भारतीय संघीय व्यवस्था को मिल रही हैं चुनौतियाँ
भारतीय संघीय व्यवस्था को मिल रही हैं चुनौतियाँ
24 अगस्त, 2019 को नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के अध्यक्ष इसाक-मुइवा (Isak-Muivah) ने दोहराया कि नागालैंड में जारी जनजातीय संघर्ष के समाधान के लिए केंद्र सरकार को जल्द से जल्द बृहत् नागालैंड क्षेत्र की स्थापना, अलग झंडे तथा भारतीय संविधान से अलग एक संविधान की मांग पूरा करना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा जनवरी 2016 में विशेष स्वायत्तता देने संबंधी समझौते करने के बाद भी 3 वर्षों से इसाक-मुइवा अपनी अलग प्रशासन की मांग पर अडिग हैं। यह दर्शाता है कि वे भारत की संघीय व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं इसलिए संघीय व्यवस्था को व्यावहारिक बदलाव करने की जरूरत है। अप्रैल 2018 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने प्रदेश के लिए अलग झंडे की मांग की थी।
उनका कहना था कि भारत,अलग-अलग राज्यों का समूह है, न कि संघ है। संविधान के।अनुच्छेद 3 के अंतर्गत केंद्र सरकार को नये राज्य का गठन करने का अधिकार है, अर्थात भारत में सत्ता मुख्य रूप से केंद्र सरकार के पास है।
इसी प्रकार, बीते वर्षों में पश्चिम बंगाल राज्य सरकार द्वारा केंद्र की योजनाओं व नीतियों से असहमति जताने के मामले आए हैं। उदाहरण के लिए, 2017 में पश्चिम बंगाल ने केंद्र प्रायोजित ‘स्वच्छ भारत योजना’ में बदलाव कर उसे ‘मिशन निर्मल बंगला’ के रूप में लागू किया था और फरवरी 2019 में केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई को राज्य में ‘शारदा घोटाले’ की जांच से रोका गया था। उपर्युक्त सभी स्थितियां संघीय व्यवस्था के लिए चुनौती हैं।
संघीय शासन व्यवस्था की विशेषताएं
सरकार दो या अधिक स्तरों वाली होती है, जो लिखित संविधान, अधिकारों का विभाजन तथा स्वतंत्र न्यायपालिका द्वारा संचालित होती है। भारत के संविधान का ढाँचा संघात्मक है, किन्तु उसकी आत्मा एकात्मक है: एकीकृत न्याय व्यवस्था, इकहरी नागरिकता, अधिकारों का बंटवारा केन्द्र के पक्ष में, संघ तथा राज्य के लिए एक ही संविधान, केन्द्र सरकार को राज्यों की सीमा परिवर्तन करने का अधिकार, राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति, राज्य सूची।के विषय पर कुछ मामलों में केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार, संविधान संशोधन का अधिकार तथा संकटकाल की शक्तियाँ संघीय ढाँचा होने के बावजूद भी भारतीय संघ के एकात्मक स्वरूप को दर्शाती है। संविधान के भाग 7 में अधिकारों का विभाजन किया गया है तथा तीन सूचियों, (संघ सूची, राज्य सूची एवं समवर्ती सूची) का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान द्वारा केन्द्र सरकार को विशिष्ट अधिकार सौंपे गए हैं।
भारतीय संघीय व्यवस्था में केंद्र को ज्यादा शक्तिशाली बनाया गया है और केंद्र सरकार, विधायी क्षेत्र में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है। अलग-अलग स्तर की सरकारें एक ही नागरिक समूह पर शासन करती हैं, पर कानून बनाने, कर वसूलने और शासन का उनका अपना-अपना अधिकार-क्षेत्र होता है।
संविधान के मौलिक प्रावधानों को किसी एक स्तर की सरकार अकेले नहीं बदल सकती। ऐसे बदलाव दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही हो सकते हैं। वित्तीय स्वायत्तता निश्चित करने के लिए विभिन्न स्तर की सरकारों के लिए राजस्व के अलग-अलग स्रोत निर्धारित हैं।
