AQI: रंग बताते हैं, हवा में कितना छिपा है खतरा

इन समय देश की राजधानी दिल्ली सहित कई शहर AQI यानी एअर क्वालिटी इंडेक्स (वायु गुणवत्ता सूचकांक) की खराब हवा से जूझ रहे हैं। यह इंडेक्स केवल एक संख्या भर नहीं है, बल्कि हवा में मौजूद खतरों की वो रिपोर्ट है जो हमें
बताती है कि आज की हवा हमारी सांसों के लिए कितनी सुरक्षित या असुरक्षित है। हमारे शहर में फैक्ट्रियों, ट्रैफिक, धूल, पराली,निर्माण-कार्य या मौसम की वजह से हवा कैसी है, AQI उसी का निचोड़ है।

2.5 का स्तर बहुत अधिक है और अन्य सभी प्रदूषक कम मूल रूप से हवा में मौजूद छह प्रमुख प्रदूषकों को लेकर यह इंडेक्स तैयार होता है। इनमें शामिल हैं: पीएम 2.5, पीएम 10, नाइट्रोजन डाइऑक्साईड, सल्फर डाइऑक्साईड, ओजोन और कार्बन मोनोऑक्साईड। इनमें पीएम यानी पार्टिकुलेट मैटर सबसे खतरनाक माना जाता है। पीएम 2.5 इतने सूक्ष्म कण होते हैं कि 30 बालों के बराबर चौड़ाई में करीब 30 कण समा सकते हैं। ये सीधे फेफड़ों में जाते हैं और 6रक्त प्रवाह तक पहुँच सकते हैं। नाइट्रोजन और सल्फर गैसों के मुख्य रूप से वाहनों, थर्मल पावर प्लांट और औद्योगिक गतिविधियों से निकलते हैं। ओजोन किसी जीविका के स्तर पर तभी बनती है, जब गर्मी और गैसों के संपर्क में रसायनिक क्रियाएं होती हैं। जमीन स्तर वाली ओजोन आंखों और फेफड़ों के लिए बेहद हानिकारक होती है।

AQI मापने की प्रक्रिया आज अत्याधुनिक हो चुकी है। शहरों में लगे एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन लगातार हवा के नमूने लेते हैं। सेंसर हवा को खींचकर उसमें मौजूद कणों की मात्रा, घनत्व और गैसों के स्तर को मापते हैं। इन डेटा को हर घंटे कंप्यूटर मॉडल विश्लेषित करते हैं और फिर उसे एक नंबर में बदल देते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हवा में पीएम 2.5 का स्तर बहुत अधिक है और अन्य प्रदूषक का स्तर कम है तो AQI का स्कोर बहुत खराब है। इसका मतलब है कि एक्यूआई हमेशा उस प्रदूषक पर आधारित होता है जो उस समय हवा को सबसे ज्यादा खराब कर रहा हो। इसी को ‘डॉमिनेट पॉल्यूटेंट’ कहा जाता है।यही वजह है कि कभी-कभी एक्यूआई बहुत खराब दिखता है,जबकि आसमान साफ लगता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हवा में सूक्ष्म कण होते हैं जो नंगी आंखों से नहीं दिखते।

इसे दुनिया भर में रंगों का कोडिंग सिस्टम अपनाया गया है, ताकि किसी भी व्यक्ति को तकनीकी शब्दों में पड़े बिना हवा की स्थिति समझा जा सके। वैज्ञानिकों के अनुसार, हरे से पीले रंग तक के इंडेक्स वाली हवा में अधिकतर लोग बिना किसी जोखिम के रह सकते हैं। पर जैसे ही नारंगी और लाल की तरफ बढ़ता है, रोगियों, बल्कि स्वस्थ लोगों पर भी इसका असर पड़ने लगता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया की करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी हवा में सांस ले रही है जिसमें प्रदूषण निर्धारित मानकों से अधिक होता है। भारत में स्थित मुख्यतः सर्दियों में बहुत खराब हो जाती है, जब हवा भारी हो जाती है और प्रदूषण जमीन के पास जमा रहने लगता है।

0-50: यह हरे रंग से दर्शाया जाता है। यानी हवा अच्छी है, सेहत को कोई खतरा नहीं है।

51-100: यह पीले रंग से दर्शाया जाता है। इसे संतोषजनक कहा गया है। इसमें सामान्य लोगों को दिक्कत नहीं होती,
लेकिन अस्थमा व हृदय रोगियों और बुजुर्गों को लिए थोड़ी सावधानी जरूरी है।

101-150: इसे नारंगी रंग या केसिरिया रंग से दर्शाया जाता है। यह अस्वास्थकर बताया गया है, खासकर संवेदनशील लोगों के लिए।

151-200: इसे लाल रंग से दर्शाया जाता है। मतलब है कि हवा खतरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। अधिकॉन्श लोगों में खासी, आंखों में जलन, सिरदर्द, थकान और सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण दिखाई दे सकते हैं।

इसे 1968 में अमेरिका में पेश किया गया था। इस पॉल्यूशन कंट्रोल एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा विकसित किया गया जिसका काम वायु प्रदूषण की निगरानी करना था। एजेंसी का मापने और सार्वजनिक स्वास्थ्य हेतु जागरूकता बढ़ाने के लिए एक सरल संख्या-आधारित पैमाना बनाया था। एक्यूआई को ऐसे सदल सूचना के रूप में बनाया गया, ताकि आम लोग भी समझ कैसी है और प्रदूषण नियंत्रित करने के लिए अधिकारियों पर दबाव बन सके ।

एक्यूआई सिस्टम इसलिए भी अहम है, क्योंकि यह केवल गुणवत्ता को डेटा नहीं देता है, बल्कि समय से चेतावनी भी है की क्या किया जाए। अगर एक्यूआई लाल हो रहा है तो स्कूलों में आउटडोर गतिविधियों को रोकना ,संवेदनशील मरीज़ों को बाहर न निकलने देना ,उद्योगों के उत्स।र्जन को नियंत्रित करने जैसे फैसले किए जा सकते हैं । एक्यूआई के आधार पर शहरों में ट्रैफिक को भी सीमित किया जा सकता है ।
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