स्मारक
आगरे का किला
- ताजमहल के उद्यानों के पास महत्वपूर्ण 16 वीं शताब्दी का मुगल स्मारक है, जिसे आगरे का लाल किला कहते हैं। यह शक्तिशाली किला लाल सैंड स्टोन से बना है और 2.5 किलोमीटर लम्बी दीवार से घिरा हुआ है, यह मुगल शासकों का शाही शहर कहा जाता है। इस किले की बाहरी मजबूत दीवारें अंदर एक स्वर्ग को छुपाए हुए हैं। इसमें अनेक विशिष्ट भवन हैं जैसे मोती मस्जिद – सफेद संगमरमर से बनी एक मस्जिद, जो एक त्रुटि रहित मोती जैसी है; दीवान ए आम, दीवान ए खास, मुसम्मन बुर्ज – जहां मुगल शासक शाह जहां की मौत 1666 ए. डी. में हुई, जहांगीर का महल और खास महल तथा शीश महल। आगरे का किला मुगल वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, यह भारत में यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों में से एक है।
- आगरे के किले का निर्माण 1656 के आस पास शुरु हुआ, जब आरंभिक संरचना मुगल बादशाह अकबर ने निर्मित कराई, इसके बाद का कार्य उनके पोते शाह जहां ने कराया, जिन्होंने किले में सबसे अधिक संगमरमर लगवाया। यह किला अर्ध चंद्राकार, पूर्व दिशा में चपटा है और इसकी एक सीधी, लम्बी दीवार नदी की ओर जाती है। इस पर लाल सैंड स्टोन के दोहरे प्राचीर बने हैं, जिन पर नियमित अंतराल के बाद बेस्टन बनाए गए है। बाहरी दीवार के आस पास 9 मीटर चौड़ी मोट है। एक आगे बढ़ती 22 मीटर ऊंची अंदरुनी दीवार अपराजेय प्रतीत होती है। किले की रूपरेखा नदी के प्रवाह की दिशा में निर्धारित होती है, जो उन दिनों इसके बगल से बहती थी। इस का मुख्य अक्ष नदी के समानान्तर है और दीवारें शहर की ओर हैं।
- इस किले में मूलत: चार प्रवेश द्वार थे, जिनमें से दो को आगे चलकर बंद कर दिया गया। आज दर्शकों को अमर सिंह गेट से प्रवेश करने की अनुमति है। जहांगीर महल पहला उल्लेखनीय भवन है जो अमर सिंह प्रवेश द्वार से आने पर अतिथि सबसे पहले देखते हैं। जहांगीर अकबर का बेटा था और वह मुगल सिंहासन का उत्तराधिकारी भी था। जहांगीर महल का निर्माण अकबर ने महिलाओं के लिए कराया था। यह पत्थरों का बना हुआ है और इसकी बाहरी सजावट सादगी वाली है। पत्थर के बड़े बाउल पर सजावटी पर्शियन पच्चीकारी की गई है, जो संभवतया सुगंधित गुलाब जल को रखने के लिए बनाया गया था। अकबर ने जहांगीर महल के पास अपनी मनपसंद रानी जोधा बाई के लिए एक महल का निर्माण भी कराया था।
- शाहजहां द्वार निर्मित पूरी तरह से संगमरमर का बना हुआ खास महल विशिष्ट इस्लामिक – पर्शियन विशेषताओं का प्रदर्शन करता है। इनके साथ हिन्दु विशेषताओं की एक अद्भुत श्रृंखला भी मिश्रित की गई है जैसे कि छतरियां। इसे बादशाह का सोने का कमरा या आरामगाह माना जाता है। खास महल में सफेद संगमरमर की सतह पर चित्र कला का सबसे सफल उदाहरण दिया गया है। खास महल की बांईं ओर मुसम्मन बुर्ज है जिसका निर्माण शाहजहां ने कराया था। यह सुंदर अष्टभुजी स्तंभ एक खुले मंडप के साथ है। इसका खुलापन, ऊंचाइयां और शाम की ठण्डी हवाएं इसकी कहानी कहती है। यही वह स्थान है जहां शाहजहां ने ताज को निहारते हुए अंतिम सांसें ली थी।
