अंग्रेजों का भारत आगमन
अंग्रेजों का भारत आगमन
ईस्ट इंडिया कंपनी:
सितम्बर 1599 में लंदन में कुछ व्यापारियों ने लाई मेयर की अध्याता में एक सभा का आयोजन किया। इसमें पूर्वी द्वीप समूह के साथ व्यापार करने की योजनाएं तैयार की गई। इन व्यापारियों ने पुर्व के देशों के साथ व्यापार करने के आशय से ।599 में एक कंपनी का गठन किया। इसका नाम गवर्नर एण्ड कंपनी ऑफ मर्चेन्टस ऑफ लंदन ट्रेडिंग इन टू द इंस्ट इण्डीज रखा गया। इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसम्बर, ।00 ई. में एक आज्ञापत्र द्वारा इसे 15 वषा के लिए पुर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाषिकार प्रदान किया। कंपनी के प्रबंध के लिए एक समिति की व्यवस्था की गई जिसे निदेशक मंडल नाम दिया गया।
कैप्टन हाकिंस (1608):
कैप्टन हाकिंस के नेतृत्व में पहला अंग्रेज जहाज सूरत के बंदरगाह पर 1608 में पहुंचा। हाकिंस ही वह पहला अंग्रेज था जिसने भारत की धरती पर समुद्र के रास्ते कदम रखा। यह जैम्स-1 का दूत था तथा जहांगीर से उसके दरबार में मिला एवं सूरत में फैक्टी खोलने की आज्ञा मांगी परन्तु उसे यह अनुमति नहीं मिली।
सुनहरा फरमान (1632):
1632 में गोलकुंडा के सुल्तान नेशअग्रेंजों को सुनहरा फरमान दिया जिसका आधार पर 500 पेगांडा सालाना कर देने के बदले अप्रेजों को गोलकुंडा राज्य के अंदरगाहों से स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार करने की आज्ञा मिल गई।
फोर्ट सेंट जार्ज (1639):
फोर्ट सेंट जार्ज किलेवंद कोठी थी जिसका निर्माण 1639 में फ्रांसीस डे के द्वारा किया गया। फ्रांसींस डे ने चन्द्रनगर के राजा से मद्रास को पट्ट पर लेकर इस कोठी का निर्माण किया। इसे कोरोमंडल समुद्रतट पर अंग्रेजों का मुख्यालय बनाया गया।
ग्रेवियन बाठटन (1651):
यह बंगाल के सूबेदार शाहशुजा के दरबार में चिकित्सक के रूप में रहता था। उसने 1651 में अंग्रेजों कंपनी के लिए एक लाइसेंस प्राप्त किया जिसके अनुसार 30KM) रुपया वार्षिक कर के बदले कंपनी को बंगाल, बिहार उड़ीसा में मुक्त व्यापार करने की अनुमति दी गई।
फोर्ट विलियम (1698):
बंगाल के सूबेदार अजीमडस-खान ने 1698 ई. में अंग्रेजों को सूतनाती, कालीकट और गोविन्दपुर नामक तीन गांवों की जमीदारी प्रदान की जिसके बदले में उन्हें इन गांवों के जमींदारों को 1200 रुपये देने पड़े। बाद में यहां किलेबंदी कर इसे व्यावसायिक प्रतिष्ठान का रूप दिया गया तथा इंग्लैंड के सम्राट के सम्मान में इसका नाम फोर्ट विलियम रखा गया जिसका पहला प्रेसिडेंट सर चार्ल्स आयर हुआ एवं 1700 में बंगाल को पहला प्रेसीडेंसी नगर घोषित किया गया।
वारिश
मिशन
(1698):
यह इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय का पुत्र था जिसे औरंगजेब के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा गया था। इसने 1698 में गठित एक नई कंपनी इंग्लिस कंपनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट के लिए व्यापारिक सुविधाओं की मांग की लेकिन वह अपने मिशन में असफल रहा।
सर
जान
सरमन
मिशन:
इंस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सन् 1715 में जॉन सरमन की अध्यक्षता में कलकत्ता से एक दूतमेंडल मुगल दरबार में भेजा गया। इस दूतमंडल ने औरंगजेब के समय से कंपनी को प्राप्त विशेष सुविधाओं के साथ-साथ बंगाल में सिक्का ढालने का तथा कलकत्ता के निकट 38 गांव खरीदने की इजाजत मांगी।
कंपनी
का
मैग्नाकार्टा (1717):
इसे मुगल बादशाह फरूखसियर द्वारा ।7।7 में जारी किया गया जिसके अन्तर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हुए। ये थे-
3000 रूपए के वार्षिक कर के बदले कंपनी को बंगाल में मुक्त व्यापार करने की छूट कंपनी को सूरत में सभी करों से छूट कंपनी द्वारा बम्बई में ढाले गए सिक्कों को सम्पूर्ण मुगल साम्राज्य में मान्यता प्राप्त। इसे ही कंपनी का मैग्नाकार्टा कहा गया।
स्वीडिश
ईस्ट
इंडिया
कंपनी
(1731) :
स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1731 में हुई। इसने चीन के साथ अपना व्यापार कायम किया।
डेन
(1616):
ये 1616 में भारत आए एवं तंजीर के ट्रांकोबर में(1620) में इसने अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। 1676 में बंगाल के सीरमपुर में इसकी दूसरी फैवट्टी स्थापित हुई। बाद में इसने अपनी फैक्ट्रियाँ ब्रिटिश कंपनी को बेच दी।
कंपनी द
एण्ड ओरिएण्टल
(1664):
यह भारत में फ्रांसीसी व्यापारिक का नाम था जिसकी स्थापना फ्रांस के शासक लुई चौदहवें के मंत्री कोलर्ब्ट के प्रयासों से हुई थी। फ्रांसीसियों ने भारत में अपनी पहली फैक्ट्री 1668 में सूरत में स्थापित की तथा मसूलीपट्टनम में 1669 में दूसरी फैक्ट्री स्थापित की ।