सुरक्षा परिषद: भारत है स्थाई सदस्यता का सच्चा हकदार है
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता की दावेदारी का हाल के महीनों में कई देशों समर्थन कर चुके हैं। हालांकि इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र में सुधार प्रक्रिया की जटिलता के कारण अब तक कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है। सच तो यह है कि यूएन अब प्रासंगिकता खोता जा रहा है। कोविड, यूक्रेन और गाजा युद्ध के दौरान इसकी निष्क्रियता इसका प्रमाण है। ऐसे में यह सवाल उठाना लाजिमी है कि क्या भारत को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए अपने प्रयासों में और तेजी लानी चाहिए या अन्य मंचों पर अपनी भूमिका को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए।
किन वजहों से भारत है स्थाई सदस्यता का सच्चा हकदार है ?
भारत अभी चौथी अर्थव्यवस्था है और उम्मीद है कि यह जल्द ही तीसरी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। भारत कहता रहा है कि मानव आबादी के पांचवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करने की वजह से अगर उसे अलग रखेंगे तो इससे खुद सुरक्षा परिषद की क्रेडिबिलिटी पर फर्क पड़ेगा। इसके अलावा यह अपने बहुसांस्कृतिक लोकतंत्र और शांति मिशनों में महत्ती भूमिका के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में हाशिये पर पड़े देशों के हितों की आवाज उठाने की वजह से भी परिषद में स्थाई सदस्य के तौर पर एक स्वाभाविक उम्मीददार के रूप में उभरता है। अभी जो स्थाई सदस्य हैं, उनमें आज की स्थिति में ब्रिटेन और फ्रांस काफी कमजोर नजर आते हैं। तो ऐसे में बदलते राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारत की दावेदारी को कम करके नहीं आंका जा सकता।
कई देशों ने भारत को दिया है खुला समर्थन, क्या इससे बनेगी बात ?
बीते कुछ अरसे से कई देश स्थायी सदस्यता भारत के पीछे लामबंद रहे हैं। यहां तक कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में से चार देशों- अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने भी अलग-अलग मौकों पर भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन किया है। लेकिन यूनियन में सुधार की प्रक्रिया अपने आप में बड़ी जटिल है। यह कोई ‘पॉप्युलरिटी कॉन्टेस्ट’ नहीं है। इसमें ऐसा नहीं हो सकता कि अगर ज्यादा देश भारत का समर्थन कर रहे हैं तो यह स्वतः स्थायी सदस्य बन जाएगा। चीन के पास वीटो पावर है। इसलिए जब तक पांचों स्थायी राष्ट्र सहमत नहीं होंगे, तब तक सुधार की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी।
आखिर कौन बन रहा है भारत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा?
चीन कभी नहीं चाहेगा कि सुरक्षा परिषद में हिंद प्रशांत का कोई दूसरा देश स्थाई सदस्यता के तौर पर आए। भारत कोचीन वैश्विक शक्ति के तौर पर भी स्वीकार नहीं करेगा। चीन हमेशा भारत की तुलना पाकिस्तान के साथ करते आया है और दिखाने की कोशिश करता है कि भारत केवल दक्षिण एशियाई शक्ति है। हालांकि यह भी सच है कि पिछले कुछअरसे से भारत-चीन संबंधों में थोड़ा सा बदलाव आया है। फिर भी हमारे रिश्ते वहां तक नहीं पहुंच पाएंगे, जहां चीनहमें स्पष्ट समर्थन दे सके। सैद्धांतिक तौर पर चीन भले इस बात का समर्थन कर सकता है कि यूएन में सुधार की जरूरत है और इसमें भारत सहित कुछ नए सदस्य हो सकते हैं। लेकिन नए सदस्यों में वह संतुलन को लेकर पाकिस्तान की सदस्यता पर जोर दे सकता है, जो किसी पैमाने पर भारत के कहीं भी आस-पास नहीं ठहरता है।
क्या भारत को अपनी ऊर्जा अन्य मंचों पर नहीं लगानी चाहिए?
