पुनर्जागरण युग के अन्य विचारक

पुनर्जागरण युग के अन्य विचारक

मॉण्टेस्क्यू

शक्ति के पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपादक मॉण्टेस्क्यू इंगलैण्ड के स्वतन्त्र वातावरण से बहुत अधिक प्रभावित था. जब वह फ्रांस लौटा तो इंगलैण्ड के परिमित वैधानिक राजतन्त्र का अनुमोदक एवं प्रशंसक था. उसने वहाँ देखा था कि अंग्रेज सरकारी नीति की आलोचना करने, अपने विचारों को प्रगट करने तथा स्वेच्छापूर्ण धर्मपालन में पूर्णतया स्वतन्त्र है. प्रजा न केवल संतुष्ट.एवं प्रगतिशील है, बल्कि उनके व्यक्तिगत एवं.सामूहिक आर्थिक प्रयासों शासन एवं कुलीनों.का कोई हस्तक्षेप नहीं है. उसने अंग्रेजों की.इस स्वतन्त्रता एवं प्रगति का रहस्य खोजने का प्रयास किया. अन्त में वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अंग्रेजों की प्रगति एवं खुशहाली के लिए शासन शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त उत्तरदायी है. अर्थात् राज्य, विधान सभा और न्यायपालिका का पूर्ण पृथक्करण होने के कारण शासन के प्रत्येक अंग के अधिकार सीमित रहते हैं, जिससे प्रजा के स्वार्थों पर कोई आघात नहीं होता है.

मॉण्टेस्क्यू ने इस बात पर जोर दिया कि शासन के अंगों का कार्यक्षेत्र सुनिश्चित, सीमित तथा स्वतन्त्र होना चाहिए. उसका तर्क था कि यदि शासन की विभिन्न शत्तियाँ यदि एक ही केन्द्र में हो जाएंगी, तो नागरिकों।की स्वतन्त्रता कभी भी सुरक्षित नहीं रह पाएगी. यदि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियाँ एक ही व्यक्ति में केन्द्रित हैं, तो निर्णायक के पक्षपातपूर्ण तथा अत्याचारी होने की सम्भावना रहेगी और यदि तीनों शक्तियाँ एक ही व्यक्ति अथवा समूह में केन्द्रित हो।गईं, तो परिणाम निरंकुश शासन ही हो सकता है.

मॉण्टेस्क्यू के विचार

शक्ति के पृथक्करण सिद्धान्त पर जोर.

सामाजिक विज्ञान पर जोर.

सामाजिक सुधारक.

नियमित शासन व्यवस्था पर जोर,

उल्लेखनीय है कि मॉण्टेस्क्यू ने ब्रिटिश।संविधान का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है।वह वास्तव में भ्रमपूर्ण है, क्योंकि इंगलैण्ड में शासन के सभी अंग पूर्णतया पृथक् थे, बल्कि राजा व पार्लियामेंट मिलकर कार्य करते हैं और शक्ति प्रखण्डन के स्थान पर शक्ति केन्द्रीयकरण ही वहाँ के शासन का आधारशिला है. फिर भी 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मॉण्टेस्क्यू के सिद्धान्त को बहुत लोक प्रियता प्राप्त हुई तथा यह सिद्धान्त राजनैतिक स्वतन्त्रता का मूलमन्त्र माना।जाने लगा. यहाँ तक कि अमरीकी संविधान निर्माताओं ने इसी नियम पर अपने संविधान का निर्माण किया. इसी प्रकार 1789 ई. के बाद जब फ्रांस में कई संविधान बने, उनके निर्माण में भी मॉण्टेस्क्यू के इस नियम पर कार्य किया गया.

मॉण्टेस्क्यू के चिन्तन में सामाजिक विज्ञान पर बल दिया गया है, अपनी प्रधान कृति ‘एस्प्रे-दील्वाय’ में जहाँ उसने अपने राजनीतिक विचारों का प्रतिपादन किया है वहीं विभिन्न कानूनों और संस्थाओं को देश-।विदेश के भौगोलिक और प्राकृतिक वातावरण का फल बतलाया है, उसका विचार था कि शासन धर्म और समाज की समस्त संस्थाएँ।इन व्यापक प्रभावों के होती है. यह।अनुरूप।एक मौलिक विचार था कि आगे चलकर इस।पर निर्धारित अनेक शास्त्र, जैसे तुलनात्मक।राजनीति विधान शास्त्र, जीव विज्ञान, धर्म।विज्ञान आदि प्रतिपादित हुए. यद्यपि स्वयं मॉण्टेस्क्यू ने इस नियम की व्यवस्था कई स्थानों पर हास्यजनक की है तथापि आधुनिक विज्ञान में अब यह एक मूल सिद्धान्त माना जाता है.

इस प्रकार यह कहा जा सकता है वह एक समाज सुधारक होने के साथ-साथ एक विकसित एवं व्यवस्थित प्रशासन के पक्षधर थे. वस्तुतः वह न तो लोकतन्त्रवादी था और न ही चर्च या कुलीन वर्ग का शत्रु था. वह तो शासन को नियमित देखना चाहता था. यह उन्हीं के चिन्तन का प्रभाव था कि क्रान्ति युग में सबसे प्रबल जनाकांक्षा एक नियमित संविधान की माँग थी जिसकी आधारशिला शक्ति प्रथक्करण का सिद्धान्त था.

