देश में हर साल करीब 6 हजार करोड़ रुपए का होता है का कारोबार | बांस है दुनिया का पहला ‘पटाखा!

देश में हर साल करीब 6 हजार करोड़ रुपए का होता है का कारोबार | बांस है दुनिया का पहला ‘पटाखा!

दीपावली का त्योहार आते ही सबसे ज्यादा चर्चा पटाखों की होती है। आसमान रोशनी से भर जाता है और हर गली
मोहल्ले में ‘धड़ाम-धड़ाम की गूंज सुनाई देने लगती है। पटाखों का ये धमाका सिर्फ शोर नहीं, बल्कि सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा है, लेकिन सवाल यह उठता है कि आतिशबाजी की शुरुआत आखिर हुई कहां से? पटाखों की खोज किसने की?

पटाखों की शुरुआत करीब दो हजार साल पहले चीन में हुई थी। एक दिन कुछ लोगों ने देखा कि जब सूखे बांस को
आग में फेंका गया तो वह तेज धमाके के साथ फटा। यह आवाज उन्हें बुरी आत्माओं को भगाने का प्रतीक लगी।
एक तरह से देखा जाए तो पहला पटाखा बांस था। करीब 9वीं शताब्दी में कुछ चीनी रसायनविद अमरता की ‘जादुई
‘औषधि’ खोज रहे थे। इस प्रयोग के दौरान उन्होंने गलती से सल्फर, चारकोल और पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया।
जब इस मिश्रण को जलाया गया तो जोरदार धमाका हुआ। यहीं से बारूद की खोज हुई। इसका उल्लेख चीनी ग्रंथ
‘झेनयुआन मियाओदाओ याओलुए’ में मिलता है। बाद में लोगों ने उसे बांस में भरकर जलाना शुरू किया। अब
आवाज के साथ रोशनी भी निकलने लगी। यही प्रयोग आगे चलकर आधुनिक आतिशबाजी की नींव बना ।

दुनिया में पटाखों की कई किस्में हैं। ग्राउंड पटाखे जैसे फुलझड़ी, अनार, चकरी और बम जमीन पर जलाए जाते
हैं, जबकि एरियल फायरवर्क्स-रॉकेट, शेल्स और स्टार बर्स्ट आसमान में जाकर फटते हैं और रंग बिखेरते हैं।
इसके अलावा, म्यूजिक- कोऑर्डिनेटेड शो फायरवर्क्स भी तैयार किए जाते हैं, जहां हर धमाका संगीत की ताल पर
चलता है। अब बाजारों में ग्रीन पटाखे भी उपलब्ध हैं, जो कम धुआं और प्रदूषण फैलाते हैं।

सामान्य पटाखों में बेरियम, स्ट्रॉन्शियम, एलुमिनियम, सल्फर और पोटेशियम नाइट्रेट जैसे केमिकल्स का
इस्तेमाल होता है, जो जलने पर बड़ी मात्रा में धुआं और पीएम 2.5 जैसे प्रदूषण फैलाने वाले सूक्ष्म कण छोड़ते
हैं। ये गैसें वातावरण में घुलकर हवा को जहरीला बना देती हैं, जिससे सांस से जुड़ी बीमारियों, एलर्जी आदि का खतरा पैदा होता हैं। वहीं, ग्रीन पटाखों में बेरियम नाइट्रेट की जगह नाइट्रेट फ्री या कम उत्सर्जन वाले तत्व उपयोग किए जाते हैं। इन्हें नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट ने विकसित किया है। इन पटाखों से लगभग 30 प्रतिशत कम धुआं और 40 प्रतिशत तक कम शोर होता है। साथ ही, ये साउंड लिमिट यानी 125 डेसिबल की सीमा से कम में रहते हैं।

जब किसी धातु या यौगिक को जलाया जाता है, तो वह अपनी विशिष्ट ऊर्जा को रंग के रूप में छोड़ता है जैसे, स्ट्रॉन्शियम- लाल, कॉपर- नीला, बारियम- हरा, सोडियम पीला और मैग्नीशियम सफेद रंग पैदा करते हैं। इन तत्वों को बारूद के साथ मिलाकर छोटे-छोटे ‘स्टार्स’ बनाए जाते हैं, जो जलने पर आसमान में फटकर रंगों की बारिश करते हैं। हर पटाखे में यह रसायनिक संतुलन बड़ी सावधानी से तय किया जाता है।

भारत में पटाखों का इतिहास मुगल काल से जुड़ा है। माना जाता है कि हुमायूँ और अकबर के दौर में आतिशबाजी का शौक चरम पर था दरबारों में जीत और त्योहारों पर आतिश-ए-चिराग’ और ‘गुलाल फायर’ जलाए जाते थे। धीरे-धीरे यह शाही परंपरा आम लोगों तक पहुंची और दिवाली इसका सबसे बड़ा प्रतीक बन गई।

चीन के व्यापार मार्ग से पश्चिम की ओर चलने वाले व्यापारियों से गनपाउडर और उससे बनने वाली आतिशबाजी की तकनीक मध्य एशिया और अरब दुनिया तक पहुंची। माना जाता है कि मंगोलों की यात्राओं पूर्व और पश्चिम के बीच तकनीकें फैलाने में मदद की। बारूद और उससे जुड़े प्रयोग तेजी से फैले। अरब व्यापारियों और यात्रियों ने बारूद की जानकारी यूरोप तक पहुंचाई। 13वीं – 14वीं शताब्दी में यूरोपीय रसायनविद और सेनाएं बारूद और पटाखों का इस्तेमाल करने लगे। धीरे-धीरे यूरोप में शाही प्रोग्राम और सार्वजनिक जश्नों के लिए आतिशबाजी लोकप्रिय हुई।

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