हड़प्पा सभ्यता पर नया वैज्ञानिक अध्ययन
हड़प्पा सभ्यता पर नया वैज्ञानिक अध्ययन
भारत की परिपक्व नगरीय ‘सिंधु घाटी की सभ्यता’ जितना कुछ उद्घाटित कर चुकी है, उससे कहीं अधिक रहस्य अभी भी छिपाये हुए है और समय-समय पर उस पर से पर्दा भी उठता रहा है। इसकी लिपि व सभ्यता का पतन कुछ ऐसे ही जटिल विषय हैं जिन पर कई सराहनीय प्रयासों के बावजूद शोधकर्ताओं के लिए निश्चित तौर पर निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल साबित हो रहा है। सेल’ एवं ‘साइंस’ नामक दो जर्नल में राखीगढ़ी पर प्रकाशित अध्ययन से स्पष्ट होता है सितंबर 2019 में ‘सेल’ नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन ने इस सभ्यता के एक और उलझाऊ रहस्य को उद्घाटित करने का वैज्ञानिक प्रयास किया है।
वैज्ञानिकों ने पहली बार सिंधु घाटी सभ्यता, जिसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है, के किसी व्यक्ति का जीनोम विश्लेषित किया है। हालांकि इस विश्लेषण के आधार पर जो अध्ययन आलेख के माध्यम से सामने आया है, वह इस सभ्यता के पतन या उसकी लिपि के बारे में बहुत कम बताता है परंतु यह सभ्यता के लोगों के भूत एवं मौजूदा भारतीयों में इसकी आनुवंशिक निरंतरता पर जरूर प्रकाश डालता है।
सिंधु घाटी सभ्यता की भौगौलिक अवस्थिति अतिसामरिक थी। पश्चिमी सभ्यता को पूर्वी सभ्यता से जोड़ने वाले मार्ग के बीच में यह स्थित थी। इस होकर कई समुदाय आए और गए। परंतु यहां जिस प्रथम सभ्यता का निर्माण हुआ, उसके लोग कहां से आए, और बाद में कहां चले गए, यह अभी भी रहस्य बना हुआ था नए अध्ययन में इसी रहस्य पर से पर्दा उठाया गया है। शोधकर्त्ताओं ने पूरी सभ्यता से 61 हड्डियों के नमूनों का संग्रह किया और उसका अध्ययन किया। हालांकि सिंधु घाटी सभ्यता के वैज्ञानिक अध्ययन की एक समस्या यह रही है कि यहां के मानव की कई हड्डियों की प्राप्ति के बावजूद उनमें आनुवंशिक सामग्रियों को खोज पाना दुश्कर साबित हुआ है। इस क्षेत्र की उष्ण जलवायु ने मानव जीवाश्म की आनुवंशिक विशिष्टताओं को तेजी से नष्ट कर दिया। विश्व की कई सभ्यताओं के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करने में जीवाश्म की आनुवंशिक सामग्रियों ने महत्ती भूमिका निभायी है। इस बार शोध कर्त्ताओं को हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त हड्डियों में से एक हड्डी ऐसी मिल ही गई जिसमें अभी भी आनुवंशिक सामग्रियां मौजूद थीं । यह एक महिला की हड्डी थी जो आज से 4500 वर्ष पहले सिंधु घाटी सभ्यता के राखीगढ़ी में रहा करती थी। उसके कान के आंतरिक हिस्सों से कुछ आनुवंशिक सूचनाएं प्राप्त हुई हैं। इस जीनोम विश्लेषण ने कई पूर्व धारणाओं को समाप्त कर दिया ।