कार्यकारी संघवाद का विकास भारतीय संघीय विकास का एक।उल्लेखनीय पहलू है। नौकरशाही, विकास योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने, लक्षित करने और क्रियान्वित करने के साथ-साथ विकसित हो रही है।
संघीय व्यवस्था का अर्थ
संघवाद एक संस्थागत निकाय है तथा इसके अंतर्गत केंद्र तथा राज्य सरकार को शामिल किया जाता है। प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती है। इस रूप में लोगों की दोहरी पहचान व निष्ठाएं होती हैं। वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और देश के भी वस्तुत: भारत अनेक राज्यों से मिलकर बनने वाला संघ नहीं बल्कि प्रशासनिक सुविधा एवं सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के साथ संतुलन को बैठाते हुए विकेन्द्रीकृत शासन व विकास पर जोर देने वाला देश है।
केंद्र व राज्य सरकार के बीच संबंध
০ प्रशासनिक अधिकारः भारत में केंद्र सरकार ने राज्य की विधानसभा को पूर्ण, अर्द्धपूर्ण तथा सीमित अधिकार दिये हैं इनमें से कुछ राज्यों को विशेष अधिकार संविधान की पांचवीं, छठी अनुसूची के अनुसार दिये गये हैं। असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम के जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन संविधान की अनु. 224(2) एवं 275(1) के तहत निर्धारित किया गया है।
০ केंद्रीय अनुदानः राज्यों को दी जाने वाली रकम वित्त आयोग।की सिफारिश पर दी जाती है। एक वर्ष में राज्यों को दिए जाने।वाले कुल अनुदान का 30 प्रतिशत वित्त आयोग के अधिकार में है, जबकि 70 प्रतिशत वैयक्तिक अनुदान है, जो नीति आयोग की सिफारिश पर राज्यों को दिया जाता है।
० गाडगिल सूत्रः 1969 में तय गाडगिल सूत्र के अनुसार किसी राज्य को 60 प्रतिशत राशि जनसंख्या के आधार पर, 10 प्रतिशत राशि प्रति व्यक्ति आय (राष्ट्रीय औसत से कम होने की शर्त)।पर, 10 प्रतिशत राशि राज्य की अपनी विशेष समस्या के आधार पर, 10 प्रतिशत राशि सिंचाई और बिजली परियोजनाओं के लिए और 10 प्रतिशत कर प्रयास के लिए निर्धारित है।
क्षेत्रीय दलों की भूमिकाः क्षेत्रीय दलों की बढ़ती शक्ति ने पूरी राष्ट्रीय राजनीति को एक नया आवाम प्रदान किया है। उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा, बिहार में जद(यू), राजद, तमिलनाडु में डी.एम.के., अन्नाद्रमुक, पंजाब में अकाली दल, हरियाणा में हरियाणा विकास पार्टी, महाराष्ट्र में शिवसेना, ओडिशा में बीजू जनता दल और प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय हितों की पूर्ति के लिए राज्य के।लिये विशेष पैकेज की मांग या विशेष राज्य का दर्जा (बिहार व तेलंगाना द्वारा) देने के लिए राष्ट्रीय दलों पर दबाव बनाती रही हैं। राज्यों का पिछड़ापन और विशेष राज्य का दर्जा दो अलग विषय हैं। भारत में राज्यों की असमानताएं और राज्यों के अंदर की क्षेत्रीयता ने सामान्य रूप से तनाव और असंतुष्टि को जन्म दिया है।
संघीय व्यवस्था के लिए संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 250 तथा अनुच्छेद 252: अनुच्छेद 250 केंद्र सरकार को राष्ट्रीय आपातकाल के समय संसद द्वारा विशेष कानून बनाने। की अनुमति देता है जबकि 252 दो या अधिक राज्यों की सहमति से विधि निर्माण की संसदीय शक्ति का उल्लेख करता है।
* अनुच्छेद 249 : संसद, राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकती है। अनुच्छेद 253: अंतरराष्ट्रीय करारों को प्रभावी करने के लिए विधान बनाने की संसद की शक्ति।
* अनुच्छेद 258: राष्ट्रपति, कार्यपालिका के कार्यों को राज सरकार को सौंप सकते हैं, जबकि अनुच्छेद 258 क के अनुसार, राज्य सरकार भी राज्य से जुड़े प्रशासनिक कार्य संघ सरकार को सौंप सकती है।
