छत्तीसगढ़ : संस्कृतिक समृद्धि का सागर है

छत्तीसगढ़ : संस्कृतिक समृद्धि का सागर है

जिसमें हर इबकी के साथ हाथ आया सीप हमेशा आबदार मोती वाला ही निकलता है। ऐसा ही एक मोती ‘मितान-मितानिन’ की मिताई है। यह ऐसी मित्रता है जो न सिर्फ आजन्म, बल्कि पीढ़ियों के लिए रिश्ते में बदल जाती है। इसका रोचक पहलू यह भी कि मितानी बदने के लिए सहज से लेकर विधि-विधान वाले कई तरीक़े हैं, किंतु मितानी तोड़ने-छोड़ने का कोई प्रावधान किसी भी तरीक़े की मितानी में नहीं है।

मितान बदने या गियां-गांठी की परंपरा पूरे छत्तीसगढ़ में है। पुरुष आपस में मितान होते हैं तो महिलाएं मितानिन। मितान बदना यानी मिताई या मित्रता में बद्ध होना, बंधना। इसी प्रकार गियां-गांठी का तात्पर्य गियां, गुझ़यां या गोई (और गो या कैवल ग, सामान्यतः पुरुषों में प्रयुक्त) और गांठी अर्थात दो व्यक्तियों के बीच अट्ट संबंधों की गांठ। इस तरह छतीसगढ़ी में बदना वस्तुतः बंधना या गांठ बांध लेना है जिसमें शपथ, सौगंध और संकल्प आशय भी निहित हैं। मित्र बनाने की इस परंपरा में जाति, धर्म जैसी कोई असमानता बाधक नहीं होती।

इस बारे में ब्रिटिश-भारतीय मानवविज्ञानी वेरियर एलविन का उल्लेख रोचक है। वे अपनी डायरी में 8 मई 1934 को लिखते हैं- गोंड समाज कई तरह की दोस्ती से जुड़ा हुआ है और वे शादियों से भी ज़्यादा टिकाऊ हैं। इनके नाम हैं- बाजली, सखी, जवार, महाप्रसाद, गंगाजल, अमरबेल, गुलाबफूल, केिलापान, नर्मदा जल इत्यादि। शामराव की एक छोटे भद्दे लड़के के साथ बाजली और आमिर के साथ गुलाबफूल दोस्ती है। मेरी अपनी गुलाबफूल एक नन्हीं लड़की है। मेरे तीन जवार हैं- नन्ही जिगरी, कोटरी का एक सुंदर लड़का और मेरे गांव का कुंदरू।

ऐसा नहीं कि मितानी एक-दूसरे के मन मिलने पर ही होती है, कई बार क़द-काठी, चेहरा-मोहरा, चाल-ढाल में समानता देखकर या एक ही नाम वाले सहिनांव-हमनाम के लिए लोग सुझाते हैं कि ‘गियां बने फभिही (बढ़िया जमेगा) और मितानी बद ली जाती है। इससे एक क़दम आगे, दो व्यक्तियों के बीच लगातार किंतु अकारण मनमुटाव होता रहे तो इसके निवारण के लिए उनकी मितानी करा दी जाती है और इसके बाद उनके संबंध बहुथा मधुर मैत्रीपूर्ण पवित्र प्रतीकों से बनता है आटूट रिश्ता मितानी परंपरा में महापरसाद (महाप्रसाद) का सर्वाधिक महत्व है, यह मित्रता में सबसे बड़ा रिश्ता माना जाता है। महापरसाद अर्थात जगन्नाथपुरी का सूखा चावल, भगवान जगन्नाथ जी पर चढ़ाया गया भोग, जिसे विधि-विधानपर्वक दो वयस्क व्यक्ति आपस मेंएक-दूसरे को खिलाकर मितान बदते हैं। इस अवसर पर एक-दूसरे को नारियल, सुपारी, धोती-साड़ी भेंट कर, सीताराम महापरसाद बोलकर मैत्री संबंध स्थापित किया जाता है। इसी प्रकार की मितानी गजामूंग भी है। आषाढ़ मास की द्वितीया, अर्थात रथयात्रा- गोंचा पर्व का प्रसाद, गजामूंग यानी बड़ा मूंग (मोठ), चना दाल और गुड़, एक-दूसरे को खिलाकर आजीवन मैत्री संबंध निवाह के लिए संकल्प लिया जाता है। इसके बाद यह खुन के रिश्ते की तरह पीढ़ी- दर-पीढ़ी निभाया जाता है। मितान बिरादर -हंड़हिरा जैसा हो जाता है, एक-दूसरे के घर की गमी में सिर मुड़ाता है, सूतक का पालन करने लगता है। विवाह के अवसर पर परिवार की तरह ही पंचहड़ (पांच बर्तन) दिए जाने की रस्म भी मितान पूरी करता है। मितान के बाद एक- दूसरे के सभी रिश्ते आपस में उसी सम्मान के साथ निभाए जाते हैं, किंतु रोटी-बेटी की मर्यादा का निर्वाह किया जाता है। साथ हीसइसका नाजुक पक्ष है कि पुरुष मितानों की पन्रियां अपने पति के मितान को कुंअरा ससुर (जेठ) जैसा मानकर उससे पर्दा करती हैं।