- शीश महल या कांच का बना हुआ महल हमाम के अंदर सजावटी पानी की अभियांत्रिकी का उत्कृष्टतम उदाहरण है। ऐसा माना जाता है कि हरेम या कपड़े पहनने का कक्ष और इसकी दीवारों में छोटे छोटे शीशे लगाए गए थे जो भारत में कांच मोजेक की सजावट का सबसे अच्छा नमूना है। शाह महल के दांईं ओर दीवान ए खास है, जो निजी श्रोताओं के लिए है। यहां बने संगमरमर के खम्भों में सजावटी फूलों के पैटर्न पर अर्ध कीमती पत्थर लगाए गए हैं। इसके पास मम्मम ए शाही या शाह बुर्ज को गरमी के मौसम में उपयोग किया जाता था।
- दीवान ए आम का उपयोग प्रसिद्ध मयूर सिंहासन को रखने में किया जाता था, जिसे शाहजहां द्वारा दिल्ली राजधानी ले जाने पर इसे लालकिले में ले जाया गया। यह सिंहासन सफेद संगमरमर से बना हुआ उत्कृष्ट कला का नमूना है। नगीना मस्जिद का निर्माण शाहजहां ने कराया था, जो दरबार की महिलाओं के लिए एक निजी मस्जिद थी। मोती मस्जिद आगरा किले की सबसे सुंदर रचना है। यह भवन वर्तमान में दर्शकों के लिए बंद किया गया है। मोती मस्जिद के पास मीना मस्जिद है, जिसे शाहजहां ने केवल अपने निजी उपयोग के लिए निर्मित कराया था।
बहाई मंदिरभारत की जगमगाती राजधानी, नई दिल्ली के मध्य में कमल के आकार की एक इमारत शहर के निवासियों की चेतना पर उकेरी गई है, जो उनकी कल्पना को बांधती है, उनकी जिज्ञासा को ऊर्जा देती हैं और ऊर्जा की संकल्पना में एक नई क्रांति लाती है। यह बहाई मश्रिकल – अधकार है जिसे हम लोटस टेम्पल के नाम से जानते हैं। हर दिन एक नए उत्साह के साथ जागते हुए दर्शकों के झुण्ड इसके दरवाज़े पर आते हैं और इसकी सुंदरता निहारते हैं तथा यहां कि पवित्र आध्यात्मिक शांति में खो जाते हैं।
दिसम्बर 1986 में सार्वजनिक पूजा के लिए इसके समर्पण के समय से भारतीय उप महाद्वीप का यह मातृ मंदिर हजारों लोगों को अपने दर्शन देता है और इसे भारत का सर्वाधिक आतिथ्य पाने वाला भवन बनाता है। सुंदरता और शुद्धता का एक प्रबल संकेत, देवत्व का प्रतिनिधि, कमल के फूल के आकार वाला यह मंदिर भारतीय शिल्पकला में अतुलनीय है। शुद्ध और शांत जल से उठने वाले कमल के फूल का आकार ईश्वर के रूप को प्रकट करता है। यह प्राचीन भारतीय संकेत अनश्वर सुंदरता और सादेपन की संकल्पना को सृजित करने के लिए अपनाया गया था जो जटिल ज्यामिती पर आधारित है और इसका निर्माण ठोस रूप में किया गया है। लोटस टेम्पल प्राचीन संकल्पना, आधुनिक अभियांत्रिकी कौशल तथा वास्तुकलात्मक प्रेरणा का एक अनोखा मिश्रण है।
इसका अत्यंत शांति देने वाला प्रार्थना हॉल और मंदिर के चारों ओर घूमते ढेर सारे दर्शक, जो प्रेरणादायी स्रोत की खोज में यहां जागृत होते हैं और अपने लिए शांति का एक छोटा सा हिस्सा ग्रहण कर पाते हैं। पूरे कक्ष में फैली शांति का आभा मंडल पवित्रता को फैलाता है। कुछ लोगों को यहां मौजूद शांत मौन अच्छा लगता है और कुछ को यहां का दैवी वातावरण। यहां आने वाले लोग मंदिर के गर्भ गृह की शांति और सुंदरता से प्रभावित हो जाते हैं।
