प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी
(प्राचीन भारत व मध्ययुगीन भारत )
विश्व के अन्य देशों के निवासियों के समान भारतीयों के पास भी वैज्ञानिक विचारों की एक समृद्ध वसीयत है । अज्ञात को जानने की इच्छा ने परीक्षण और अवलोकन के साथ मिलकर वैज्ञानिक जिज्ञासा का रूप लिया और भारतीय इस मान्यता तक पहुंचे कि सत्य विविधताओं और जटिलताओं से परिपूर्ण वास्तविक जगत में ही विद्यमान है। वैज्ञानिकों का यह उत्तरदायित्व रहा है कि वे सत्य पर पड़े रहस्यों के आवरण को हटाएँ और उपलब्ध संसाधनों का उपयोग मानवता की उन्नति के लिए करें। निम्नलिखित पृष्ठों में आप ज्ञान और सत्य के लिए निरंतर खोज के विषय में पढ़ेंगे जिसने आविष्कारों और खोजों एवं भारतीय दैनिक जीवन में उनके उपयोगों को जन्म दिया।
प्राचीन भारत में विज्ञान का विकास
गणित.मैथेमेटिक्स का सामान्य नाम गणित है जिसके अंतर्गत अंक गणित, ज्योमिति, बीज-गणित,नक्षत्र विज्ञान और ज्योतिष आदि विषय सम्मिलित हैं अर्थमेटिक को कई नामों से पुकारा जाता है जैसे पाटी गणित (तख्ती पर गणना), अंक गणित ( अंकों द्वारा गणना) ज्यामिति को रेखागणित (रेखा कार्य) और एल्जेब्रा को बीज गणित (बीज विश्लेषण) कहा जाता है।
नक्षत्र विज्ञान और फलित ज्योतिष आदि विषय ज्योतिष के अंदर जाने जाते हैं। भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की एक अत्यंत समृद्ध विरासत है। प्रकृति पर निर्भरता कोविज्ञान में विकास द्वारा अभिभूत किया जा सकता है। प्राचीन भारत में धर्म और विज्ञान घनिष्ठ निकटता के साथ कार्य करते रहे हैं आइए, अब हम प्राचीन काल में विज्ञान की।विभिन्न शाखाओं के विकास के विषय में जानकारी प्राप्त करें।
नक्षत्र विज्ञान (Astronomy)
भारत में नक्षत्र विज्ञान ने बहुत उन्नति की। नक्षत्रों की गतियों पर बल देकर उनका सूक्ष्म निरीक्षण किया गया। ज्योतिष वेदांग ने नक्षत्रविज्ञान की सुव्यवस्थित श्रेणियाँ स्थापित की परंतु बहुत सी आधारभूत समस्याओं पर आर्यभट्ट (499 ई.प.) ने बल दिया। उनके संक्षिप्त आर्यभट्टीय ग्रन्थ में 121 श्लोक हैं। इनमें खगोल विषयक परिभाषाओं, नक्षत्रों की सही।स्थिति को पहचानने के विभिन्न तरीकों, सूर्य और चन्द्र की गतियों के वर्णन और ग्रहणों की गणना विषयक अनेक खण्ड हैं। ग्रहण का कारण उनके अनुसार यह था कि पृथ्वी गोलाकार है और अपनी धुरी पर घूमती है और जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है तब चन्द्र ग्रहण होता है और जब चन्द्रमा की छाया पृथ्वी पर पड़ती है तब सूर्यग्रहण होता है। इसके विपरीत पुरातनपथी लोगों के अनुसार यह एक प्रक्रिया थी जिसमें राक्षस नक्षत्र को निगल लेता था। इन सभी अनुभूतियों का वर्णन वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ पञ्चसिद्धान्तिका में किया है जिसमें नक्षत्र विज्ञान विषयक पांच सिद्धान्तों का सार दिया गया है। आर्यभट्ट।ने वैदिक नक्षत्र विज्ञान से भिन्न दृष्टि प्रस्तुत की और इसको एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान किया जो आगे चलकर नक्षत्र विज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ। ज्योतिष और जन्मपत्रियों का प्राचीन भारत में अध्ययन किया जाता था आर्यभट्ट के सिद्धान्त उस ज्योतिष से विभिन्न थे जो वैज्ञानिक अध्ययनों के स्थान पर विश्वासों पर अधिक बल देते थे।
