जेनेरिक मेडिसिन
जेनेरिक मेडिसिन
आम आदमी द्वारा किये जाने वाले स्वास्थ्य खर्च में 60-70% खर्च दवाइयों पर होता है। ये दवाइयाँ लोगों को खुले बाज़ार से डॉक्टर के परामर्श के अनुसार लेनी होती हैं। एक ही रोग के निदान के लिये एक ही प्रकार की दवाई बाज़ार में अलग-अलग नाम से उपलब्ध होती है। जिसके मूल्यों में 2-3 गुणे से लेकर कभी-कभी 50 गुणा से भी ज्यादा का अंतर होता है। मरीज़ों को कीमत क अनुसार दवा चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती है, अतः वे डॉक्टर द्वारा लिखीं गई दवाई चुनने को मज़बूर होते हैं, चाहे उसकी कीमत कितनी भी अधिक क्यों न हो। इस समस्या का एक बेहतर समाधान यह हो सकता है कि डॉक्टर किसी दवाई का ‘ब्रांड नाम’ न लिखकर ‘जेनेरिक नाम’ लिखें तथा मरीज अपनी सुविधानुसार बाज़ार से उस प्रकार की कोई भी दवाई खरीद सर्कें।
जेनेरिक मेडिसिन क्या है?
फार्मास्यूटिकल ड्रग जो क्वोलिटी, कम्पोजीशन, प्रभाव इत्यादि सभी में बांडेड दवाई के बराबर ही। ये दवाएँ अपने मूल नाम से ही बेची जाती हैं। चूँकि इनकी ब्रांडिंग नहीं की जाती है, अत: कीमत में काफी सस्ती होती हैं, जैसे- “पैरासिटामोल’ एक फार्मास्यूटिकल मॉलीक्यूल है, जो बाज़ार में इसी नाम से या किसी अन्य नाम से उपलब्ध है, जिसकी कीमत में काफी अंतर होता है।
डॉक्टर ब्रांडेड दवाई ही क्यों लिखते हैं?
सिद्धांत तौर पर तो यह तक होता है कि मरीज के सर्वश्रेष्ठ हित के लिये डॉक्टर अपनी समझ एवं जानकारी के अनुसार सर्वोत्तम दवाई प्रिस्क्राइव करते हैं, लेकिन अक्सर इसका कारण कुछ और देखा जाता है। बड़ी फार्मा कम्पनियाँ इन डॉक्टरों को कई तरह की सुविधाएँ, गिप्ट्स, विदेशी टूर, हॉस्पिटलिटी इत्यादि उपलब्ध कराती हैं और यह सब उन गरीब मरीज़ों की कीमत पर होता है, जिन्हें अपने इलाज के लिये जमा, पूंजी, चल-अचल सम्पत्ति इत्यादि सब- कुछ खोना पड़ जाता है।
सरकार के नए आदेश
प्रधानमंत्री ने अपने एक वक्तव्य में डॉक्टरों को जेनेरिक दवाओं के नाम ही लिखने की सलाह दी है। हालाँकि इससे संबंधित नियम तथा निर्देश आने बाकी हैं, लेकिन इस मुद्दे ने जेनेरिक मेडिसिन को चर्चां में तो ला ही दिया है। कानूनी तौर पर सभी डॉक्टरों को जेनेरिक मेडिसिन लिखना अनिवार्य करने से पहले बाज़ार में इस दवा की उपलब्धता बढ़ानी होगी। कुल बाज़ार मूल्य का 90% ब्रांडेड दवाइयों का होता है। जेनेरिक दवाइयों की उपलब्धता भी सभी जगह नहीं रहती है। अगर डॉक्टर जेनेरिक ड्रग्स लिखते भी है।तो इसकी अनुपलब्धता में फार्मासिस्ट अपने अधिकतम लाभ को देखते सबसे महँगी ब्रांडेड दवाई दे सकते हैं। साथ ही जेनेरिक दवाई से भी एसे मुद्दे हैं जिनका हल किया जाना जरूरी है।
जैनेरिक दवाई से संबंधित मुद्दे
‘बायों इक्वीवेलेंस’ में यह मानक पर खरी नहीं उतर पाती हैं, भले ही इनका कम्पोजीशन ब्रांडेड दवाई जैसा हो।
इस कारण दवाइयों को निम्नतर दर्जे का समझा जाता है। इसी कारण विदेशों को निर्यात की जाने वाली कई दवा कम्पनियों को प्रतिबंधित होना पड़ा तो कई सारे प्रोडक्ट्स पर वार्निंग मिली।
कुल जेनिरिक ड्रग्स के 1% से भी कम दवाइयों की क्वालिटी टेस्ट की जाती है। इस उद्योग में डाटा एकत्रीकरण एवं संग्रहण की प्रक्रिया भी नहीं अपनाई जाती, जिस कारण इनकी जांच-पड़ताल काफी मुश्किल हो जाती है।
समाधान के उपाय
भारत विश्व का सबसे बड़ा जेनेरिक ड्रग्स निर्यातक है। जब यहाँ की कंपनियाँ अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका में लोगों को कम कीमत पर दवाइयाँ उपलब्ध करवा सकती हैं तो देश के अंदर क्यों अभी तक 90% बाज़ार
पर ब्रांडेड दवाओं का कब्जा है? स्पष्ट है मुख्य कारक नीतिगत, है जिसमें निम्नलिखित सुधार कर तकनीकी कारक भी सुधारे जा सकते हैं-
– इस उद्योग को सरकारी सहायता मिले तथा इनग्रेडिएंट आयात, मशीनरी इत्यादि में विशेष रियायत मिले।
-क्वालिटी में सुधार के लिये लेबोरेटरी एवं फिल्ड ट्रॉयल की एकीकृत व्यवस्था हो।
-इस उद्योग के दवाइयों को सेल्फ सर्टीफिकेशन की सुविधा मिले। जिससे इनके फंक्शनिंग में तेज़ी आए।
-‘जन औषधि प्रणाली’ को मज़बूत कर दवाई की उपलब्धता बढ़ाई जाए। इस संबंध में राजस्थान एवं तमिलनाडु सरकार द्वारा किये गए कार्य को मॉडल मानकर पूरे देश में ऐसी प्रणाली अपनाई जा सकती है।
-सभी ब्रांडेड दवाओं की भी ‘कीमत नियंत्रित’ होनी चाहिये ताकि दवा जैसी आवश्यक ज़रूरतें सबकी पूरी हो सकें।
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