सरकारी नौकरी छोड़ लेखक बने थे परसाई, इनके कॉलम से बढ़ जाती थी पत्रिकाओं की बिक्री

हिन्दी साहित्य की दुनिया में हरिशंकर परसाई ऐसा नाम हैं, जिन्होंने व्यंग्य को समाज का आइना बना दिया। वे हिंदी के पहले रचनाकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा का दर्जा दिलाया और इसे आम आदमी के संघर्षों से जोड़ा। उनकीशरचनाएं सिर्फ कटाक्ष ही नहीं करती थीं, बल्कि चौंकाती भी थीं, इस एहसास के साथ कि जो कुछ हो रहा है, वह सामान्य नहीं है। 10 अगस्त 1995 को उनका निधन हुआ था। परसाई की पुण्यतिथि पर जानते है उनके जीवन से जुड़े कुछ किस्से –

|| 1982 में हरिशंकर परसाई को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।||

हरिशकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी गांव में हुआ था। उन्होंने गांव में ही अपनी शुरुआती शिक्षा पूरी की। फिर एमए की पढ़ाई के लिए नागपूर चले गए। मात्र 18 साल की उम्र में उन्हें फॉरेस्ट डिपाटमेंट में नौकरी मिल गई। हालांकि ये ज्यादा नहीं चली। उन्होंने पहले खंडवा फिर जबलपुर में कुछ सालों तक अध्यापन का काम किया। आखिरकार 1957 में नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की।

|| हरिशंकर परसाई की करीब 20 से ज्यादा किताबे प्रकाशित हुई हैं। उनकी प्रसिद्ध परसाई रचनावली के 6 खंड शामिल है||

परसाई सारिका पत्रिका में छपने वाले कॉलम ‘गर्दिश के दिन’ में प्लेग से अपनी मां की मृत्यु को बचपन की सबसे डरावनी याद बताते हैं। उन्होंने लिखा, ‘1936-37 मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था। तब गांव में प्लेग फैला तो सारी आबादी जंगल में रहने लगी। मां सख्त बीमार थीं। ऐसे में उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गए थे। रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डडरावनी लगती थीं। रात को मरणासन्न मां के सामने हम लोग आरती गाते। गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते। मां बिलखकर हम बच्चों को सीने से लगा लेतीं। हम भी रोने लगते। एक रात तीसरे प्रहर मां की मृत्यु हो गई।प्लेग की वो रातें मेरे मन में गहरी उतरी हैं।

कहलाते थे साहित्य के दिलीप कुमार

लेखक कमलेश्वर परसाईजी की लोक प्रियता पर लिखते हैं “जब भी पत्रिकाओं में परसाई का स्तंभ शुरू होता था तो उनका प्रिंट ऑर्डर बढ़ जाता था। परसाई एक समय पर इतने लोकप्रिय थे कि उन्हें साहित्य का दिलीप कुमार कहा जाता था।’ राजेंद्र चंद्रकांत राय ने हरिशंकर परसाई की जीवनी ‘काल के कपालपर हस्ताक्षर’ में लिखा है कि ‘धर्मयुग’ पत्रिका में हर महीने परसाई के एक या दो लेख छपते थे। वैचारिक रूपमें ये लेख न तो संपादक धर्मवीर भारती के अनुकूल होते थे न ही छापने वाली कंपनी बेनेट कोलमैन के।लेकिन पाठकों की सबसे ज्यादा रुचि इन में होती थी। ऐसे में न चाहते हुए भी परसाई के कॉलम छापे जाते थे।

‘गर्दिश के दिन’ में ही परसाई लिखते हैं, ‘एक विद्या मुझे आ गई थी, वो थी बिना टिकट यात्रा करना। जबलपुर से इटारसी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना डरे, बिना टिकट गाड़ी में बैठ जाता। बचने की बहुत तरकीबें आगई थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। टिकट चेकर प्रभावित हो जाते और कहते, ‘लेट्स हेल्प द पुअर बॉय। परसाई का ज्यादातर जीवन मध्यप्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में बीता। उन्होंने 10 अगस्त 1995 को जबलपुरमें अंतिम सांस ली।

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