गणित शास्त्र ( मैथेमेटिक्स )
हड़प्पा की नगरीय योजना से पता चलता है कि उस समय के लोगों को मापन और रेखागणित का अच्छा ज्ञान था। ईसा पश्चात् तीसरी शताब्दी तक गणित शास्त्र एक पृथक अध्ययन धारा के रूप में विकसित हो चुका था। भारतीय गणित शास्त्र का जन्म शुल्व सूत्रों से माना जाता है।
ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में आपस्तम्ब ने व्यावहारिक रेखागणित का परिचय दिया जिसके अंतर्गत न्यूनकोण, दीर्घकोण और समकोण आदि सम्मिलित थे इस ज्ञान से वेदी के निर्माण में सहायता मिली जहाँ राजा यज्ञ की आहुतियाँ देते थे। गणित शास्त्र के क्षेत्र में तीन प्रमुख योगदान हैं- चिह्नाकन पद्धति, दशमलव पद्धति और शून्य का प्रयोग। चिह्नाकन पद्धति और संख्या का ज्ञान जो अरबों के द्वारा पश्चिम ले जाया गया। इन अंको ने रोमन अंको का।स्थान ले लिया। शुन्य का आविष्कार भारत में दूसरी शताब्दी (ई. पूर्व) में हो चुका था।
ब्रह्मगुप्त का ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त नामक पहला ग्रंथ है जिसमें शूुन्य को एक संख्या के रूप में परिगणित किया गया है। इसलिए ब्रह्मगुप्त ही पहला व्यक्ति है जिसने शून्य का आविष्कार किया। उसने ऐसे नियम बनाए जिनमें शून्य का प्रयोग अन्य संख्याओं के साथ किया जा सकता था। आर्यभटट ने बीज गणित की खोज की और त्रिकोण का क्षेत्रफल ज्ञात किया जिससे त्रिकोणमिति का जन्म हुआ।
सूर्य सिद्धान्त एक बहुत प्रसिद्ध ग्रंथ है। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (6 शताब्दी ई. पू.) नक्षत्र विज्ञान के क्षेत्र में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति है। उसका निरीक्षण कि चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है. बाद में प्रसिद्ध हुआ और इसी के आधार पर अन्य खोजें भी आधारित थी । गणित शास्त्र और नक्षत्र विज्ञान ने काल और सृष्टि विज्ञान में अध्ययनार्थ रुचि पैदा की। नक्षत्र विज्ञान और गणित शास्त्र भविष्य के शोध के आधार बने।
औषध विज्ञान(मेडीसिन )
अथर्ववेद में प्रथम बार बीमारियों, चिकित्सा और औषधियों का उल्लेख प्राप्त होता है। ज्वर, खांसी, खानपान, डायरिया, ड्रोप्सी (जलोदर) , जख्म, कुष्ठ और दौरे जैसे रोग वर्णित हैं , रोगों का कारण शरीर में प्रविष्ट भूतप्रेतादि माना गया है। इनका निदान भी जादुई तरीकों द्वारा बताया गया है।
600 ईसा पूर्व से तर्कसंगत विज्ञान का जन्म हुआ। तक्षशिला और वाराणसी औषध विज्ञान और ज्ञान के प्रमुख केन्द्र के रूप में उभरे। इस समय के दो प्रमुख ग्रंथ हैं- चरक की चरकसंहिता और सुश्रुत को सुश्रुतसहिता। ये ग्रंथ कितने महत्वपूर्ण हैं इसका पता इसी तथ्य से चलता है कि यह ग्रंथ अनेकों भाषाओं में अनूदित होकर चीन और मध्य एशिया तक पहुंच गया।