बहाई पूजा स्थल का निर्माण भारतीय उप महाद्वीप के अंदर बहाई इतिहास बनाने का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। बहाई समुदाय ने अपने पूजा स्थलों को जितना अधिक संभव हो सुंदर और विशिष्ट बनाने का प्रयास किया है। वे बहाउल्ला और उनके बेटे अब्दुल बहा की लेखनी से प्रेरित हुए हैं।
यहां आध्यात्मिक आकांक्षाओं और विश्वव्यापी बहाई समुदाय की मूलभूत धारणाएं हैं, किन्तु विविध धर्मों की इस भूमि पर इसे सबको एक साथ जोड़ने वाले संपर्क के रूप में देखा जाना शुरू हुआ, जिससे ईश्वर, धर्म और मानव जाति की एकात्मकता के लिए सिद्धांतों के प्रभाव में विविध विचारों को एक सौहार्द पूर्ण रूप में लाया गया। इस मंदिर में किसी भी मूर्ति का न होना इस विश्वास को और भी मजबूत बनाता है और इसका अनुकूल प्रत्युत्तर मिलता है। यहां आने वाले दर्शक देवताओं की अनुपस्थिति पर उत्सुकता व्यक्त करते हैं और फिर भी वे यहां की सुंदरता और इमारत की भव्यता से चकित रह जाते हैं। एक प्रारूपिक प्रतिक्रिया इस प्रकार है; ‘यहां मौन है और यहां आत्मा बोलती है। यहां आकर ऐसा लगता है मानो आप आत्मा की अवस्था में पहुंच गए हैं, जो स्थिर रहने तथा शांति की अवस्था है।’
लोटस टेम्पल इस शताब्दी के 100 प्रामाणिक कार्यों में से एक है, यह महान सुंदरता का एक सशक्त प्रतीक है जो एक महत्वपूर्ण वास्तुकलात्मक नमूना बनने के लिए एक भक्त गणों के स्थान के रूप में कार्य करते हुए अपने शुद्ध कार्य के परे जाता है। श्रद्धा और मानवीय प्रयास के संकेत के रूप में यह ईश्वर की ओर जाने का मार्ग विस्तारित करता है, यह मंदिर दुनिया भर में प्रशंसाएं प्राप्त कर चुका है। वर्ष 2000 में इस मंदिर को ‘ग्लोब आर्ट अकादमी 2000’ का पुरस्कार दिया गया है और साथ ही इसे सभी राष्ट्रों, धर्मों तथा सामाजिक वर्गों के लोगों के बीच एकता और भाई चारे की भावना को प्रोत्साहन देने के लिए 20वीं शताब्दी के ताजमहल की सेवा का परिमाण में कहा गया है जिसकी तुलना दुनिया भर के किसी अन्य वास्तुकलात्मक स्मारक से नहीं की जा सकती है।
मंदिर की प्रशंसा में एक प्रसिद्ध भारतीय कवि ने कहा है “वास्तुकला की दृष्टि से, कला की दृष्टि से, नैतिकता की दृष्टि से यह भवन संपूर्णता का आगम है।”
बृहदेश्वर मंदिर – तंजौर
ब़ृहदेश्वर मंदिर चोल वास्तुकला का शानदार उदाहरण है, जिनका निर्माण महाराजा राजा राज (985-1012.ए.डी.) द्वारा कराया गया था। इस मंदिर के चारों ओर सुंदर अक्षरों में नक्काशी द्वारा लिखे गए शिला लेखों की एक लंबी श्रृंखला शासक के व्यक्तित्व की अपार महानता को दर्शाते हैं।
बृहदेश्वर मंदिर भगवान शिव को समर्पित एक भवन है और यहां इन्होंने भगवान का नाम अपने बाद राज राजेश्वरम उडयार रखा है। यह मंदिर ग्रेनाइट से निर्मित है और अधिकांशत: पत्थर के बड़े खण्ड इसमें इस्तेमाल किए गए हैं, ये शिलाखण्ड आस पास उपलब्ध नहीं है इसलिए इन्हें किसी दूर के स्थान से लाया गया था। यह मंदिर एक फैले हुए अंदरुनी प्रकार में बनाया गया है जो 240.90 मीटर लम्बा ( पूर्व – पश्चिम) और 122 मीटर चौड़ा (उत्तर – दक्षिण) है और इसमें पूर्व दिशा में गोपुर के साथ अन्य तीन साधारण तोरण प्रवेश द्वार प्रत्येक पार्श्व पर और तीसरा पिछले सिरे पर है। प्रकार के चारों ओर परिवारालय के साथ दो मंजिला मालिका है।
