्टीटयूट ऑफ साइसेंज संस्था में, जो बंगलूरू में स्थित थी, एक प्रवाचक के पद पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया। शीघ्र ही वे भौतिकी के प्रोफेसर बन गए। इसी समय उन्हें भौतिकी में कुछ नवीन क्षेत्रों में शोध कार्य हेतु एक शोध संस्थान बनाने का विचार आया। उन्होंने एक महान निर्णय लिया और एक पत्र सर दोराब जी टाटा को लिखा जिसमें भारत की विश्व आणविक शक्ति की नींव बनाने के लिए एक नवीन शोध संस्थान खोलने का सुझाव दिया गया था यह संस्थान अपने विशेषज्ञ पैदा करेगा जिससे भारत को बाहरी स्रोतों पर निर्भर न रहना पड़े। परिणामस्वरूप ‘टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फण्डामेंटल रिसर्च’ नामक संस्थान 1965 में डा. भाभा के पैतृक निवास पर खोल दिया गया। भारत का प्रथम आणविक शोध केन्द्र जो अब भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर (BARC) कहलाता है, ट्राम्बे में स्थापित है।

उन्हीं के विशेष मार्गदर्शन में भारत का प्रथम आणविक रिएक्टर ‘अप्सरा’ स्थापित हुआ। भाभा 1948 में स्थापित भाभा एटोमिक एनर्जी कमिशन के प्रथम अध्यक्ष बने। आणविक शक्ति के क्षेत्र में उनके अध्ययन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुमूल्य समझे जाते हैं। उन्होंने आणविक शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोगों के लिए यू एन द्वारा प्रायोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की भी अध्यक्षता की। भारत सरकार ने उन्हें 1966 में पद्मभूषण की उपाधि से सम्मानित किया। डा. भाभा की मृत्यु एक विमान दुर्घटना में हुई।
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डा. विक्रम अम्बालाल साराभाई (1919-1970 .)

डॉ. विक्रम अम्बालाल साराभाई आधुनिक भारत की एक अन्य विशिष्ट प्रतिभा है। भारत के प्रथम उपग्रह ‘आर्यभट’ के प्रक्षेपण में उनका प्रमुख योगदान था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने माता-पिता द्वारा चलाए गए एक विद्यालय में प्राप्त की। उन्होंने डा. सी वी रमन के मार्गदर्शन में कॉस्मिक किरणों का अध्ययन किया और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। उनके कॉस्मिक किरणों के अध्ययन ने यह स्पष्ट कर दिया कि काॅस्मिम किरणें बाहरी अंतरिक्ष से आने वाली शक्ति कणों की एक धारा है । पृथ्वी तक आते-आते वे रास्ते में सूर्य से, पृथ्वी के वातावरण से और चुंबकीय शक्ति से प्रभावित होती जाती हैं।

डा. साराभाई एक बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे वह एक महान उद्योगपति थे। आज बहुत से उद्योग उन्हीं के द्वारा स्थापित किए गए हैं जैसे साराभाई कैमिकल्ज, साराभाई ग्लास, साराभाई गेजी लिमिटेड, साराभाई मर्क लि. तथा अन्य। उन्होंने सैनिक संयंत्र और एंटीबायोटिकल तथा पेनेसिलोन का भारत में निर्माण का आयोग स्थापित करके भारत के करोड़ों रुपये बचाये। इन वस्तुओं का अभी तक विदेशों से ही आयात किया जाता था। वे अहमदाबाद टैक्सटाइल इण्डस्ट्रियल एसोसिएशन तथा अहमदाबाद मनी एसोसिएशन के भी संस्थापक रहे। इस प्रकार उन्होंने एक बड़ी संख्या में सफल उद्योगों की स्थापना की। डा. विक्रम अम्बालाल साराभाई ने कई अंतराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संस्थान स्थापित किये जिनमें से कुछ इण्डियन इन्स्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट के नाम से विश्वस्तर पर प्रबंध शास्त्र के अध्ययन के लिए प्रसिद्ध हैं।

