वेदों में उन्नती के सूत्र 

वेदों में उन्नती के सूत्र 

जैविक-अजैविक तत्वों से सजी हमारी प्रकृति स्वयं में परिपूर्ण है। इसके पशु-पक्षियों में, जीव-जंतुओं में जीवन जीने की कला का स्वाभाविक ज्ञान होता है। जैसे- गाय-भैंस को तैरना कोई नहीं सिखाता, पक्षियों को उड़ना कोई नहीं सिखाता, जबकि मनुष्य का बच्चा सबकुछ सिखाने पर ही सीखता है। कारण, मनुष्य का ज्ञान नैमित्तिक है। वह अनुसरण करके के ही सब सीखता है।

फिर सवाल ये उठता है कि आदिकाल में मनुष्य को ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ?

स्वामी जगदीश्ररानंद सरस्वती इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि निसंदेह जिसने सूर्य को देखने के लिए नेत्रों का सृजन किया, आकाश को सुनने के लिए कानों का सृजन किया, उसी ने वेदों का सृजन बुद्धि विकास के लिए किया। सृष्टि बनी तो इसमें रहने के कुछ विधान थे, उन्हीं विधानों का नाम वेद है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ वेदवाक्य। ये सूक्तियां नहीं जीवन का सार है।इन्हें जानने, समझने और जीने वाले का जीवन प्रकाशमान हो खिल उठता है।

इदं वपुर्निवचनम्!।

यह तन सभी योनियों में श्रेष्ठ और प्रशंसनीय है।

धुनयो यन्त्यर्थम्।

धुन के धनी बनें। एकाग्रता से किया गया कोई प्रयास विफल नहीं जाता।

आयुष्मान् जीव मा मृथा:।

क्षणभर भी प्रज्वलित होकर जीना ही सुजीवन है, दीर्घकाल तक धुएं की भांति सुलगते रहना नहीं।

शिवो भूः।

शिव को बाहर नहीं ढूंढें, स्वयं शिव बनें। केवल मनुष्य नहीं, प्राणिमात्र का कल्याण करने वाला बनें।

मा भेर्मा संविक्थारीsऊर्ज धत्स्व।

मत डरो, मत घबराओ, उत्साही बनो। क्योंकि उत्साही मनुष्य के लिए संसार का कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं।

विश्वदानीं सुमनस: स्याम।

पुष्य समान कली बनकर खिलें, मुस्कराहट के रंग ओढ़ें और प्रिय- हितकर बोलें। जैसे पुष्प में सुगंधि होती है, वैसे ही हम भी दिव्य गुणों को अपनाकर संसार में अपना सौरभ बिखेरते रहें।

अग्रिनाग्रिः समिध्यते।

एक जलता हुआ दीपक लाखों दीपों को जला देता है, लेकिन लाखों बुझे हुए दीपक एक दीपक को जला नहीं सकते अर्थात अपनी आत्म-ज्योति को प्रज्वलित करें और उससे दूसरों को भी प्रकाशमान करें ।

अग्रे तन्वं जुषस्व।

आत्मा से प्रीति करें। आत्म-बोध की ओर बढ़ने का प्रयास करें।

अथो श्वा अस्थिरो भवन्।

जीवन में चट्टान की भांति हढ़संकल्पित बनें, अपने संकल्पों में अटल रहें।

कालो अश्वो वहति।

समय संसार को मिला वरदान है। इसका मर्म समझें और इसके साथ-साथ गतिमान बने रहें।

आ रोह तमसो ज्योतिः।

एक पग अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ाएं, प्रकाश का अनुसरण करते हुए बुराइयों से अच्छाइयों की ओर चलें।

पश्येम नु सूर्यमुच्चरन्तम् ।

प्रातकाल उठते ही सूर्य दर्शन करें। इससे शरीर के रोग नष्ट हो जाते हैं, शरीर में ओज-तेज, शक्ति और सींदर्य का संचार होता है।

अश्मा भवतु नस्तनू:।

हमारे शरीर पत्थर के समान बलिष्ठ हो। इसकी रग-रग में शक्ति, उमंग और तरंग का संचारण हो। हम आसन, व्यायाम, प्राणायाम और भोजन द्वारा अपने शरीर को सुदृढ़ बनाएं।

ओ३म् क्रतो स्मर।

ओम् का स्मरण करें। ‘औम्’ परमात्मा का सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ और निज नाम है। सारे संसार के साहित्य में मात्राओं की हृष्टि से इससे छोटा और अर्थों की दृष्टि से इससे बड़ा, वचनों और विभक्तियों में अपरिवर्तित कोई दूसरा नाम नहीं है।

अनृणाः स्याम।

जीवन में मन, कर्म, वचन से किसी के ऋणी न बनें।

उद्दयं तमसस्परि।

हम अविद्या-अंधकार, निस्तेजता-निराशा से ऊपर उठें। ओजस्वी, तेजस्वी और आशावादी बनें।

घृतं में चक्षुरमृतं म आसन् ।

आंखों में स्नेह और वाणी में माधुर्य रखें। मनुष्यमात्र को ही नहीं, प्राणिमात्र को प्रेम की हृष्टि से देखें।

अयुतोऽहमयुतो म आत्मा।

यह शरीर मात्र हाड़-मांस का पुतला नहीं शक्ति पुंज है। इसकी शक्ति को पहचानें और महान कर्म करें।

मित्रं कृणुध्वम्।

मित्रता जीवन से शोकरूपी शत्रु को मार भगाती है, इसलिए मित्रता करें, परंतु भली-भांति सोच विचार करने के बाद।

अहं सूर्यइवाजनि ।

सूर्य के समान बनो। जैसे सूर्य स्वयं प्रकाशित होकर संपूर्ण जगत को प्रकाश देता है, उसी प्रकार हम भी ज्ञानज्योति से प्रकाशित हों, और दूसरों को प्रकाशित करें।

अथ: पश्यस्व मोपरि।

इधर-उधर और ऊपर की ओर मुख करके चलने वाला ठोकर खाता है। इसलिए सदा नीचे देखकर चलें, अपनों से छोटों को देखें। उच्छंखलता के स्थान पर शालीनता को महत्व दें।

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