एक विशाल गुम्बद के आकार का शिखर अष्टभुजा वाला है और यह ग्रेनाइट के एक शिला खण्ड पर रखा हुआ है तथा इसका घेरा 7.8 मीटर और वज़न 80 टन है। उप पित और अदिष्ठानम अक्षीय रूप से रखी गई सभी इकाइयों के लिए सामान्य है जैसे कि अर्धमाह और मुख मंडपम तथा ये मुख्य गर्भ गृह से जुड़े हैं किन्तु यहां पहुंचने के रास्ता उत्तर – दक्षिण दिशा से अर्ध मंडपम से होकर निकालता है, जिसमें विशाल सोपान हैं। ढलाई वाला प्लिंथ विस्तृत रूप से निर्माता शासक के शिलालेखों से भरपूर है जो उनकी अनेक उपलब्धियों का वर्णन करता है, पवित्र कार्यों और मंदिर से जुड़ी संगठनात्मक घटनों का वर्णन करता है। गर्भ गृह के अंदर बृहत लिंग 8.7 मीटर ऊंचा है। दीवारों पर विशाल आकार में इनका चित्रात्मक प्रस्तुतिकरण है और अंदर के मार्ग में दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और भिक्षाटन, वीरभद्र कालांतक, नटेश, अर्धनारीश्वर और अलिंगाना रूप में शिव को दर्शाया गया है। अंदर की ओर दीवार के निचले हिस्से में भित्ति चित्र चोल तथा उनके बाद की अवधि के उत्कृष्ट उदाहरण है।
उत्कृष्ट कलाओं को मंदिरों की सेवा में प्रोत्साहन दिया जाता था, शिल्पकला और चित्रकला को गर्भ गृह के आस पास के रास्ते में और यहां तक की महान चोल ग्रंथ और तमिल पत्र में दिए गए शिला लेख इस बात को दर्शाते हैं कि राजाराज के शासनकाल में इन महान कलाओं ने कैसे प्रगति की।
सरफौजी, स्थानीय मराठा शासक ने गणपति मठ का दोबारा निर्माण कराया। तंजौर चित्रकला के जाने माने समूह नायकन को चोल भित्ति चित्रों में प्रदर्शित किया गया है।
दिलवाड़ा मंदिर, माउंटआबू
संगमरमर में आश्चर्य जनक रूप से शिल्पकारी द्वारा माउंटआबू (राजस्थान) के दिलवाड़ा जैन मंदिर बनाए गए हैं जो विभिन्न जैन तीर्थंकरों के मठ हैं। अरासूरी पहाड़ी, अम्बाजी के पास, आबू रोड से 23 किलो मीटर की दूरी पर सफेद संगमरमर से निर्मित ये मंदिर जैन मंदिर वास्तुकला का असाधारण उदाहरण हैं।
इस समूह के 5 मठों में से 4 का वास्तुकलात्मक महत्व है। इन्हें सफेद संगमरमर के पत्थर से बनाया गया है, प्रत्येक में दीवार से घिरा एक आंगन है। आंगन के मध्य में मठ है जिसमें देवी देवताओं और ऋष देव के चित्र लगे हैं। आंगन के आस पास ऐसे कई छोटे छोटे मठ है, जहां तीर्थंकर के सुंदर चित्र के साथ पच्चीकारी वाले खम्भे की एक श्रृंखला प्रवेश से आंगन तक आती है। गुजरात के सोलंकी शासकों के मंत्रियों ने 11वीं से 13वीं शताब्दी तक इन मंदिरों का निर्माण कराया।