चरकसंहिता में औषधि के रूप में प्रयोग की जाने वाली जड़ी बूटियों का वर्णन है। चौथी।शताब्दी (ई.पू.) में शल्यचिकित्सा एक पृथक अध्ययन धारा के रूप में उभरी। सुश्रुत इस शास्त्र में अग्रणी माने जाते है। उन्होंने शल्यचिकित्सा को उपचार कलाओं की सर्वोत्तम विधा माना है जो सबसे कम भ्रामक है। उन्होंने 121 शल्य उपकरणों का वर्णन किया।
इसके अतिरिक्त उन्होंने हड्डियों को जोड़ना, आंखों का मोतियाबिन्द आदि के ऑपरेशन के तरीके भी बताए। प्राचीन भारत के शल्यचिकित्सक प्लास्टिक सर्जरी (नाक, होंठ और कानों का लगाना) आदि से परिचित थे। सुश्रुत ने 760 पौधों का शउल्लेख किया है। पौधों की जड़ें, छाल, फूल और पत्ते सभी का उपयोग वकिया जाता था भोजन पर अधिक बल दिया जाता था जैसे गुर्दे के रोग में नमक रहित भोजन। आने वाली शताब्दियों में भारतीय चिकित्सा के क्षेत्र में चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता आधार ग्रंथ सिद्ध हुए। प्रारंभिक मध्यकाल के आरम्भ में शल्यचिकित्सा में गिरावट आई क्योंकि उस समय उस्तरे से चीड़फाड़ का काम नाई करने लगे थे।
धातु विज्ञान (मेटलर्जी)
सिन्धु घाटी की खुदाई में प्राप्त कांस्य और तांबे की कलाकृतियों और मिट्टी के चमकीले बर्तनों से उस समय के उन्नत धातु-विज्ञान के बारे में पता चलता है। वैदिक युग के लोग अन्न और फलों का खमीरीकरण करना और चमड़ा निकालना तथा रंगना भी भली प्रकार जानते थे।
ईसा पश्चात् पहली शताब्दी तक लोहा, तांबा, चांदी, सोना जैसी धातुओं तथा पीतल और कांस्य जैसी मिश्रित धातुओं का व्यापक उत्पादन होने लगा था। कुतुब मीनार परिसर में स्थापित लौह स्तम्भ उच्च कोटि की मिश्रित धातुओं का aजीवंत उदाहरण है। क्षार और अम्ल का उत्पादन किया जाता था और इनका प्रयोग औषधियाँ बनाने के लिए किया जाता था।
इसी तकनीक का उपयोग अन्य शिल्पकलाओं जैसे रंगों और डाई आदि के बनाने में किया जाता था। वस्त्रों को रंगना लोकप्रिय था। अजन्ता के चित्र रंगों की उत्तमता को प्रदर्शित करते हैं। ये चित्र आज तक सुरक्षित हैं। भागलपुर के पास सुलतान गंज में दो मीटर ऊंची बुद्ध की कांस्य प्रतिमा भी प्राप्त हुई है।
भूगोल (जीयोग्राफी)
मनुष्य और प्रकृति के निरंतर अध्ययन के अन्तर्व्यवहार ने मनुष्य को भूगोल पढ़ने के लिए बाध्य किया। यद्यपि लोग चीन से और पश्चमी देशों के भूगोल से परिचित थे, लेकिन पृथ्वी पर उन्हें अपनी स्थिति और दूसरे देशों से दूरी का ज्ञान नहीं था। भारतीयों ने समुद्री जहाज बनाने में भी योगदान किया। प्राचीन काल में यात्राएँ और नौकाचालन भारतीयों का शौक नहीं था तथापि गुजरात में लोथल में जहाज बन्दरगाह के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे सिद्ध
होता है कि उन दिनों भी समुद्र से व्यापार होता था। प्रारंभिक मध्य युग में तीर्थ और तीर्थयात्रा की अवधारणा के विकास से बहुत सारी भूगोलीय जानकारी एकत्रित हो गई। यही जानकारी अंत में पुराणों में संकलित की गई। कुछ अवस्थाओं में पृथक स्थलपुराण भी संकलित किए गए।
मध्ययुगीन भारत में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का विकास