वह इण्डियन नेशनल कमीशन फॉर स्पेसरिसर्च (IN GOSPAR) तथा एटमिक रिसर्च कमीशन के अध्यक्ष थे। उन्हीं के मार्गदर्शन में धुम्बाइ क्विटेरियल रॉकेट लाचिंग स्टेशन (TERLS) को स्थापना हुई। उन्होंने सेटेलाइट संचार माध्यम से गांवों तक शिक्षा को पहुंचाने कीं योजनाएं बनाई। उन्हें 1966 में पदाभूषण और उनकी मृत्यु के बाद पद्म विभूषण की उपाधि प्रदान की गई। उनकी मृत्यु भारत के लिए एक महान क्षति थी।
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डा. .पी.जे अब्दुल कलाम

भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 ई. में तमिलनाडु के द्वीपीय नगर रामेश्वरम में हुआ विज्ञान और अभियान्त्रिकी के क्षेत्र में उनके अभूतपूर्व योगदान हेतु उन्हें भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारत रत्न’ से 1997 में सम्मानित किया गया। डा. कलाम की प्रारंभिक शिक्षा रामेश्वरम में ही हुई। उन्होंने रामनाथपुरम् के श्वार्ज हाई स्कूल से दसवीं कक्षा उत्तीर्ण की और मद्रास इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी से एयरोनोटिकल
इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की। डॉ.कलाम ने 1963-1982 तक इण्डियन स्पेस रिंसर्च ऑरगेनाइजेशन (ISRO) में कार्य किया। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर में उन्होंने उपग्रह छोड़ने के लिए सेटेलाइट लांच विहीकल (SLV3) को विकसित किया जिसके द्वारा 1982 में
रोहिणी’ उपग्रह आकाश में छोड़ा गया। डिफेंस रिसर्च डिवेलपमेंट ऑरगेनाइजेशन (DRDO) के निदेशक के पद पर उन्हें इन्टीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डिवलपमेंट प्रोग्राम (IGMDP) का उत्तरदायित्व सौंपा गया। उन्होंने सुरक्षा सेवाओं के लिए पांच परियोजनाएँ विकसित की-
पृथ्वी, त्रिशूल, आकाश, नाग और अग्नि।

उन्होंने भारत को आत्मनिर्भरता के युग में पहुंचा दिया। सतह से सतह पर मार करने वाली मिसाइल अग्नि एक अतुलनीय उपलब्धि है। इसके सफलतापूर्वक निर्माण ने भारत को अत्यधिक विकसित देशों के क्लब का सदस्य बना दिया। ‘अग्नि’ के लिए जो हल्के भार वाला कार्बन तैयार किया गया था, उसका प्रयोग पोलियो के पीड़ितों के कृत्रिम अंग बनाने के लिए किया जा रहा है। इसके कारण उस उपकरण का वजन 4 kg से घटकर 400 ग्राम रह गया है। मनुष्यों कोे लिये यह एक बड़ी नियामत है। इस सामग्री का उपयोग हृदयरोग के बीमारों के लिए बैलून एन्जियोप्लास्टी के अंतर्गत प्रयुक्त किये जाने वाले स्प्रिंग जैसे छल्लों के जिन्हें स्टेन्ट (Stent) कहा जाता है,भी किया जाता है ।

डा. कलाम का जीवन भारत की आत्मा का जीवंत प्रतीक है। वह भारतीय परम्पराओं और धर्म को सच्चे अर्थों में मानने वालों में हैं। उन्होंने विज्ञान को धर्म और दर्शन के साथ जोड़ दिया। वे अंत: प्रेरणा से मार्गदर्शन प्राप्त करने में विश्वास रखते हैं अर्थात बाहरी निर्देशों के स्थान पर अन्तरात्मा की पुकार को सुनना और निष्काम भावना से अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना सिखाया, डॉ. कलाम कहते हैं- मेरे पास वास्तविक अर्थो में कोई सामग्री नहीं है। मैंने कुछ भी नहीं कमाया है, कु

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