विमल वसाही यहां का सबसे पुराना मंदिर है, जिसे प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित किया गया है। विमल शाह, गुजरात के सोलंकी शासकों के मंत्री थे, जिन्होंने वर्ष 1031 ए. डी. में इसका निर्माण कराया था। इस मंदिर की मुख्य विशेषता इसकी छत है जो 11 समृद्ध पच्चीकारी वाले संकेन्द्रित वलयों में बनाई गई है। मंदिर की केन्द्रीय छत में भव्य पच्चीकारी की गई है और यह एक सजावटी केन्द्रीय पेंडेंट के रूप में दिखाई देती है। गुम्बद का पेंडेंट नीचे की ओर संकरा होता हुआ एक बिंदु या बूंद बनाता है जो कमल के फूल की तरह दिखाई देता है। यह कार्य का एक अद्भुत नमूना है। यह दैवीय भव्यता को नीचे आकर मानवीय आकांक्षाओं को पूरा करने का प्रतीक है। छत पर 16 विद्या की देवियों (ज्ञान की देवियों) की मूर्तियां अंकित की गई है।
एक अन्य दिलवाड़ा मंदिर लूना वासाही, वास्तुपाला और तेजपाला हैं, जिन्हें गुजरात के वाघेला तत्कालीन शासकों के मंत्रियों के नाम पर नाम दिया गया है, जिन्होंने 1230 ए. डी. में इनका निर्माण कराया था। बाहर सादे और शालीन होने के बावजूद इन सभी मंदिरों की अंदरुनी सजावट कोमल पच्चीकारी से ढकी हुए हैं। इसका सबसे उल्लेखनीय गुण इसकी चमकदार बारीकी और संगमरमर की कोमलता से की गई शिल्पकारी है और यह इतनी उत्कृष्ट है कि इसमें संगमरमर लगभग पारदर्शी बन जाता है।
दिलवाड़ा के मंदिर दस्तकारी के सर्वोत्तम उदाहरणों में से एक है। यहां की पच्चीकारी इतनी जीवंत और पत्थर के एक खण्ड से इतनी बारीकी से बनाए गए आकार दर्शाती है कि यह लगभग सजीव हो उठती है। यह मंदिर पर्यटकों का स्वर्ग है और श्रृद्धालुओं के लिए अध्यात्म का केन्द्र है।
चोला मंदिर
तमिलनाडु के दक्षिणी राज्य में स्थित यह विश्व विरासत स्थल तीन महान 11वीं और 12वीं शताब्दी के चोल मंदिरों से मिलकर बना है: बृहदेश्वर मंदिर, तंजौर, गंगाईकोंडाचोलीश्वरम, और एरातेश्वर मंदिर दर सुरम। ये तीन चोला मंदिर भारत में मंदिर वास्तुकला के उत्कृष्ट उत्पादन और द्रविण शैली को दर्शाते हैं।
बृहदेश्वर मंदिर तंजौर में स्थित हैं जो चोल राजाओं की प्राचीन राजधानी है। महाराजा राजा राज चोल ने दसवीं शताब्दी ए. डी. में बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण कराया था और इसकी संकल्पना प्रसिद्ध वास्तुकार सामवर्मा ने की थी। चोल राजाओं को अपने कार्यकाल के दौरान कला का महान संरक्षक माना गया, इसके परिणाम स्वरूप अधिकांश भव्य मंदिर और विशिष्ट ताम्र मूर्तियां दक्षिण भारत में निर्मित की गई।
बृहदेश्वर मंदिर के शिखर पर 65 मीटर विमान पिरामिड के आकार में बनाया गया है, यह एक गर्भ गृह स्तंभ है। इसकी दीवारों पर समृद्ध शिल्पकलात्मक सजावट है। द्वितीय बृहदेश्वर मंदिर संकुल का निर्माण राजेन्द्र – 1 द्वारा 1035 में पूरा किया गया था। इसके 53 मीटर के विमान के तीखे कोने और भव्य ऊपरी गोलाइयों में गतिशीलता का दृश्य तंजौर के सीधे और कठोर स्तंभ के विपरीत है। इसमें एक ही पत्थर से बने द्वारपालों की 6 मूर्तियां प्रवेश द्वार की रक्षा में खड़ी हैं और तांबे से अंदर सुंदर दृश्य बनाए गए हैं।
दो अन्य मंदिर गंगाईकोंडाचोलीश्वरम और एरातेश्वर भी चोल अवधि में निर्मित किए गए और ये वास्तुकला, शिल्पकला, चित्रकला और तांबे की ढलाई की सुंदर उपलब्धियों का दर्शाते हैं।
