भारत में बेरोजगारी का हल , लाॅकडाउन के बाद की स्थिति
भारत में बेरोजगारी का हल , लाॅकडाउन के बाद की स्थिति
भारत इस वक्त आर्थिक मंदी की चपेट में है। पिछले ढाई महीने में पूर्णबंदी की वजह से आर्थिक हालात और बिगड़ गए। देश में उद्योग- धंधे ठप पड़ गए। नतीजा बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आया। यों तो भारत बेरोजगारी की समस्या से पहले से ही जूझ रहा है, लेकिन इन दिनों हालात ज्यादा विकट हो गए हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, भारत सरकार और विभिन्न एजेंसियों के ताजा सर्वेक्षण और रपट इस ओर इशारा करते हैं कि देश में बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ा है। जिन युवाओं के दम पर हम भविष्य की मजबूत इमारत की आस लगाए बैठे
हैं, उसकी नींव की हालत निराशाजनक है बेरोजगारी को लेकर सेटर फॉर मॉनिटरेंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआइई) के आंकड़े बेहद चौकाने वाले हैं। ताजा आंकडों के अनुसार बेरोजगारी की दर 23.4 फीसद हो गई है।
सीएमआईई (CMIE)के आंकड़ों के अनुसार कोरोना महामारी को फैलने से रोकने के लिए की गई पूर्णबंदी की वजह से लगभग बारह करोड़ नौकरियां चली गई हैं। कोरोना संकट से पहले भारत में कुल रोजगार आबादी 40.4 करोड़ थी, जो इस संकट के बाद घट कर साढ़े अट्टाईस करोड़़ रह गई है। फिलहाल डब्लूएचओ की मानें तो कोविड-19 के संकट का अभी सबसे बुरा दौर आना बाकी है। लेकिन यह जरूर स्पष्ट होता जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में मांग एवं आपूर्ति आधारित सुस्ती के साथ-साथ बेरोजगारी का भीषण संकट आ रहा है। बेरोजगारी के ये आंकड़े डराने वाले और चिंताजनक हैं, क्योंकि देश में रोजगार के मौके लगातार कम हो रहे हैं। पूर्णबंदी लागू करते वक्त प्रधानमंत्री ने सभी नियोक्ताओं से अपील की थी कि वे कामगारों की छंटनी न करें और उनका वेतन न काटें। लेकिन इस अपील का कोई फायदा नहीं हुआ
और करोड़ों लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ गया।
इसलिए बेहतर यह होगा कि जारी आर्थिक संकट को समझने के लिए पिछले दो वर्ष से चल रहे आर्थिक संकट को भी संज्ञान में लिया जाए। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि रोजगार क्षेत्र के हालात संकट में हैं। शिक्षित युवाओं की फौज तो बढ़ रही है, लेकिन सरकारें उन्हें रोजगार मुहैया नहीं करा पा रहीं। निजी क्षेत्र में स्थिति और गंभीर है, जहां सिर पर हमेशा छंटनी की तलवार लटकी रहती है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार ऐसे विषय हैं जिनसे केंद्र और।राज्य की सरकारें मुंह नहीं मोड़ सकतीं।
यह सच है कि भारत में बेरोजगारी की समस्या दशकों पुरानी है। पूर्णबंदी खत्म होने पर कुछ तो सुधार होगा, लेकिन हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भारत की अर्थव्यवस्था और नौकरियों की स्थिति तत्काल वहां पहुंच जाएगी जहां वह इस साल में थी। यह सत्य है कि कोरोना महामारी का असर वैश्विक है। इससे वैश्विक आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। दुनिया के लगभग सभी देशों में बेरोजगारी दर बढ़ी है। लेकिन यूरोप- अमेरिका के देशों में बेरोजगारों के लिए अनेक प्रभावी सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध हैं। इस मामले में भारत जैसे देशों को बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा है।
