छुआ-छूत विरोधी आन्दोलन
छुआ–छूत विरोधी आन्दोलन
अरव्विपुरम आंदोलन (1888) : यह आंदोलन केरल के महान धार्मिक सामाजिक सुधार श्री नारायण गुरू द्वारा 1888 में चलाया गया। यह ब्राह्मण अथवा पुरोहिती प्रभुत्व के विरुद्ध थे। इनका विचार था कि निम्नजाति का व्यक्ति भी प्रतिमाभिषेक कर सकता है और मंदिर में पुजारी का काम कर सकता है। 1888 में शिवरात्री पर्व के अवसर पर श्री नारायण गुरू ने निम्न जाति के होते हुए भी अरव्विपुरम में शिव की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की, इसी से आन्दोलन प्रारंभ हुआ। इसकी सफलता से प्रेरित होकर दक्षिण भारत में अनेक घार्मिक- सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन प्रारंभ हुए।
मंदिर प्रवेश आंदोलनः दक्षिण भारत के विभिन्न भागों, विशेषकर केरल में अवणों अथवा दलित वर्ग के लोगों पर लगाए गए प्रतिबंध अत्यधिक अमानवीय तथा अपमानजनक थे। श्री नारायण गुरू, एन. कुमार आसन और टी.के. माधवन आदि जैसे अनेक सुधारकों तथा बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में 19वीं शताब्दी के अंत से ही इस अमानवीयता के विरुद्ध संघर्ष किया जा रहा था। 1924 में अवरणों अथवा दलित वर्गों के लिए मंदिरों के प्रवेश द्वार खोलते हुए दूसरा कदम उठाया गया। 1924 के बाद अस्पृश्यता विरोधी कार्यक्रम गांधीवादी रचनात्मक कार्य का अंग बन गया और इसे बहुत लोकप्रियता मिली।
नायर सेवा समाज(1914): इसकी स्थापना 1914 में मन्मथ पदमनाभ पिल्लई द्वारा त्रावणकोर (केरल ) में की गयी नायर सेवा समाज में सामाजिक सुधार कार्यक्रमों में जाति शोषण को भी सम्मिलित कर लिया गया था। त्रावणकोर राज्य में नम्बुदरी तथा गैर मलयाली ब्राह्मणों को सरकारी प्रशासन में विशेष स्थान प्राप्त था। मातृवंशज संयुक्त परिवार के कारण नायरों को बहुत सी आंतरिक समस्याओं का सामना करना पड़ता था। 19 वीं शताब्दी में नायरों का सशक्त नेतृत्व के, रामकृष्ण पिल्लई तथा मनमथ. पदमनाभ पिल्लई के हाथों में आ गया। उन्होंने त्रावणकोर दरबार पर प्रहार किया तथा नायरों के राजनीतिक अधिकारों की मांग की। कुछ समय तक नायर सेवा समाज ने मद्रास की जस्टिस पार्टी के साथ भी संबंध बनाए।
सत्यशोधक समाज (1873): इसकी स्थापना
1873 में ज्योतिबा फूले ने स्थापना की। ज्योतिबा निम्न माली परिवार के शहर में शिक्षित सदस्य थे। उन्होंने अपनी पुस्तक गुलामगीरी एवं अपने संगठन सत्य शोधक समाज के द्वारा पाखंडी ब्राह्मणों एवं उनके अवसरवादी धर्मपग्रंथों से निम्न जातियों की रिहाई की आवश्यकता पर बल दिया।
बहुजन समाज आंदोलन: 1910 की उपरांत ज्योतिबा फूले के विचारों से प्रेरित होकर मुकुन्द राव पाटिल एवं शंकर राव जाधव ने एक ब्राह्मण विरोधी एवं प्रबल कांग्रेस विरोधी बहुजन समाज की स्थापना की। यह आंदोलन बाद में उस समय सामाजिक एवं राजनीतिक रूप में विघटनकारी और ब्रिटिश सरकार समर्थक हो गया, जब कोल्हापुर के शाहू महाराज ने अपने दरबार के ब्राह्मण दरबारियों के साथ विवादों एवं झगड़ों के कारण इस आंदोलन को संरक्षण दिया। बहुजन समाज आंदोलन मूलत: एक दलित आदोलन था। दलितों की बहुल संख्या के आधार पर इसे बहुजन नाम दिया गया। इस आंदोलन ने जातिप्रथा पर तीखा प्रहार किया तथा साहूकारों एवं ब्राह्मणों के विरुद्ध बडूजन समाज के प्रवक्ता होने का दावा किया। 1910 से मुकुंद राव पाटिल ने सत्यशोधक समाचार पत्र दीन-मित्र का प्रकाशन आरंभ किया तथा शीघ्र ही बहुजन समाज ने महाराष्ट्र, दक्कन तथा विदर्भ, नागपुर क्षेत्र में अपना सशक्त ग्रामीण आधार बना लिया। महाराष्ट्र की लोकनाट्य परम्परा तमाशा के माध्यम से इसे ग्रामीण क्षेत्रों तक फैलाया गया।
प्रजा मित्र मंडलीः मद्रास के राजनीतिज्ञ सी.आर. रेड्डी द्वारा स्थापित यह ब्राह्मण विरोधी मंच था। इसके पूर्व 1905-06 में कर्नाटक में बोक्कालिंगा संघ तथा लिंगायत शैक्षिक निधि दल की स्थापना की गई।