रोज़मर्रा में मितानी का एक रोचक नमूना ‘छत्तीसगढ़ की आत्मा’ में पदमलाल पुन्नालाल बख्शी की पात्र कारी के कथन में है- ‘अपन तुलसीदल के संग डोंगरगांव गे रहेंव अउर अब अपन गंगा-जल के संग रायपुर जाहों। वोकर जंवारा तो आवत हये। दूसरी ओर मीत-मितानी का संबंध सिर्फ़़ तीज-त्योहार और खाने-पीने का नहीं, बल्कि यह दार्शनिक भाव के साथ आध्यात्मिक उंचाइयों तक पहुंच जाता है, जहां मित्रता के बंधन को तीर्थ का दर्जा दिया गया है। ‘दस इंदरी के महल जर जावै, मितानी झन छूटै, दिन दूभर हो जावै।’ एक सरगुजिहा गीत में महापरसाद रिश्ते की महत्ता गाई जाती है कि कठिन समय के लिए, विपत्ति के दिनों का सामना करने के लिए महापरसाद बद लो। लड़कियां फूल बदती हैं। जो उनके विवाह के बाद निभ पाना संभव नहीं होता, लेकिन पुरुषों में बदा महापरसाद जीवन भर का साथ है।

इसी प्रकार मितानी के नाजुक रिश्तों का मजबूत और अटूट बंधन है- तुलसीदल, गंगाबारू, गंगाजल। इनमें मितानी का माध्यम क्रमशः तुलसी का पत्ता, गंगा की और गंगाजल होता है, जिसे एक-दूसरे को ग्रहण करने को/ भेंट दिया जाता है।

रेत यह ध्यान देने वाली बात है कि महापरसाद की तरह तुलसीदल, गंगाजल और गंगाबारू ऐसी पवित्र वस्तुएं हैं जोसभागवत की वेदी और मृत्यु के समय प्रयुक्त होती हैं। इन माध्यमों से मितानी में भावना होती है कि यह पवित्र रिश्ता जीवन-मरण का है। हर संकट और दुःख की घड़ी में साथ निभाने वाला है। यह बस्तर अंचल के मरई-बदने की परंपरासमें अधिक उजागर है, जो श्मशान घाट में तय हुआ मित्रता कासरिश्ता है। कहा जाता है- ‘तुलसीदल, महापरसाद, जगन्नाथ के आसिस, सुरुज-आगी के साखी मा जियव लाख बरीस।”

यानी ऐसे संबंधों में भगवान जगन्नाथर का आशीष है, सूर्य, अग्नि और ध्रुव तारा इसके साक्षी हैं। और इसका निर्वाह विशेष पर्व-त्योहारों दीपावली, दशहरा और राखी पर अवश्य निभाया जाता है। रोचक आधार पर जुड़ती हैं सखियां सरगुजा अंचल में मितानी के लिए अधिक प्रचलित शब्द हैं- सखी जोराना या फूल जोराना। जोराना, यानी जुड़ना या जोड़ना। वैसे सखी जोराने या बदने का चलन पूरे छत्तीसगढ़ में है। यह मुख्यतः दो विवाहित, बाल -बच्चेदार महिलाओं के बीच होता है। रोचक यह है कि इस मित्रता का आधार संतति और उनका जन्म-क्रम होता है। यानी किसी महिला की पहली लड़की और उसके बाद दो पुत्र हैं तो वह वैसी ही महिला से सखी संबंध बनाएगी, जिसके लड़की, लड़का का जन्मक्रम और संख्या वैसी ही हो। इस तरह सखी बन गई महिलाओं में से किसी की संतान की मृत्यु होने पर या अन्य संतान हो जाने पर संख्या घट-बढ़ होने पर नई मितानी का रास्ता बन जाता है। कई बार मन मिल जाने पर जन्मक्रम के बजाय मात्र संतानों, पुत्र -पुत्री की कुल संख्या को आधार मानकर भी सखी जोराते हैं। सखी जोराने में दोनों परिवार के प्रमुख की उपस्थिति होती है। दोनों पक्ष के लोग आंगन में इकट्टे होते हैं। दोना में चावल, फूल लेकर बैठते हैं, गौरी -गणेश की पूजा होती है और एक- दूसरे के कंधे पर साड़ी रखकर, कान में फूल खोंस देते हैं और एक-दूसरे के पैर छूकर अभिवादन करते हैं। इसके बाद पूरे परिवार के लोग जोहार भेंट होते हैं, एक- दूसरे परिवार को भोज, उपहार-भेंट दिया जाता है। सखी का रिश्ता जुड़ जाने के बाद दोनों पक्ष परस्पर आत्मीय और सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे सखी दाई, सखी दाउ, सरखी भाई या सखी बहिनी। सरगुजा अंचल में गेंदा या अन्य पफूलों के माध्यम से और कई बार गौरा पत्ता (चमकदार कारज़-सनफना) को भी माध्यम बनाकर मितानी बना ली जाती है। एक अन्य मितानी जलीय वनस्पति गेल्हा है।