बड़ी आबादी को रोजगार मुहैया कराना किसी भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होती है। दरअसल बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में रोजगार सृजन नहीं हो पाने से देश में बेरोजगारी दर का ग्राफ बढ़ता चला गया। मौजूदा समय में भारत की गिनती दुनिया के सर्वाधिक बेरोजगार आबादी वाले देशों में होती है। विडंबना यह है कि एक तरफ देश में रोजगार के अवसरों की भारी कमी है, तो दूसरी ओर बेरोजगारी का दंश झेल रहे नौजवानों को उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है। फलस्वरूप बेरोजगारी की गर्त में फंसे रहना उनकी विवशता हो गई है। इसी बेबसी की आड़ में कई युवा नकारात्मक मार्ग अख्तियार कर लेते हैं, जो एक खतरनाक स्थिति को जन्म देती है। विश्व के सबसे बड़े युवा राष्ट्र में शिक्षित और डिग्रीधारी बेरोजगार युवाओं की फौज भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
यह चिंतन करने का समय है कि हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में आखिर ऐसी क्या कमी है जो लोगों को रोजगारोन्मुख शिक्षा नहीं देती। ऐसी शिक्षा ग्रहण करने से क्या फायदा, जो।युवाओं को जीविकोपार्जन के लिए दर-दर भटकने को मजबूर करे। बहरहाल, बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए सरकार को जहां ठोस नीति के जरिए बेकारी उन्मूलन और अवसरों के सृजन के प्रति संजीदा होना चाहिए, वहीं नौकरी के लिए केवल सरकार पर आश्रित न होकर स्वरोजगार की ओ कदम बढ़ाना युवाओं के लिए भी फायदेमंद हो सकता है।
हालाँकि, पिछले सत्तर सालों में इस देश मं बेरोजगारी का बढ़ना और जनसंख्या नियंत्रण के लिए कोई ठोस पहल न किया जाना भारतीय शासन व्यवस्था पर सवाल तो खड़े करती है। लेकिन सिर्फ जनसंख्या का बढ़ना बेरोजगारी जैसी बड़ी समस्या का कारण नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि देश में एक तरफ लोगों के लिए नौकरियां नहीं हैं, तो दूसरी तरफ उपलब्ध अवसरों में भी लगातार कटौतियां की जा रही हैं चाहे सरकारी क्षेत्र हो या निजी क्षतर नौकरियों में कटौती से न सिर्फ नए लोगों को रोजगार मिल पा रहा है, बल्कि कार्यरत लोगों का काम भी
छिन रहा है। उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की तीन दशकों की यात्रा रोजगार सृजन- और लंबी उड़ान की चाहत पालने वाले युवाओं की आकांक्षाओं को पूरा करने में।विफल रही है। सरकारी नौकरियां अभी भी बेहतर व सुरक्षित मानी जाती हैं, जिसे प्रापत करने के लिए लाखों की भीड़ इस सरकारी मेले में दिन-रात चक्कर लगाती रहती है।
इसमें किसी को कोई मतभेद नहीं कि जनसंख्या नियंत्रण एक अनिवार्यता है, इसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से दूर रख एक मत से किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए, जनसंख्या नियंत्रण को धर्म से अलग रख देश एक आवश्यकता के रूप में देखना चाहिए ।
सवाल यह भी है कि इन हालात में आखिर देश के युवा कहां जाएं, क्या करें जब उनके पास रोजगार के लिए मौके नहीं हैं, समुचित संसाधन नहीं हैं। योजनाएं सिर्फ कागजों तक सीमित हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने कौशल विकार- को लेकर बड़े-बड़े दावे जरूर किए हैं। लेकिन अब तक इनका कोई ठोस नतीज सामने नहीं आ सका है।
बेरोजगारों की तेजी से बढ़ती तादाद देश के लिए खतरे की घंटी है। देश में बेरोजगारी को कम किए बिना विकास का दावा करना बेमानी ही होगा। इस असंतुलन को पाटने की दिशा में ठोस पहल जरूरी है। विशेषज्ञों का कहना है कि बेरोजगारी अगर इसी रफ्तार से बढ़ती रही, तो हालात विस्फोट होने का अंदेशा है। अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों और स्वरोजगार में लगे लोगों के लिए समुचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उनके कौशल को बढ़ा कर उनकी उत्पादकता और आय में सुधार लाया जा सके। ऐसे उपायों से निश्चित ही बेरोजगारी कम की जा सकती है। योजनाओं का अंबार लगा देने भर से बेरोजगारी की समस्या का
समाधान नहीं किया जा सकता।