मध्यकालीन युग (11 से 18 वीं शताब्दी) में विज्ञान और प्रौद्योगिकी दो धाराओं में विकसित हुई। प्राचीन परम्पराओं पर आधारित प्रचलित ज्ञान इस्लामिक और यूरोपियन प्रभाव से उत्पन्न नये विचारों पर आधारित मकतब और मदरसे एक सुनिश्चित पाठ्यक्रम हेतु अस्तित्व में आए। इन संस्थाओं को शाही संरक्षण प्राप्त था। शेख अब्दुल्ला और शेख अजी जुल्लाह दो भाई थे जिन्होंने तार्किक विज्ञान (मगुलत) में विशेषता प्राप्त की थी, संभल और आगरा के मदरसों के प्रमुख थे। अरब, पर्शिया और केन्द्रीय एशिया से विद्वानों को मदरसों में पढ़ाने के लिए आमन्त्रित किया जाता था।
शाही घरों और सरकारी विभागों में भंडारण और अन्य सामान की आपूर्त्ति के लिए राजाओं द्वारा बहुत सारे कारखाने चलाए गए। ये कारखाने न केवल सामान ही बनाते थे अपितु तकनीकी और व्यावसायिक प्रशिक्षण भी युवकों को प्रदान करते थे। इन कारखानों ने विभिन्न शाखाओं में ऐसे कलाकार और शिल्पी पैदा किए जिन्होंने बाद में जाकर अपने स्वतन्त्र कारखाने प्रारंभ कर दिए।
मुस्लिम शासकों ने प्राथमिक विद्यालयों की पाठ्यचर्या को सुधारने का प्रयत्न किया। प्राथमिक शिक्षा में गणित, क्षेत्रमिति, ज्यामिति, ज्योतिष, लेखा शास्त्र, लोक प्रशासन और कृषि विज्ञान जैसे विषय सम्मिलित किए गए। यद्यपि शासकों ने शिक्षा में सुधार करने के लिए विशेष प्रयत्न किए, परंतु इस काल में विज्ञान के क्षेत्र में विशेष प्रगति नहीं हुई। भारतीय पारम्परिक वैज्ञानिक संस्कृति और दूसरे देशों में प्रचलित वैज्ञानिक दृष्टिकोण के मध्य समन्वय बनाने के प्रयास किए जाते रहे।
जीव विज्ञान (बायोलॉजी)
तेरहवीं शताब्दी में हंसदेव द्वारा संपादित मृगपक्षीशास्त्र में शिकार के लिये प्रयुक्त कुछ पशु-पक्षियों के विषय में सामान्य जानकारी दी गई है। मध्ययुगीन शासक और शिकारी अपने साथ घोड़े, कुत्ते, चीते और बाज आदि रखते थे। उनकी पशुशालाओं में पालतू और जंगली दोनों ही प्रकार के पशु रखे जाते थे अकबर हाथी और घोड़े जैसे पालतू पशुओं की उत्तम नस्ल पैदा करने में विशेष रुचि रखता था। जहांगीर ने अपने तुजक-ए-जहांगीरी में जनन प्रक्रिया और संकरण के अपने अवलोकन और प्रयोगों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया है। उन्होंने पशुओं की प्रायः 36 जातियों का वर्णन किया है। उसके दरबार के कलाकारों ने विशेषत: मंसूर ने पशुओं के भव्य और शुद्ध चित्र बनाए जिनमें से कुछ आज भी अनेक संग्रहालयों और निजी संग्रहों में संरक्षित हैं। प्रकृतिवादी के रूप में जहाँगीर पौधों के अध्ययन में विशेष रूचि रखते थे और उसके दरबारी कलाकारों ने अपने पुष्प संबंधी चित्रों में लगभग 57 पौधों को प्रदर्शित किया है।
गणित शास्त्र (मैथमेटिक्स)
सातवीं शताब्दी के प्रसिद्ध गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने कर्जे के रूप में ऋणात्मक संख्या को और घनात्मक संख्या को भाग्य के रूप में दर्शाया जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारतीय प्रायोगिक व्यवसाय में गणित का उपयोग जानते थे।
प्रारंभिक मध्य युग में गणित के क्षेत्र में दो सुप्रसिद्ध ग्रंथ थे। श्रीधर का गणितसार और भास्कराचार्य की लीलावती। गणितसार में गुणा, भाग, संख्या, घन, वर्गमूल, क्षेत्रमिति आदि के विषय में बताया गया है। गणेश दैवज्ञ ने लीलावती पर बुद्धिविलासिनी नामक टीका लिखी जिसमें अनेक उदाहरण दिए गए हैं। 1587 ई. में लीलावती का अनुवाद फैदी ने फारसी में किया। शाहजहाँ के राज्य में अताउल्लाह रशीदी ने बीजगणित का अनुवाद किया।