फूल-पुत्ती से हो जाती है मितानी बस्तर अंचल में भी दशहरे के अवसर पर सोनपत्ती के माध्यम से मितानी बदी जाती है। महिलाएं, कुड़ई फूल और संगात बदती हैं। लड़कियां एक-दूसरे के बालों जूड़े में हजारी फूल खोंसकर, बाली फूल रिश्ता बनाती हैं। इसी प्रकार देवता और बड़े-बुजुगोंषके समक्ष चंपाफूल बदा जाता है। दोने में चावल की अदला-बदली कर पुरुष या महिला दोनिया सखी बन जाते हैं। केंवरा, बदना अविवाहित युवकों और यु्वतियों में होता है। एक अन्य मितानी, सामान्यत दो परिवार के वरिष्ठ सदस्यों के बीच होती है : त्रिनाथ मेला बंधन।यह किसी धार्मिक स्थल या पीपल-बरगद के पास बड़े आयोजन के साथ संपन्न होती है। माटी हांडी की मितानी यादव समाज में अधिक प्रचलित है। वानस्पतिक फूल-पत्तियों के माध्यम से मितान बदना प्रचलित है। सामान्यतः अविवाहित युवतियां रक्षाबंधन के अगले दिन भोजली

पर्व पर एक-दूसरे के कान में भोजली लगाकर भोजली देवी के समक्ष संकल्प करते हुए गियां बदती हैं। अन्य सभी एक-दूसरे कोषभोजली देकर अभिवादन-भोजली भेंट करते हैं। इसी तरह दौना और केंवरा सुर्ंथित वनस्पतियां हैं, जिनके माध्यम से मितान बदा जाता है। इनमें दौना (नगदौना) की विशेषता है कि सांप इसकी गंध के पास नहीं फटकता जबकि कैंवरा की महक सांपों को आकर्षित करती है। दोनों नवरात्र के अवसर पर अंतिम दिन जवारा विसर्जन के पश्चात ‘जंवारा मितानी’ बदी जाती है, जिसमें मितान बदने वाले दोनों पात्र, चंउक पर रखे पीढ़ा पर खड़े होकर एक-दूसरे से नारियल की अदला-बदली करते हैं। उल्लेखनीय है कि कहीं-कहीं जंवारा विसर्जन अभिभावकों की निगरानी में युवक-युवती परिचय सम्मेलन की तरह भी होता है। युवा लड़के-लड़कियों के बीच भी जंवारा का संबंध होता है, जो मित्रता का और कभी-कभी विवाह संबंध में भी बदल जाता है। इसी प्रकार गोदना बदने में दो व्यक्तिसएक-दूसरे का नाम गुदवाकर मैत्री संबंध स्थापित करते हैं। सावन में दुबी अर्थात दूर्वा जैसे तृण को भी माध्यम बनाकर मितानी होती है। दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा से प्राप्त गोबर को एक- दूसरे के माथे पर लगाकर गोबरथन बदते हैं, जिसमें गले मिलकर एक-दूसरे को नारियल, यथाशत्ति वस्त्र आदि भी भेंट करते हैं। जब मितान मिलते हैं तो सीताराम गोबरधन बोलते हैं। महिलाएं एक-दूसरे के पैर छूती हैं। इसी प्रकार किसी पर्व, रामायण, कीर्तन,षसत्यनारायण कथा या भागवत के अवसर पर मितानी बदने के लिए उपयुक्त अवसर माना जाता है। छत्तीसगढ़ की इस विशिष्ट और समृद्ध परंपरा लोक- जीवन में कितनी और किस तरह से घुली -मिली है,षयह प्रचलित कथनों में परिलक्षित होता है। लोकप्रियषकहावत है- ‘मितानी बदै जान के, पानी पीयव छान के। लेकिन मित्रता करते हए पात्र चयन में सावधानी रखना

आवश्यक होता है, इसके लिए नसीहत दी जाती है- ‘भले मनसे ले मीत बदै जिंगनी हा सधे, खिटखिटहा ल मीत बनाय बोडझा मा लदे। लेकिन मितानी में जात-पात का भेद नहीं होता, यह देखकर पड़ोसी को भी ईष्य्या हो सकती है और मित्र की बातें मीठी लगती हैं, जबकि पड़ोसी की सीठी (फीकी), कुछयों-‘मितान के मितानी देख परोसी ल होवै ईरखा, जात-पांत भुला जावै, गांड़ा सईस दिरखा।’ और- ‘मितानी के गोठ मीठ-मीठ, परोसी के सीठ- सीठा।’ संक्षेप में कहें तो छत्तीसगढ़ में मीत-मिठास का यह लोक-संस्कार, सोलह संस्कारों जैसा ही मान्य और प्रतिष्ठत है।

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