तंजौर के ये विशाल मंदिर 1003 और 1010 के बीच चोल साम्राज्य के महाराजा, राजाराज के शासन काल में निर्मित किए गए थे जो पूरे दक्षिण भारत में फैला हुआ था और यह इसके आस पास के द्वीपों में था। दो आयतकाकार संलग्नकों से घिरा बृहदेश्वर मंदिर (ग्रेनाइट के खण्डों और आंशिक रूप से ईंटों से निर्मित) पर 13 तल वाला पिरामिडीय स्तंभ है, विमान है जो 61 मीटर ऊंचा है एवं इसके ऊपर बल्ब के आकार का एक पत्थर बना हुआ है। मंदिर की दीवारों पर समृद्ध शिल्पकला सजावट है।
फतेहपुर सीकरी
फतेहपुर सीकरी का शाही शहर आगरा, उ. प्र. से पश्चिम दिशा में 26 मील की दूरी पर स्थित है। इसका निर्माण महान मुगल शासक अकबर द्वारा कराया गया था। संत शेख सलीम चिश्ती के सम्मान में सम्राट अकबर ने सीकरी ब्रिज पर इस विशाल शहर की नींव रखी थी। वर्ष 1571 में उन्होंने स्वयं अपने उपयोग के लिए भवन निर्माण का आदेश दिया और अपने दरबार के विशिष्ट व्यक्तियों से अपने घर यहां निर्मित करने के लिए कहा।
एक वर्ष के अंदर अधिकांश निर्माण कार्य पूरा हो गया और अगले कुछ वर्षों के अंदर सुयोजना बद्ध प्रशासनिक, आवासीय और धार्मिक भवन अस्तित्व में आए।
जामा मस्जिद संभवतया पहला भवन था, जो निर्मित किया गया। इसके शिला लेख एएच 979 ( एडी 1571-72) दर्शाते हैं कि इसका निर्माण इस तिथि को पूरा हुआ। बुलंद दरवाजा लगभग 5 वर्ष बाद जोड़ा गया। अन्य महत्वपूर्ण भवनों में शेख सलीम चिश्ती की दरगाह, नौबत-उर-नक्कारखाना (ड्रम हाउस), टकसाल (मिंट), कारखाना (शाही वर्कशॉप), खजाना (राजकोष), हकीम का घर, दीवान-ए-आम (जनता के लोगों के लिए बनाया गया कक्ष), मरियम का निवास, जिसे सुनहरा मकान (गोल्डन हाउस) भी कहते हैं, जोधा बाई का महल, बीरबल का निवास आदि शामिल हैं।
गोलकोंडा किला
भारत एक गहरे इतिहास वाला देश है। यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत ने सभी को सम्मोहित कर रखा है। भारत के सभी राज्यों में कोई न कोई सांस्कृतिक इतिहास अवश्य है। यदि आपको कभी हैदराबाद जाने का अवसर मिले जो आंध्र प्रदेश की राजधानी है, तो आप शायद 400 साल पुराने भव्य और प्रभावशाली गोलकोंडा किले को देखने का मोह नहीं छोड़ सकेंगे जो शहर के पश्चिमी सिरे पर स्थित है। यह किला तेरहवीं शताब्दी में काकतिया राजवंश द्वारा निर्मित किया गया था।
भारत का सर्वाधिक असाधारण स्मारक माना जाने वाला गोलकोंडा किला अपने समय की ”नवाबी” संस्कृति का अद्भुत चित्रण करता है। ”चरवाहे की पहाड़ी” या ”गोला कोंडा”, जिसे तेलुगु में लोकप्रिय रूप से यह नाम दिया गया है और इसके साथ एक रोचक इतिहास जुड़ा हुआ है। एक दिन एक चरवाहा बालक पहाड़ी पर एक मूर्ति पा गया, जिसे मंगलावरम कहा गया था। यह समाचार तत्कालीन शासक काकतिया राजा तक पहुंचा। राजा ने उस पवित्र स्थान के चारों ओर मिट्टी का एक किला बनवा दिया और उनके उत्तरवर्तियों ने भी इस प्रथा को जारी रखा।