इसके मुताबिक भारत की प्रथम विकसित सभ्यता के लोग न तो स्टेपी चरवाहे थे न ही प्राचीन ईरानी कृषक। वे वस्तुत: स्वतंत्र उत्पति वाले लोग थे। अर्थात हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने कृषि करना खुद ने सीखा। राखीगढ़ी परियोजना के अध्ययन का नेतृत्व करने वाले शोधकर्ता वसंत शिंदे, जो कि पुणे स्थित दक्कन कॉलेज परास्नातक एवं शोध संस्थान के पुरातत्व विज्ञान से जुड़े हुए हैं, के मुताबिक शिकार संग्राहक लोग जो इस क्षेत्र में अपनी बस्ती बसाकर रहने लगे, उनकी जीन की निरंतरता आज के भारतीयों में प्राप्त हो जाती है उनके मुताबिक इस क्षेत्र के इन्हीं शिकार संग्राहकों ने कृषि समुदाय में खुद को परिवर्तित कर हड़प्पा सभ्यता का निर्माण किया। दरअसल, अब तक यही माना जाता था कि अर्द्धचंद्राकार उपजाऊ भूमि,जिसमें अनातोलिया, ईरान, इराक एवं सीरिया शामिल हैं, से प्रवासी पूरे ईरान पठार में फैल गए, फिर उसके पश्चात दक्षिण एशिया में अपने साथ कृषि गतिविधि लेकर आए। हालांकि सिंधु घाटी सभ्यता की महिलाओं के आनुवंशिक इतिहास के मुताबिक उसके पूर्वज दक्षिण-पूर्व एशिया एवं आरंभिक ईरानी शिकारी संग्राहक का मिश्रण था। लेकिन उसके डीएनए में न तो उपजाऊ अर्द्धचंद्रकार प्रवासियों का डीएनए पाया गया न ही यूरेशिया के स्टेपी चारवाहों का डीएनए पाया गया| चूंकि ईरानी किसान और चरवाहे सिंधु घाटी सभ्यता में काफी बाद में आए ।
इसलिए शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने कृषि करना स्वतंत्र तरीके से सीखा यानी वे दूसरे से प्रभावित नहीं हुए। शोधकर्ताओं की एक अन्य खोज यह रही कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों का आज के दक्षिण एशियाई लोगों, जिनमें भारत के लोग भी शामिल हैं, से आनुवंशिक संबंध है। इस अध्ययन के लेखक वागीश नरसिम्हन के मुताबिक साक्ष्य यही बताते हैं कि सभी आधुनिक दक्षिण एशियाई लोग सिंधु घाटी सभ्यता के ही वंशज हैं।
इस अध्ययन से हड़प्पा अवधि में आर्यों के आक्रमण की बात निराधार साबित हुई है। अध्ययन ने यह सिद्ध किया है कि भारत में आर्य भाषा लाने वाले पश्चिमी एशियाई एवं स्टेपी चरवाहें हड़प्पा काल में उस क्षेत्र में मौजूद ही नहीं थे। उल्लेखनीय है कि वैदिक ग्रंथों में इंद्र को ‘पुरंदर’ की संज्ञा दी गई है । चूंकि हड़प्पा वासी किलेबंद सुविकसित नगर में निवास करते थे और इंद्र ऋग्वैदिक सभ्यता के प्रमुख देवता था। इस आधार पर कुछ इतिहासकार निष्कर्ष यही निकालते रहे हैं कि आर्यों ने ही हड़प्पा सभ्यता को नष्ट किया। इस अध्ययन के साथ ही साइंस नामक जर्नल में भी एक शोध आलेख प्रकाशित हुआ है और इसके अधिकांश लेखक भी ‘सेल’ जर्नल में प्रकाशित राखीगढ़ी प्रोजेक्ट के लेखक हैं।
इसमें आधुनिक दक्षिण एशियाई लोगों के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। दूसरा अध्ययन राखीगढ़ी से मिली महिला के डीएनए का ईरान के सहर-ए-सोख्ता एवं तुर्कमेनिस्तान के गोनुर से प्राप्त 11 अन्य व्यक्तियों के डीएनए से मिलान पर आधारित है। ईरान एवं तुर्कमेनिस्तान में डीएनए संरक्षण के लिए बेहतर परिस्थितियां हैं इसलिए वहां के डीएनए का अध्ययन व विश्लेषण संभव हो पाता है। इन 11 व्यक्तियों का वहां आसपास के शवाधानों से प्राप्त व्यक्तियों के डीएनए से मेल नहीं हो पाया। चूंकि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों का इस क्षेत्र के लोगों के साथ व्यापारिक संबंध थे। इस आधार पर शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहंचे हैं कि ये लोग संभवतः प्रवासी थे।
निष्कर्ष पहली बार हड़प्पा सभ्यता के किसी मानव के डीएनए विश्लेषण पर आधारित अध्ययन सामने आया है। इस शोधपरक वैज्ञानिक अध्ययन से भले ही इस सभ्यता के सारे रहस्यों से पर्दा नहीं उठ पाया हो परंतु इसने कई नए
तथ्य सामने रखे हैं और कई पूर्व भ्रांतियो को लगभग नकार ही दिया है। इस वैज्ञानिक अध्ययन से स्पष्ट हो गया है कि हड़प्पा वासी सर्वत्र समूह में थे और उन्होंने ही उस क्षेत्र में कृषि सभ्यता का विकास किया।
हड़प्पा सभ्यता
वर्ष 1920-22 के बीच हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो, जो कि अब पाकिस्तान में हैं, में खुदाई के दौरान मिले अवशेषों से एक नई सभ्यता प्रकाश में आई जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता कहा गया। लेकिन बादमें जैसे-जैसे सभ्यता के अन्य स्थलों का पता चला, उससे साफ हो गया कि यह केवल सिंधु नदी घाटी तक ही सीमित नहीं थी। इस सभ्यता के अवशेष गुजरात के भगतरव व लोथल से प्राप्त हुए हैं। लोथल में एक गोदीवाड़ा का साक्ष्य प्राप्त हुआ है जो इस सभ्यता के दूसरी सभ्यताओं से समुद्री मार्ग से व्यापारिक संबंधों का द्योतक है। सिंधु घाटी के परे अवशेष मिलने के पश्चात इसे हड़प्पा सभ्यता नाम दिया गया क्योंकि सबसे पहले इस सभ्यता की खुदाई इसी जगह से हुयी थी। इस सभ्यता।
के कुछ प्रमुख स्थल थे जम्मू और कश्मीर में मांडा, अफगानिस्तान में शॉर्तुघई, पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब में हड़प्पा, पाकिस्तान के ही। सिंध में मोहनजोदड़ो और चन्हुदड़ो, राजस्थान में कालीबंगन, गुजरात में लोथल और धौलावीरा, हरियाणा में बनवाली और राखीगढ़ी, महाराष्ट्र दैमाबाद। पाकिस्तान-ईरान की सीमा के पास मकरान तट पर स्थित सुतकागेन्दोर हडप्पा सभ्यता सुदूर पश्चिमी छोर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आलमगीर इसकी सुदूर पूर्वी सीमा है । यह एक सुनियोजित व प्रशासनिक रूप से सुगठित नगरीय सभ्यता थी। सूसा, उर और मैसोपोटामिया के नगरों से लगभग दो दर्जन हड़प्पा की मुहरें मिली हैं जो सिंधु घाटी सभ्यता के बाहरी दुनिया से संपर्क का द्योतक है। लगभग 2600 ई.पू. में आरंभ इस सभ्यता के लोगों ने 1900 ई.पू. तक आते आते अपने मूल जगहों को त्याग दिया था। ऐसा क्यों हुआ, इसके लिए कई तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं। कुछ विद्वान इसके लिए बाढ़ एवं प्राकृतिक आपदाओं को मानते हैं वहीं कुछ की नजर में घग्गर- हाकरा नदी के मार्ग में परिवर्तन की वजह से लोग पलायन कर गए। एक तर्क आयों के आक्रमण का भी दिया जाता रहा है जिसे पहले भी नकार दिया गया था और अब डीएनए विश्लेषण से भी इसकी पुष्टि नहीं हुयी है।