वोल्टेयर

बौद्धिक जागरण का सबसे प्रसिद्ध लेखक वोल्टेयर हुआ है. उन्होंने अपने जीवनकाल।में उसने अनेक पुस्तक-पुस्तिकाएँ, इतिहास, सामयिक निबन्ध आदि लिखे हैं. उन्हें इन्हीं सब उपलब्धियों के कारण ही उसे यूरोप का साहित्य-सम्राट् मान लिया।गया. आधुनिक समालोचकों ने उन्हें सम्पादकों का राजा की उपाधि दी है, जिसका अर्थ है कि वोल्टेयर के चिन्तन में मौलिकता कम, पर रोचकता और चित्तग्राहकता अधिक है. वह भी कई वर्ष इंगलैण्ड में रह चुका था।और वहाँ के शासन-विधान तथा सामाजिक व्यवस्था और अंग्रेज दार्शनिक लॉक की।विचारधारा का अनुमोदक था. वह प्रबुद्ध और प्रगतिशील राजत्व था. पक्षपाती था और।जनता को संडास के जंतु पुकारता था और उन्हें स्वशासन के अधिकार पाने के लिए सर्वथा योग्य समझता था. वह मेधावी और प्रतापी राजाओं और प्रबुद्ध एवं परोपकारी।व्यक्तियों द्वारा शासन और समाज पर नियन्त्रण।चाहता था. वह हर प्रकार के शोषण और अंधविश्वास की व्यंगपूर्ण एवं कटु आलोचना करता था. यद्यपि वह आस्तिक था, लेकिन चर्च का कट्टर विरोधी था. अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में उसका ध्येय चर्च का विध्वंश  करना ही रह गया था.

वोल्टेयर द्वारा रचित विशाल साहित्यिक रचनाओं का प्रभाव यह हुआ कि शिक्षित जनता तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक।व्यवस्था एवं शासन को सर्वथा अनुपयुक्त समझने लगी और चर्च के प्रति उसकी श्रद्धा कम हो गई. चर्च के प्रति विरोध का मूल प्रतिपादक वोल्टेयर को ही कहा जा सकता है.

जॉन लॉक

महान् दार्शनिक जॉन लॉक का जन्म ब्रिटेन में हुआ था. लॉक का मानना था कि।प्रत्येक व्यक्ति को कुछ प्राकृतिक अधिकार।प्राप्त है. यथा- जीवन का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार और निजी सम्पत्ति का अधिकार आदि. बुद्धि का उपयोग करके मनुष्य ने अपने प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार की स्थापना की. लॉक का।कहना था कि जब सरकार अपने इस कर्तव्य का पालन कर सके. तब जनता का उसे पदमुक्त करने का अधिकार है।लॉक महोदय ने मानव मस्तिष्क को भी यान्त्रिक नियमों से परे नहीं माना “ऐसे कन्सर्निंग ह्यूमन अंडरस्टैडिंग (Essay Con- cerning Human Understanding)  नामक अपनी पुस्तक में लॉक ने बताया कि मनुष्य का मस्तिष्क पैदा होने के समय एक सफेद कागज के समान होता है जिस पर कुछ भी अंकित।नहीं होता है बाद में ज्ञानेन्द्रियों और विवेक के कारण मस्तिष्क पर कुछ छाप पड़ती है। इसी प्रकार उन्होंने जन्मजात विशिष्टता के सिद्धान्त को नकार दिया. लॉक पहला व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक था जिसने ज्ञान की

खोज का अनुभव के द्वारा करता था. दोनों ने ही ईश्वरीय रहस्योदघाटन और सत्ता को मानने से इनकार कर दिया इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जॉन लॉंक का प्रबो- धनकालीन चिंतकों में एक अतुलनीय स्थान है।

एडम स्मिथ

एडम स्मिथ एक स्कॉटिश अर्थशास्त्री थे। उन्होंने किसी भी राष्ट्र की समृद्धि के लिए व्यवसाय की स्वतन्त्रता पर बल प्रदान किया उनका कहना था कि व्यवसायियों को किसी भी तरह के धंधे की छूट होनी चाहिए. उसका।कहना था कि व्यवसायियों को किसी भी तरह के घंधे की छूट होनी चाहिए और मजदूरों को किसी भी तरह की नौकरी की मूल्य और गुणवत्ता का निर्धारण प्रतियोगिता से होनी चाहिए न कि सरकारी नियन्त्रण की नीति द्वारा, एडम स्मिथ की रचना ‘दि वैल्थ ऑफ नेशन्स’ विश्व प्रसिद्ध है उसकी अहस्तक्षेप की नीति 18 वीं शताब्दी के व्यापारियों में बहुत ही लोकप्रिय हुई. एडम स्मिथ को ही आधुनिक अर्थशास्त्र का जनक कहा जाता है, उन्होंने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि राज्य को आर्थिक क्रियाकलापों में कोई हस्तक्षेप करना चाहिए. इस प्रकार निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रबोधन अर्थात् पुनर्जागरण (रेनेसां) एक ऐसी मनोदशा को दर्शाता है. जिसके तहत् न केवल यूरोप महाद्वीप बल्कि सम्पूर्ण विश्व में चेतना का संचार हुआ. इस नवीन चेतना ने मानवीय क्रियाकलापों एवं उसकी अन्त स्थिति को पूर्णतया परिवर्तित कर उसे विज्ञान, तर्कवाद एंव नवीन शासन पद्धति की ओर न केवल आकर्षित किया, बल्कि इनके विकास के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया.

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