आगे चलकर गोलकोंडा का किला बहमनी राजवंश के अधिकार में आ गया। कुछ समय बाद कुतुब शाही राजवंश ने इस पर कब्जा किया और गोलकोंडा को अपनी राजधानी बनाया। गोलकोंडा के किले में मोहम्मद कुल कुतुब शाह के समय की अधिकांश भव्यता अभी बची हुई है। इसके पश्चात की पीढियों ने गोलकोंडा किले को कई तरह से संपुष्ट किया और इसके अंदर एक सुंदर शहर का निर्माण कराया। गोलकोंडा किले को 17वीं शताब्दी तक हीरे का एक प्रसिद्ध बाजार माना जाने लगा। इससे दुनिया को कुछ सर्वोत्तम ज्ञात हीरे मिले, जिसमें ”कोहिनूर” शामिल है। इसकी वास्तुकला के बारीक विवरण और धुंधले होते उद्यान, जो एक समय हरे भरे लॉन और पानी के सुंदर फव्वारों से सज्जित थे, आपको उस समय की भव्यता में वापस ले जाते हैं। गोलकोंडा किले की भव्य वास्तुकला चिर स्थायी है और यह बात प्रवेश द्वार पर बने सुंदर और मजबूत लोहे की बड़ी छड़ों से स्पष्ट हो जाती है जो इस पर आक्रमण करने वाली सेनाओं को इससे टकराने से भय पैदा करती हैं। इस प्रवेश द्वार के आगे पोर्टिको है, जिसे बाला हिस्सार गेट कहते हैं और यह प्रवेश द्वार अत्यंत भव्य है।
आप यहां आकर आधुनिक श्रव्य प्रणाली के प्रभाव से चकित रह जाएंगे जो इस प्रकार बनाई गई है कि हाथ से बजाई गई ताली की आवाज़ बाला हिस्सार गेट से गूंजते हुए किले में सुनाई देती है। वास्तुकारों की अद्भुत योजना यहां हवा के आने जाने की दिशा से स्पष्ट हो जाती है, जो इस प्रकार डिज़ाइन की गई है कि यहां ठण्डी ताजा हवा के झोंके सदा बहते रहते हैं चाहे बाहर आंध्र प्रदेश की तीखी नम गर्मी जारी हो।
यहां स्थित रॉयल नगीना गार्डन भी एक देखने लायक स्थान है, साथ ही अंगरक्षकों का बैरक और पानी के तीन तालाब जो 12 मीटर गहरे हैं, जो एक बार बनने के बाद किले में पानी के आंतरिक स्रोत रहे। किले की शानदार भव्यता यहां का दरबार हॉल देख कर समझी जा सकती है, जो हैदराबाद और सिकंदराबाद के दोनों शहरों पर नजर रखते हुए पहाड़ी की छोटी पर बनाया गया है। यहां एक हज़ार सीढियां चढ़ कर पहुंचा जा सकता है और यदि आप यहां चढ़ने का काम पूरा कर लेते हैं तो आपको नीचे प्रसिद्ध चार मीनार का सुंदर दृश्य दिखाई देता है।
गोलकोंडा किले के बाहर पत्थरीली पहाडियों पर तारामती गान मंदिर और प्रेमनाथ नृत्य मंदिर नामक दो अलग अलग मंडप हैं, जहां प्रसिद्ध बहनें तारामती और प्रेममती रहती थीं। वे कला मंदिर नामक दो मंजिला इमारत के शीर्ष पर बने एक गोलाकार मंच पर नृत्य कला का प्रदर्शन करती थीं, जो राजा के दरबार से दिखाई देता था। कला मंदिर की भव्यता को दोबारा जीवित करने के प्रयास जारी हैं जो अब कुछ भग्नावस्था में पहुंच गया है। इसके लिए दक्षिण कला महोत्सव का वार्षिक आयोजन किया जाता है। सुंदर गुम्बद वाला कुतुबशाही गुम्बद किले के पास इस्लामी वास्तुकला का अनोखा नमूना प्रस्तुत करता है।
किले का एक आकर्षण यहां होने वाला ध्वनि और प्रकाश का कार्यक्रम है जिसमें गोलकोंडा के इतिहास को सजीव रूप में प्रस्तुत किया जाता है। दृश्य और श्रव्य प्रभावों के विहंगम प्रस्तुतिकरण से गोलकोंडा की कहानी आपको कई सदियों पुराने भव्य इतिहास में ले जाती है। यह कार्यक्रम सप्ताह के एक दिन छोड़कर अगले दिन के अंतराल पर अंग्रेजी और तेलुगु में प्रस्तुत किया जाता है। गोलकोंडा का किला भारतीय सेना की गोलकोंडा सशस्त्र सेना के मौजूदा समय में गर्व से खड़ा है, जो आज यहां उपस्थित है।
ग्वालियर का किला