अकबर के दरबारी नीलकण्ठ ज्योतिर्विद ने ‘ताजिक’ ग्रंथ का संकलन किया जिसमें विभिन्न फारसी तकनीकी शब्दों से परिचय कराया गया। शैक्षिक व्यवस्था में अन्य विषयों के साथ अकबर ने गणित शास्त्र को भी सम्मिलित करने का आदेश दिया। बहाउद्वीन अमूली, नसीरुद्वीन, तुसी, अराक और अलकाशी ने इस क्षेत्र में अमूल्य योगदान किया। नसीरुद्दीन तुसी जो मार्घ की वेधशाला के संस्थापक निदेशक थे, इस क्षेत्र में प्रमाण माने जाते थे।
रसायन शास्त्र ( केमेस्ट्री)
कागज़ के आविष्कार से पूर्व प्राचीन साहित्य दक्षिण प्रदेश में प्रायः ताड़ के पत्तों पर और कश्मीर तथा देश के अन्य उत्तरी प्रदेशों में भोज पत्रों पर अंकित किया जाता था कश्मीर, सियालकोट, जाफराबाद, पटना, मुर्शिदाबाद, अहमदाबाद, औरंगाबाद, मैसूर आदि प्रदेश कागज के उत्पादन के प्रसिद्ध केन्द्र थे। टीपू सुल्तान के समय मैसूर में कागज बनाने का कारखाना था जिसमें एसा कागज बनाया जाता था जिसकी सतह सुनहरी होती थी। कागज बनाने की तकनीक पूरे देश में ही समान थी सिर्फ विभिन्न कच्चे माल से लुगदी बनाने का तरीका अलग था।
मुगलों के पास बारूद के निर्माण और उसके बंदूक में प्रयोग की जानकारी थी। भारतीय शिल्पकारों ने भी इस तकनीक को सीखा और विभिन्न विस्फोटक पदार्थों का आविष्कार किया। वे शोरा, गंधक, और लकड़ी बारूद बनाने और उसका विभिन्न प्रकार की बंदूकों में प्रयोग करना भी जानते थे।
आतिशबाजियों में प्रमुख किस्म उन राकेटों की थी जो हवा को चीरते हुए जाते थे, अग्नि स्फुलिंगों को पैदा करते थे, विभिन्न रंगों में चमकते थे और अंत में धमाके के साथ फट जाते थे। तुजुक-ए-बाबरी में तोप के गोले बनाने का भी वर्णन है। पिघले हुए द्रव्य को सांचा भर जाने तक उसमें डाला जाता था फिर उसे ठंडा किया जाता था। विस्फोटक पदार्थों के अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ भी बनाई जाती थीं। आइने अकबरी में अकबर के इत्र कार्यालय के नियमों का वर्णन है। गुलाब का इत्र एक सुप्रसिद्ध सुगंध थी जिसके आविष्कार का श्रेय नूरजहाँ की माँ को दिया जाता है। इस काल की चमकती टाइलें और चीनी के बर्तन भी उल्लेखनीय हैं। कोयले को अलग-अलग मात्राओं में मिलाकर नक्षत्र विज्ञान (एस्ट्रोनॉमी) नक्षत्र विज्ञान में पूर्वस्थापित खगोलीय मतों का वर्णन करती हुई टीकाएँ प्रकाशित हुई।
उज्जैन, बनारस, मथुरा और दिल्ली में प्रमुख वेधशालाएं थीं। फीरोजशाह तुगलक ने दिल्ली में वेधशाला बनवाई। हमीम हुसैन जिलानी और सैयद मुहम्मद काजिमी के निर्देश पर फीरोज शाह वहमानी ने दौलताबाद में एक वेधशाला बनवाई। सौर पंचांग और चन्द्र पंचांग दोनों ही प्रयोग किए जाते थे। फीरोज शाह के दरबार के नक्षत्रविज्ञानी महेन्द्र सूरी ने एक यंत्र ‘यंत्रज’ का विकास किया।