अनुच्छेद 275, अनुच्छेद 280 व 282 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक पांच बर्ष में वित्त आयोग के गठन की घोषणा की जाएगी तथा वित्त आयोग, संघ व राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण के संबंध में अनुशंसा करेगी।
केंद्र व राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र
संविधान में स्पष्ट रूप से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विधायी अधिकारों को तीन भागों में बांटा गया है। ये तीन सूचियां इस प्रकार हैं:
1. संघ सूचीः इस सूची में प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, बैंकिंग, संचार और जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय हैं। संघ सूची में वर्णित मुद्रा विषयों के बारे में कानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है।
2. राज्य सूची: इस सूची में पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि आर सिंचाई जैसे प्रांतीय और स्थानीय महत्व के विषय को शामिल किया गया है। राज्य सूची में वर्णित विषयों के बारे में केवल राज्य सरकार ही कानून बना सकती है।
3. समवर्ती सूची: इस सूची में शिक्षा, वन, मजदूर-संघ, विवाह, गोद लेना और उत्तराधिकार जैसे वे विषय हैं, जो केंद्र के साथ राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं।
शेष अधिकारों का बंटवाराः
बाकी बचे विषय केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। उदाहरण के लिए साइबर क्राइम की रोकथाम के लिए कानून केंद्र सरकार द्वारा बनाया जाएगा केंद्र।और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों के इस वंटवारे में बदलाव व आसान नहीं है। केवल संसद इस व्यवस्थ्या में बदलाव नहीं कर सकती। ऐसे किसी भी बदलाव को पहले संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से मंजूर किया जाना आवश्यक होता है। फिर कम से कम आधे राज्यों की विधान सभाओं से उसे मंजूर करवाना होता है।
सहकारी संघवाद
भारतीय संविधान में संघ व राज्यों के बीच वित्तोय व प्रशासनिक।सहयोग का प्रावधान है। ग्रेनविल ऑस्टिन जैसे विद्वानों ने भारतीय संघ को सहकारी संघवाद’ कहा है। भारत में राज्यों के मुख्यमंत्री स्वतंत्र व पृथक अधिकारों का प्रयोग।करते हैं और वे अपने अधिकारों के प्रयोग के लिए संघ सरकार।पर निर्भर नहीं है। संघीय शासन प्रकायांत्मक तथा राजनीतिक अवधारणा है
स्वायत्त प्रशासन वाले क्षेत्रः भारत में स्वायत्त प्रशासन वाले कुछ क्षेत्र हैं, जहां कि विषम भौगोलिक एवं सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए इन्हें कुछ विशेष प्रशासकीय अधिकार दिये गये हैं। उदाहरण के लिए, असम में बोगेतेड़ सीमावर्ती परिषद, कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिपद, उत्तरी कछार पहाड़ी स्वायत्त जिला परिषद तथा जम्मु व कश्मीर में, लददाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परपिद और पश्चिम बंगाल में दार्जलिंग-गोरखा पहाड़ी परिषद आदि भारत में स्वायत क्षेत्र हैं। ये स्वायत्त क्षेत्र, संधीय व्यवस्था में सत्ता के विकेंद्रीकरण को दर्शाते हैं
संघीय व्यवस्था की कमियों को दूर करने के उपाय
০ राज्यों की प्रशासनिक स्वायत्तताः केंद्र सरकार को चाहिए कि।वह राज्य सरकार के प्रशासनिक का्यों में बाधक न बने और।राज्य सूची में आने वाले विषय जैसे स्वास्थ्य संबंधी नीति बनाने की छूट राज्य सरकार को मिलनी चाहिए। केंद्रीय योजनाओं की संख्या घटाई जानी चाहिए। संविधान निर्माण के समय भी राज्यों के प्रतिनिधियों ने केंद्र की अत्यधिक शक्तियों का विरोध किया और कहा कि देश को एक संधीय नहीं, बल्कि एकात्मक संविधान मिला है।