सुरक्षा परिषद अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। अमेरिका, चीन और पश्चिमी शक्तियों तथा रूस के बीच मौजूदा तनाव की वजह से सुरक्षा परिषद कमोबेश निष्क्रिय स्थिति में पहुंच चुकी है। इसलिए बेहतर यही होगा कि भारत को अपनी रणनीतिक पूंजी दूसरे मंचों पर खर्च करनी चाहिए। भारत को जी-20 जैसे प्लेटफॉर्म को ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत है और भारत ऐसा करता नजर भी आ रहा है। भारत ‘वॉयस आफ द ग्लोबल साउथ समिट’ आयोजित करता है, जिसमें दक्षिण और विकासशील देशों के मसलों को सामने लाया जाता है। भारत ब्रिक्स, क्वाड, एससीओ का सदस्य है। जो ग्रुप फोकस्ड हैं, भारत को वहां पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। हमें समझना चाहिए कि भारत के न होने से सुरक्षा परिषद की विश्वसंनीयता पर असर पड़ रहा है, भारत पर नहीं।
कृष्ण मेनन के नाम अनूठा विश्व रिकॉर्ड
सुरक्षा परिषद में सबसे लंबा भाषण देने का रिकॉर्ड भारत के वी. के. कृष्ण मेनन के नाम दर्ज है। उन्होंने जनवरी 1957 में 8 घंटे से भी अधिक समय तक चले अपने भाषण में कश्मीर मसले पर बड़े विस्तार से भारत का पक्ष रखा था। इस भाषण के दौरान वे थककर बेहोश भी हो गए थे, लेकिन आराम के बाद फिर बोलना शुरू किया। उनका भाषण दो दिन (23 यार 24 जनवरी, 1957) तक चला था।
दुनिया में सुरक्षा परिषद का क्यों बजता रहा है डंका?
सुरक्षा परिषद को कई अधिकार मिले हुए हैं, जो उसे वैश्विक व्यवस्था में ताकतवर बनाते हैं:
शांति बलों की तैनाती इसके पास संघर्षरत क्षेत्रों में शांति बलों की तैनाती का अधिकार होता है। इनका उद्देश्य युद्ध-विराम और नागरिकों की सुरक्षा में मदद करना होता है। कांगो, सूडान जैसे देशों में। हुए गृह युद्धों को नियंत्रित करने के लिए शांति बल तैनात किए गए।
सैन्य कार्रवाई की अनुमति यदि शांति बनाए रखने के उपाय नाकाम हो जाएं तो परिषद सदस्य देशों को बल प्रयोग की अनुमति दे सकती है। उदाहरण के लिए, 1991 में कुवैत से इराकी सेनाओं को हटाने के लिए परिषद ने ‘ऑपरेशन ‘डेजर्ट स्टॉर्म’ को मंजूरी दी थी।
आर्थिक व सैन्य प्रतिबंध किसी देश या संगठन द्वारा अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन होने पर परिषद उस पर आर्थिक, सैन्य या व्यापार संबंधी प्रतिबंध लगा सकती है। जैसे उत्तर कोरिया पर परमाणु परीक्षणों के कारण कई बार प्रतिबंध लगाए गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता बने संयुक्त राष्ट्र के कर्णधार
संयुक्त राष्ट्र के गठन के साथ ही 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) भी अस्तित्व में आ गई थी। आज इसमें कुल 15 सदस्य हैं। यूएन के गठन के दौरान सोवियत संघ के लीडर जोसेफ स्टालिन, अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रुजवेल्ट और ब्रिटिश पीएम विंस्टन चर्चिल।
5 स्थाई सदस्य
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पांचसदेशों को स्थाई सदस्य का दर्जा प्राप्त है। ये बिग फाइवसहैं: ब्रिटेन, अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस), चीन और फ्रांस।
10 अस्थाई सदस्य
1965 के पहले तक परिषदसमें 6 अस्थाई सदस्य होते थे। इसके बाद से अस्थाईहसदस्यों की संख्या 10 कर दी गई। इनका कार्यकाल दोहसाल का होता है। हर साल 5 सदस्य रिटायर हो जाते हैंहऔर उनकी जगह नए सदस्य आ जाते हैं। भारत अब तक 8 बार अस्थाई सदस्य के रूप में चुना जा चुका है।
स्थाई सदस्य 5 ही क्यों?
इसकी ऐतिहासिक वजह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वैश्विक सत्ता संतुलन में छिपी है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना द्वितीय युद्ध के बाद हुई थी। इस युद्ध में धुरी राष्ट्र (जर्मनी, इटली, जापान तथा अन्य) पर निर्णायक विजय पाने वाले मित्र राष्ट्रों की अगुवाई इन पांच देशों- ब्रिटेन, अमेरिका, तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस), चीन और फ्रांस ने की थी। चूंकि उस दौर में विश्व राजनीतित सैन्य क्षमता और प्रभाव के सबसे बड़े केंद्र यही पांचों देश थे। इसलिए महत्वपूर्ण निर्णय लेने की शक्ति इन्हीं देशों को मिलनी स्वाभाविक थी। वैश्विक शक्ति संतुलन और भविष्य के टकरावों को रोकने के लिए इन पांचों सदस्यों को वीटो का अधिकार भी दिया गया। किंतु अब वैश्विक परिदृश्य बदल गया है । इसलिए इसे बदलना अनिवार्य है ।