परमेश्वर (केरल) और महाभास्करीय परिवार नक्षत्रविज्ञानियों के परिवार में ख्याति प्राप्त थे और पंचांग बनाने का काम करते थे। नीलकण्ड सोमसुतवन ने आर्यभट्ट पर टीका लिखी। कमलाकर ने नक्षत्रविज्ञान पर इस्लामिक विचारों का अध्ययन किया। वह इस्लामिक विचारों के विषय में विशेषज्ञ भी था। जयपुर के महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने दिल्ली, उज्जैन, वाराणसी, मथुरा और जयपुर में नक्षत्रविषयक वेधशालाएँ बनवाई।
औषधविज्ञान (मेडीसिन )
विभिन्न बीमारियाँ पर विशेष शोधप्रबंध तैयार करने के प्रयत्न किये गए। बीमारियों का निदान करने के लिए नाड़ी और मूत्र का परीक्षण किया जाता था शाङ्क्धरसंहिता में औषधि के रूप में अफीम का सेवन भी बताया गया है। रसचिकित्सा शास्त्र में बहुत सी धातुओं से निर्मित औषधियों का वर्णन है जिनमें धातु से निर्माण विधि भी वर्णित हैं। तुहफत- उल मुमीनिन एक फारसी ग्रंथ है जिसे मुहम्मद मुनीन ने 17वीं शताब्दी में लिखा जिसमें विभिन्न चिकित्सकों के मतों का वर्णन है।
यूनानी तिब्ब औषधि विज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण व्यवस्था है जो भारत में मध्ययुग प्रचलित हुई। अली बिन रब्बन ने ग्रीक औषधि व्यवस्था और भारतीय औषध विज्ञान का अपने ग्रंथ फिरदौसी-हिकमत में वर्णन किया है। यूनानी औषध व्यवस्था 11 वीं शती के।आसपास मुस्लिमों के साथ हिन्दुस्तान में आई और यहाँ विकास हेतु स्वस्थ वातावरण पाया। हकीम दिया मुहम्मद ने एक ‘एदियाई’ नामक ग्रंथ लिखा जिसमें अरबी, फारसी और आयुर्वेदिक औषध विज्ञान का वर्णन है। फीरोज शाह तुगलक ने एक अन्य ग्रंथ तिब्बे फीरोज़ शाही लिखा। तिब्बी ओरंगजेबी जो ओरंगजेब को समर्पित थी, आयुर्वेदिक स्रोतों पर आधारित है। नूरुद्दीन मुहम्मद की मुसलजाति-दाराशिकोही जो दाराशिकोह को समर्पित है. ग्रीक औषधविज्ञान का वर्णन करती है।
कृषि विज्ञान (एग्रीकल्चर)
मध्ययुग में भी खेतीबाड़ी का काम प्रायः ऐसे ही होता था जैसा प्रारंभिक प्राचीन भारत में था तथापि विदेशियों के आगमन से कुछ आवश्यक परिवर्तन हुए जैसे नई फसलों का उगाना, पेड़ों और उद्यान विषयक पौधों की जानकारी। प्रमुख फसलें थी गेंहूँ, चावल बाजरा, दालें, तेल के बीज, कपास, गन्ना और नील। पश्चिमी घाटों में किसान लगातार उत्तम किस्म की कालीमिर्च उत्पन्न कर रहे थे। कश्मीर अपनी केसर और फलों के लिए प्रसिद्ध था। तमिलनाडु से अदरक और दालचीनी, केरल से इलायची, चंदन और नारियल बहुत ही लोकप्रिय थे। तंबाकू, मिर्च, आलू, अमरूद, शरीफा, काजू और अन्नानास ऐसे नये पौधे थे जो 16वीं-17वीं शताब्दी में भारत में उगने लगे। मालवा और बिहार के क्षेत्र अफीम के पौधों से अफीम पैदा करने के लिए प्रसिद्ध थे। बागबानी के नए तरीके पूरी सफलता के साथ प्रयुक्त होने लगे। 16वीं शताब्दी के मध्य में गोआ के पादरियों के द्वारा आम की कलम बनाने की व्यवस्थापूर्ण शैली का परिचय दिया गया।
जौ. सिंचाई के क्षेत्र में कुए, तालाब, ऊँट, रहट, मशक (चमड़े की बाल्टी) और ढेंकली का प्रयोग किया जाता था ढेंकली के जुए में जुते बैलों से पानी निकाला जाता था। यह सिंचाई के प्रमुख साधन थे। पर्शियन चक्र का प्रयोग आगरे के क्षेत्र में किया जाता था। मध्य युग में उस राज्य द्वारा खेती की ठोस नींव रखी गई जिसने भूमि को नापने और बांटने की नई व्यवस्था लागू की जो शासक और कृषक दोनों के लिए ही हित में थी।
——–#———