० प्रतिस्पर्धात्मक संघवादः आर्थिक एकीकरण और संचार माध्यमों के विस्तार की वजह से भौगोलिक दूरियां सिमट रही है और क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, विदेशी पूंजी निवेश प्राप्त करने के लिए कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा गुजरात निवेशकों को कई सुविधाएं दे रहे हैं, जिससे भारत के दूसरे राज्यों को भी अवसंरचना निर्माण पर जोर देना पड़ रहा है। परिणामस्वरूप देश के आर्थिक विकास को बल मिलेगा।
सहकारी संघवाद एवं नीति आयोग
* नीति आयोग संरचनात्मक सहयोग तथा सहयोंगी संघताद की पहल को बढ़ाने के लिए कार्य कर रहा है। उदाहरण के लिए, कौशल विकास के लिए बनी 66 केंद्रीय परियोजनाओं की एकौकृत निगरानी के लिए मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में 3 उप समिति बनायी गयी हैं। इस प्रकार मुख्य मंत्रियों की भूमिका में वृद्धि कर सहकारी संघवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।
* भारत के उद्योग व सेवा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की मागीदारी अधिक है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने, नवाचारों को योजना में सम्मिलित करने तथा राष्ट्रीय हित के लिए राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ साझा दृष्टिकोण अपनाने के उदश्य से केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने 1जनवरी, 2015 को एक प्रस्ताव पारित करके नीति आयोग (NITI – National Institution for Transforming India) को स्थापना की थी ।
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संघीय व्यवस्था की चुनौतियाँ
पहचान आधारित मुददाः जनवरी 2014 में तेलंगाना के गठन के बाद राज्य पुनर्गठन आयोग के सामने दूसरे राज्यों से विशिष्ट पहचान के आधार पर स्वायतता तथा स्वशासन की मांग की जा रही है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र से विंदेर्भ, उत्तर प्रदेश से पूर्वांचल व बुंदैलखंड तथा बिहार से मिथिलांचल को विशिष्ट भाषा या पिछड़ेपन की समस्या के आधार पर अलग राज्य की मांग की जा रही है।
राष्ट्रीय संसाधन संबंधी मुद्दे : जल, खनिज तथा अन्य प्राकृतिक संसाधन, राष्ट्रीय संपत्ति हैं, लेकिन दो या दो से अधिक राज्यों के बीच इनके बंटवारे को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं, जिनके समाधान के लिए केंद्र सरकार का अथक प्रयास करना पड़ता है। उदाहरण के लिए, दीर्घावधि से लंबित अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद(कांवेरी, नर्मदा) और बराबरी के फॉर्मूले के तहत गैर-बराबरी से जूझ रहे राज्यों को विकास कार्य सहायता राशि का आबंटन करना चुनौतीपूर्ण रहा है।
भाषा-नीतिः संविधान में हिंदी के अलावा अन्य 21 भाषाओं को अनुसूचित भाषा का दर्जा दिया गया है। राज्यों का अपना अधिकांश काम अपनी राजभाषा के अनुसार सरकारी कामकाज की भाषा के तौर पर अंग्रेजी का प्रयोग 1965 में बंद हो जाना चाहिए था, पर अनेक गैर-हिंदी भाषी प्रदेशों ने मांग की कि अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखा जाए।केंद्र सरकार ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को राजकीय कामों में प्रयोग की अनुमति देकर इस विवाद को सुलझाया।
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