पिछले 100 वर्षों से अधिक समय से यह किला ग्वालियर शहर में मौजूद है। भारत के सर्वाधिक दुर्भेद्य किलों में से एक यह विशालकाय किला कई हाथों से गुजरा। इसे सेंड स्टोन की पहाड़ी पर निर्मित किया गया है और यह मैदानी इलाके से 100 मीटर ऊंचाई पर है। किले की बाहरी दीवार लगभग 2 मील लंबी है और इसकी चौड़ाई 1 किलो मीटर से लेकर 200 मीटर तक है। किले की दीवारें एकदम खड़ी चढ़ाई वाली हैं। यह किला उथल पुथल के युग में कई लडाइयों का गवाह रहा है साथ ही शांति के दौर में इसने अनेक उत्सव भी मनाए हैं। इसके शासकों में किले के साथ न्याय किया, जिसमें अनेक लोगों को बंदी बनाकर रखा। किले में आयोजित किए जाने वाले आयोजन भव्य हुआ करते हैं किन्तु जौहरों की आवाज़ें कानों को चीर जाती है। यही वह स्थान है जहां तात्या टोपे और झांसी की रानी ने स्वतंत्र संग्राम का युद्ध किया। झांसी की रानी ने इस किले पर कब्जा करने के लिए ब्रिटिश राज द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के कारण हुए संघर्ष में अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।
हवा महल
जयपुर की पहचान माना जाने वाला हवा महल कई स्तरों पर बना हुआ महल है, जिसका निर्माण सवाई प्रताप सिंह (सवाई जय सिंह के पौत्र और सवाई माधो सिंह के पुत्र) ने 1799 ए. डी. में कराया था और श्री लाल चंद उस्ता इसके वास्तुकार थे। मधुमक्खी के छत्ते जैसी संरचना के लिए प्रसिद्ध, हवा महल लाल और गुलाबी सेंड स्टोन से मिल जुल कर बनाया गया है, जिसमें सफेद किनारी और मोटिफ के साथ बारीकी से पच्चीकारी की गई है। यह भवन पांच मंजिला है, जो पुराने शहर की मुख्य सड़क पर दिखाई देता है और यह राजपूत कलाकारी का एक चौंका देने वाला नमूना है। जिसमें गुलाबी रंग के अष्ट भुजाकार और बारीकी से मधुमक्खी के छत्ते के समान बनाई गई सेंड स्टोन की खिड़किया हैं। यह मूल रूप से शाही परिवार की महिलाओं को शहर के दैनिक जीवन और जलसों को देखने के लिए बनवाया गया था।
जैसलमेर का किला
जैसलमेर के किले का निर्माण 1156 में किया गया था और यह राजस्थान का दूसरा सबसे पुराना राज्य है। ढाई सौ फीट ऊंचा और सेंट स्टोन के विशाल खण्डों से निर्मित 30 फीट ऊंची दीवार वाले इस किले में 99 प्राचीर हैं, जिनमें से 92 का निर्माण 1633 और 1647 के बीच कराया गया था। इस किले के अंदर मौजूद कुंए पानी का निरंतर स्रोत प्रदान करते हैं। रावल जैसल द्वारा निर्मित यह किला जो 80 मीटर ऊंची त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित है, इसमें महलों की बाहरी दीवारें, घर और मंदिर कोमल पीले सेंट स्टोन से बने हैं। इसकी संकरी गलियां और चार विशाल प्रवेश द्वार है जिनमें से अंतिम एक द्वार मुख्य चौक की ओर जाता है जिस पर महाराज का पुराना महल है। इस कस्बे की लगभग एक चौथाई आबादी इसी किले के अंदर रहती है। यहां गणेश पोल, सूरज पोल, भूत पोल और हवा पोल के जरिए पहुंचा जा सकता है। यहां अनेक सुंदर हवेलियां और जैन मंदिरों के समूह हैं जो 12वीं से 15वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे।