बीएचयू के लिए देशभर से चंदा जुटाया ….

पंडित मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (बीएचयू) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। इस यूनिवर्सिटी का उद्घाटन 13 दिसंबर 1921 को हुआ, लेकिन उस दौर में इतने बड़े विश्वविद्यालय के लिए धन राशि जुटाना आसान काम नहीं था। इस काम को सफल बनाने में मालवीय ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

ऐनी बिसेंट ने 1898 में बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की। यही कॉलेज बीएचयू के लिए मुख्य आधार बना। लेकिन उसे एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में बदलने का विजन मालवीय लेकर आए थे। उन्होंने 1911 में हिंदू
विश्वविद्यालय की स्थापना का प्रस्ताव रखा और इसके लिए ‘हिंदू यूनिवर्सिटी सोसाइटी’ बनाई। देशभर में दौरे कर बड़े दानदाताओं को साथ जोड़ा और देश के अलग-अलग हिस्सों में घूमकर लोगों से पैसे जुटाए। साथ ही सरकार को यह।भरोसा दिलाया कि यह संस्थान भारतीय शिक्षा का नया केंद्र बनेगा। मालवीय ने ही यूनिवर्सिटी एक्ट का ड्राफ्ट तैयार कराया। इसे संसद से पास कराने के लिए
लगातार दिल्ली और लंदन में पैरवी की। उनकी कोशिशों का नतीजा था कि 1915 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एक्ट पारित हुआ और फरवरी 1916 में विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी गई।

जन्म – 25 दिसंबर 1861
मृत्यु – 12 नवंबर 1946
शिक्षा – इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातक और फिर वकालत की पढ़ाई की।

पंडित मदन मोहन मालवीय ने भारतीय शिक्षा को स्वदेशी मूल्यों से जोड़ने की। पहल की और इसके लिए कई प्रयास भी किए। वे चार बार कांग्रेस अध्यक्ष रहे। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्के थे और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाते रहे। उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से भी।जनजागरण में बड़ा योगदान दिया।

मालवीय का जन्म इलाहाबाद के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका पैतृक संबंध मालवा से था, ऐसे में उनके परिवार के साथ मालवीय जुड़ा। मालवीय स्कूल के दिनों से ही पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं लिखने लगे थे। 1879 में उन्होंने म्योर सेंट्रल कॉलेज (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) में प्रवेश लिया। उन्होंने स्कॉलरशिप की मदद से कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. पूरा किया। परिवार में आर्थिक तंगी थी, ऐसे में मालवीय को बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी और वे कमाई के लिए भागवत कथा का पाठ करने लगे।

मालवीय ने 1886 में पहली बार कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाषण दिया, जिसने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इसके बाद राजा रामपाल सिंह ने उन्हें अपने हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का संपादक बनाया। उन्होंने ढाई वर्ष तक अखबार का संपादन किया। बाद में वे एलएलबी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद लौटे। 1891 में कानून की डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने जिला अदालत में वकालत शुरू की और 1893 में हाई कोर्ट के वकील बने।

मालवीयजी गंगा की सफाई, जलधारा बचाने और तट संरक्षण के शुरुआती आंदोलनों की अगुवाई करने वाले प्रमुख लोगों में एक रहे।

जाति और छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाई। शिक्षा, स्वच्छता, महिला सशक्तिकरण के लिए कई संस्थाएं खड़ी कीं।

अस्पृश्यता, मर्यादा, हिन्दुस्तान जैसे अखबारों से जुड़े। राष्ट्रवाद, स्वदेशी और सामाजिक चेतना को प्रेस से मजबूत किया।

मालवीय भाषा को लेकर बेहद सजग थे और संस्कृत, हिंदी व अंग्रेजी तीनों में शुद्ध उच्चारण व सही वाक्य रचना पर जोर देते थे। अदालतों में केवलहफारसी लिपि का प्रमुख उन्हें खटकता था, क्योंकि इससे आम लोगों की न्याय तक पहुँच सीमित होती थी। श्रीकृष्ण जोशी के साथ उन्होंने कोर्ट करेक्टर एड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ वेस्ट प्रोविन्स लिखे और लगातार प्रयास किए। नतीजतन 18 अप्रैल 1900 को आदेश जारी हुआ, जिसमें कचहरियों में देवनागरी लिपि को आधिकारिक मान्यता मिली।
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