वेदों के साथ जनजातीय और हड़प्पाई प्रथाओं से प्रभावित था हिंदू धर्म!

वेदों के साथ जनजातीय और हड़प्पाई प्रथाओं से प्रभावित था हिंदू धर्म!

देवदत्त पट्टनायक(प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों के आख्यानकर्ता)

आमतौर पर हिंदू धर्म को इतिहास के दष्टिकोण से सिखाया जाता है। उसके अनुसार 4.000 वर्ष पहले हडप्पा काल था, फिर 3000 वर्ष पहले वैदिक काल, 2,000 वर्ष पहले पौराणिक काल और 1,000 वर्ष पहले भक्ति काल आया। 200 वर्ष पहले के औपनिवेशिक काल में सुधारवादी आंदोलन हुआ। लेकिन ये सभी काल भारत भर में एक समान घटित नहीं हुए। ऐसा नहीं कि जैसे द्रौपदी यज्ञ वेदी से पूर्णतः गठित होकर फ्रकट हुई थी, वैसे इस विशाल उपमहाद्वीप में हिंदू धर्म भी रातोरात पूर्णतः विकसित होकर प्रकट हुआ।

ध्यान रहें कि जबकि इतिहासकार मानते हैं कि वैदिक काल 3000 वर्ष पहले था, अनुयायी मानते हैं कि वेद सनातन हैं। पारंपरिक मान्यता यह है कि हिंदु धर्म का स्त्रोत 3,000 वर्ष पहले रचे गए ऋग्वेद में है। लेकिन

ऋग्वेद के देवताओं (इंद्र,अग्नि और सोम)को आधुनिक काल में कदाचित ही पूज़ा जाता है। आज हिंदू धर्म में पेड़-पौधों, प्राणियों, नदियों, पत्थरों और मंदिरों में प्रतिष्ठापित देवताओं की मूर्तियों की पूजा प्रमुख रूप से होती रही है। यह पूजा कहां से शुरू हुईं? हड़प्पाई काल से या उससे भी पहले की जनजातियों की प्रथाओं से? हिंदू धर्मावलंबी तुलसी के पौधे को लक्ष्मी के रूप में, वट वृक्ष को पितरों, नीम के पेड़ को देवी तथा बिल्व या बेल के पत्ते को शिव के लिए पूज्य मानकर उन्हें पूजते हैं। दुर्गा पूजा, गणेश पूजा और गौरी पूजा के लिए भी कुछ विशिष्ट जड़ी- बूटियों और झाड़ियों को इकट्ठा किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि मुख्यधारा का हिंदु धर्म वेदों के अलावा जनजातीय और हड़प्पाई प्रथाओं से प्रभावित था। हड़प्पाई सभ्यता की मुहरों पर देवियां पेड़ों से उभरती हुई दिखाई गई हैं। ऐसी मुहर भी हैं, जिन पर पेड़ों को चढ़ावा देते हुए बिहार के कैमूर जिले के रामगढ़ कस्बे में स्थित मुंदेश्वरी मंदिर को भारत के प्राचीनतम मंदिरों में से एक माना जाता है। माना जाता है कि इसका निर्माण चौथी सदी में हुआ था। छठवीं सदी में चीनी यात्री हेनसांग ने सबसे पहले इसका वर्णन किया था। दिखाया गया है। मध्य भारत के जनजातीय समुदाय साल के पेड़ की पूजा करते आए हैं।

वैदिक देवता अश्वों और बैलों द्वारा खींचे गए रथों पर सवार होते थे। लेकिन पुराणों में इंद्र के वाहन ऐरावत, विष्णु के वाहन गरुड, शिव के वाहन नंदी बैल और काली के वाहन को सिंह दिखाया गया है। सिंधु घाटी की मुहरों पर वृषभ, गज, गेंडा, बकरी, हिरण और बाघ जैसे प्राणी मिले हैं। इस बात की संभावना कम है कि उनकी कोई धार्मिक या पूजनीय उद्देश्य था। लेकिन जनजातीय संस्कृतियों में प्राणी पूजनीय हैं और देवताओं तथा भूतों के साथ जोड़े जाते हैं। तुलु नाडु का भूत कोला नृत्य इसका एक उदाहरण है। पौराणिक कथाएं इन जनजातीय मान्यताओं से स्पष्टतया प्रेरित हैं।

ऋग्वेद में भोर (उषस् ), नदी (सिंधु) वर्षा (पर्जन्य ) और वन (अरण्यानि) के लिए स्तोत्र पाए जाते हैं। लेकिन यूं लगता है कि वे केवल कविताएं हैं, न कि कोई आख्यान। भाषा (वाक्), जो देवों को कवियों से संपर्क करने को विवश करती है, की क्षमता की अधिक स्तृति पाई जाती है। तमिलनाडु के पलानी पहाड़, गुजरात के गिरनार पर्वत या मध्य भारत की विध्य पर्वत श्रृंखला, जहां देवता और ऋषि एक साथ बैठकर परमात्मा से संलाप करते हैं, के सम्मान में कोई स्तोत्र नहीं हैं। स्पष्टतया स्थल पूजनीय होने की धारणा बाद में उभरी। कि मंदिरों के भीतर भी, ऐसी चट्टानें मिलती है । किसी निर्धारित दिन और समय पर संपूर्ण गांव वहां एकत्रित होता है। लोग चट्टानों पर हल्दी और कुमकुम लगाकर फूल अर्पण करते हैं। उन्हें धूप देकर बलि चढ़ाई जाती है। यह मान्यता है कि कई मंदिरों में चट्टान वास्तव में स्वयंभू देवता होती हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों में मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटी चट्टानें होती हैं, जो प्राचीन देवताओं और क्षेत्रपालों की प्रतीक होती हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म में उन्हें ऋषियों की रक्षा करने वाले यक्ष भारतभर के गांवों और नगरों में, यहां तक जिनकी लोग साधारणतः उपेक्षा करते हैं। लेकिन और यक्षी माना जाता है। संभवतः नायकों की ‘वीर पत्थर और शक्तिशाली महिलाओं की ‘सती’ पत्थरों के रूप में पूजा योद्धा समुदायों में शुरू हुई। जो लोग प्रारंभिक किसानों और चरवाहों की गायों और उनके खेतों की रक्षा करते थे, उन्हें पानी, फूल और दीयों से पूजा जाने लगा। समय के साथ उन्हें  पूजने के स्थल क्षेत्रीय मंदिर और देवता बन गए, जो शिव और विष्णु के साथ जुड़ गए और उनके माध्यम से वैदिक धारणाएं संचारित की गई।

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